Post – 2018-01-10

बौद्धिक लकड़बग्घे (२)

इस शीर्षक का प्रयोग मैंने खिन्न होकर पर विवश हो कर किया था। इस पर बहस ठनी यह अच्छी बात है। बहस आरंभ से ही भटक गई यह दुखद है और उससे अधिक दुर्भाग्यपूर्ण है कि हम किसी चीज को धैर्य से पढ़, या किसी बात को ध्यान और सम्मान से सुन तक नहीं पाते। हो सकता है मेरे कहने के तरीके में ही कोई कमी रह गई। बुद्धिजीवी के स्थान पर विचारक कहना शायद अधिक सही रहा होता। इसलिए मैं अपनी बात यथाशक्ति सुलझे रूप में रखना चाहूंगा।
१. मैं सक्रिय राजनीतिज्ञों को विचारक नहीं मानता। उनके मन में किसी विचार से प्रेरित एक निश्चित लक्ष्य होता है और उसे वे न बार बार बदलते हैं, न सुधारते हैं।उसकी सिद्धि के लिंए। वे कार्ययोजनाएं बनाते और रणनीतियां तय करते हैं। रणनीति में वे परिस्थिति के अनुसार बदलाव करते, सफलता के लिए समझौते करते और कई बार अनैतिक या अमर्यादित आचरण करते हैं। इसके अपवाद साधन और साध्य दोनों की शुचिता के हामी गांधी भी नहीं थे अन्यथा वह न तो खिलाफत का समर्थन करते, न सुभाष को पराजित या अपदस्थ करने के तरीके अपनाते।
राजनीतिज्ञों की महानता उनकी सफलता से नापी जाती है, विचार की नवीनता या आचार की शुद्धता से नहीं । विचारक का इन सीमाओं से मुक्त होना जरूरी है।

२. विचारक या बुद्धिजीवी की भूमिका सत्ता की राजनीति से ठीक उलट होती है। वह किसी सत्ताकामी या सत्तासीन दल का समर्थन वहीं और उस सीमा तक ही कर सकता है जब तक या जिस सीमा तक नैतिक अपेक्षाओं के अनुरूप रहता है। यदि बुद्धिजीवी या विचारक सही गलत किसी भी हथकंडे से किसी दल को सत्ता से हटाने और किसी अन्य या किन्हीं अन्य को सत्ता में लाने को विकल हो जाय तो मानना होगा बुद्धजीवी वर्ग को सिद्धंतहीन सत्ताकामी राजनीति ने हजम कर लिया । वह होकर भी नहीं है। वह बुद्धिजीवी के रूप में मर चुका है और बौद्धिक लकड़बग्घों के रूप में जीवित है ।आज की स्थिति ऐसी ही दिखाई देती है। इसका दुष्परिणाम है भाषा का , विचार का, आत्मविश्वास का क्षरण और घबराहट को झूठी आशाओं में छिपाने का प्रयत्न । इससे मुक्त कोई नहीं।

(अपूर्ण)