लौकिक संस्कृत (४)
हम इस बात को दुहराना चाहते हैं कि पाणिनि का उद्देश्य संस्कृत को नियमित और आंचलिक प्रवृत्तियों को हतोत्साहित करना मात्र था। वह इसी सीमा तक वैदिक और आंचलिक अनियमितताओं के दूर करना या संस्कृत करना चाहते थे, भाषा को दुरूह बनाने या अल्पजनग्राह्य बनाने का उनका कोई इरादा न था। उन्होंने (या कहें उनके सिद्धान्तों को निरूपित करते हुए किसी अन्य ने ने) पाणिनीय शिक्षा में उन दोषों को भी हतोत्साहित करने का प्रयत्न किया था जो संस्कृत के छात्रों और विद्वानों में आज तक पाए जाते हैं, ये दोष हैं गाते हुए पढ़ना (और बोलना), तेजी से पढ़ना (और बोलना), झूमते हुए पढ़ना (और बोलना), और जैसा लिखा है ठीक उसी तरह पढ़ना (और बोलना)-
गीती, शीघ्री, शिरःकंपी यथालिखित पाठकः ।
प्रयोग पाठक का हुआ है, पर अभिप्राय वाचिक प्रस्तुति से है, जिसमें पढ़ना-बोलना दोनों आते हैं। यह है भाषा पर अधिकार होने की स्थिति में सहज, स्वाभाविक, निरहंकार भाव से पढ़ने और बोलने का तरीका। किसी को प्रभावित नहीं करना है, अपने मत को इस तरह प्रकट करना है कि सुननेवालों को हमारी बात समझ मे आ जाय और पढ़ते समय पाठ का अर्थ हमें स्वयं स्पष्ट होता चले।
इसमें अन्तिम अपेक्षा कि जैसा लिखा है ठीक उसी तरह पढ़ने को दोष मानना बहुत रोचक है। कोई पाठक जैसा लिखा है वैसा ही न पढ़ेगा तो क्या कुछ और पढ़ेगा? यहां यह कहा गया है कि लिखित सामग्री का सन्धिविच्छेद करते हुए पाठ करें तो ही अर्थ समझ में आएगा। इस एक सीख पर ध्यान दिया गया होता तो संस्कृत की आधी दुरूहता समाप्त हो जाती और केवल इसे निर्देशक सिद्धान्त बना लेने के कारण ऋग्वेद जैसे डरावना माने जाने वाले ग्रन्थ का बिना टीका और भाष्य की सहायता लिए पाठ करना और अर्थ ग्रहण करना मेरे लिए काफी दूर तक संभव हो पाया। ऐसा नहीं कि मुझे अनुवाद और भाष्य देखने की जरूरत ही नहीं पड़ती, इसकी नौबत कम आती है और अनुवादकों और भाष्यकारों की गलतियां तक पकड़ में आ जाती हैं। यह आप थोड़ी बहुत संस्कृत जानते हैं तो स्वयं आजमा कर देख सकते हैं।
इसे स्पष्ट करने के लिए हम ऋग्वेद के पहले ही सूक्त की पहली और दूसरी ऋचाओं को ही लें:
अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम् । होतारं रत्नधातमम् ।।
अग्निः पूर्वेभिर्ऋषिभिरीड्यो नूतनैरुत । स देवाँ एह वक्षति ।।
अब इसी के स्फुट (सन्धिविच्छेद सहित) पाठ पर ध्यान दें:
अग्निं ईळे पुरोहितं यज्ञस्य देवं ऋत्विजम् । होतारं रत्नधातमम् ।।
अग्निः पूर्वेभि: ऋषिभि: ईड्यो नूतनैः उत । स देवान् आ इह वक्षति ।।
अब पहली ऋचा में यदि कोई समस्या रह जाएगी तो ईळे को लेकर पर वह भी दूसरी ऋचा में आए ईड्य से दूर हो जाएगी। दूसरी ऋचा में इह से एक नया बोध होंगा कि भोजपुरी का इहां हिन्दी के यहां से अधिक पुराना है अर्थात् प्राचीनतर रूप या वैदिक की जड़ें कुरु पांचाल में नहीं भोजपुरी-मागधी क्षेत्र में हैं। संस्कृत के वहति का अधिक पुराना रूप वक्षति है, अर्थात् वह् धातु जिससे सं. वहन, वाहन और अंग्रेजी का वेहिकल आदि निकले हैं उसका पुराना रूप वघ् है जो बग्घी में उजागर है। हां इन बारीकियों को देखने के लिए नजर का सधना जरूरी है, पर एक बार सध जाने के बाद बोलियों, संस्कृत, और भारोपीय के विषय में दिमाग की जकड़बन्दी तार तार होने लगती है। हम जब वैदिक के गहन पाठके लिए पूरीतरह वैदिक के अध्ययन पर केन्द्रित पाठ की आवश्यकता पर बल देते हैं तो इसीलिए ।