Post – 2018-05-08

धन और संपत्ति और जल

यव (2)

विषयांतर को छोड़ कर हम मुख्य विषय पर आएं। ‘जौ’ अनाज है तो इसका नामकरण जल के किसी पर्याय पर होना चाहिए, परंतु ऋग्वेद में और बोलियों मैं भी कोई ऐसा प्रयोग देखने में नहीं आया, जिसका अर्थ पानी प्रकाश या गति हो। यदि ऐसा है तो हमारी प्रतिज्ञा ही गलत सिद्ध होती है कि सभी खाद्य पदार्थों के नाम जल के किसी पर्याय पर आधारित है। इसलिए हमारा प्रयास होगा कि हम ‘यव’ शब्द के अर्थ को समझें और फिर यह देखें कि इसका नामकरण जल के पर्याय से कितने कदम हटकर, परंतु उसी कड़ी में, है।

यव का प्रयोग दो रूपों में आया है – ‘यवस’ और ‘यव’। पहले का प्रयोग सामान्यतः घास या चरागाह के लिए हुआ हैः ‘गावो न यवसेषु आ’, 1.91.13 (जैसे चरागाह में गोरू); ‘मृगो न यवसे’, 1.38.5, (जैसे चरागाह में वन्य पशु); बिजली की तड़क से ‘यवसादो व्यस्थिरन्,’ 1.94.11 (चरते हुए जानवर घबरा जाते हैं); इत्यादि में, ऐसा प्रयोग देखने में आता है। कुछ संदर्भों से ऐसा लगता है कि यव और यवस दोनों का प्रयोग ‘जौ’ और ‘घास’ दोनों के लिए होता था। सायण स्वयं ‘यवसस्य’ का अर्थ दो तरह से करते हैं। 1. ऋ. 2.16.8 में ‘घासेन’, और 2. ऋ.7.93.2 में ‘अन्नस्य’।

एक दूसरे स्थान पर ‘यव’ का प्रयोग खड़ी फसल के लिए हुआ लगता हैः ‘गावो यवं प्रयुता अर्यो अक्षन् ताः अपश्यं सहगोपाश्चरन्तीः।’ 10.27.8 (छुट्टा गोरू किसान की फसल चर जाते हैं, इसलिए मैंने आज उन्हें चरवाहों के साथ जाते देखा) ।

दो स्थलों पर ‘सूयवसं’ का अर्थ ‘समस्त प्रकार की औषधियों अर्थात खाद्य पदार्थों से भरा पूरा प्रदेश का आशय लिया गया हैः ‘सुप्रैतुः सूयवसो न पन्था दुर्नियन्तुः परिप्रीतो न मित्रः।’ 1.190.6 (सूयवस – शोभन अन्न युक्त); ‘अभि सूयवसं नय न नवज्वारो ध्वने, पूषन्निह क्रतुं विदः ।’ 1.42.8 (पूषा देव, अपने कर्तव्य का ध्यान रखना, हमें सस्य संपन्न -सायण ने सर्वौषधिसंपन्न का प्रयोग किया है- देश की ओर ले कर चलना। रास्ते में कोई हारी-बीमारी न हो।)

वैसे ग्रास और घास में विशेष अंतर नहीं है। जिसे ग्रसा या खाया जा सके वह ग्रास और घास है। वन्य यव और धान को वरुण प्रघास कहा ही गया है। अंग्रेजी में ग्रास का अर्थ घास है और संस्कृत में निवाला या कौर (कवल)।

‘दुरो अश्वस्य दुर इन्द्र गोरसि दुरो यवस्य वसुन इनस्पतिः ।’ 1.52.2 (इन्द्र तुम अश्वधन, गोधन, अन्नधन, खनिज धन के स्रोत (द्वार – सायण ने यहां दुर का अर्थ दाता किया है) स्वामी और पालक हो) यहां यव का अर्थ समस्त धान्य किया गया है, न कि केवल यव।

‘यव’ का शाब्दिक अर्थ है अलग करनाः ‘यावया वृक्यंवृकं यवय स्तेनमूर्म्ये,’ 10.127.6 (खूंखार भेड़िये को, और रात के समय चोरों उचक्सेकों को हमसे दूर रखना। ‘यावयत्सखः’,10.26.5 अपने मित्रों को शत्रुओं से अलग करने (बचाने) वाला।
‘सस्थावाना यवयसि त्वमेक,’ 8.37.4 (तुमने सुस्थिर लोकों -धरती और आकाश – को अकेले दम पर अलग किया है।)

ऐसी स्थिति में इसका गतिशील या प्रवहमान अर्थ करना दूर की कौड़ी प्रतीत होगा, परंतु अलग करने का ‘यव’ से क्या संबंध हो सकता है?

इस दृष्टि से उषा सूक्त का एक अर्धर्च रोचक हैः ‘यावयत् द्वेषा ऋतपा ऋतेजाः सुम्नावरी सूनृता ईरयन्ती ।’ 1.113.12 (ऋत का निर्वाह करने वाली, ऋत से उत्पन्न, पशुओं-पक्षियों की प्रेरिका, सुखदायिनी उषा द्वेषियों को मुझसे दूर करे । यहां दो तरह की गतियों का हवाला है। एक दूर भगाने की, दूसरी उड़ने ओर चलने दौड़ने को प्रेरित करने की। वास्तव में ‘यवय’ और ‘ईरय’ एक ही मूल, ‘ई’ के रूप हैं, जिसका मूल अर्थ जल था, जो ‘यह’ का बोधक बना, संप्रसारित हो कर ‘य’ बना तब भी जल का अर्थ बना रहा। दोनों एक अन्य जलार्थक ‘त/तर/त्र’ – स्थान, के प्रत्यय के रूप में जुड़ने पर ‘इत’, ‘इत्र’ (जो बाद में ‘अत्र’ बना), ‘इतर’, ‘यत्र’, ‘इतस्’/ ‘इतः’. ‘इतम्/इदं’, ‘इन्द’/ ‘इन्दु’/ ‘इन्द्र -जल की बूंद, जल, चमकने वाला, जल देने वाला, ‘इन्द्रिय’ – प्रकाश करने वाली, ज्ञान कराने वाली,’ इनार’/ ‘इन्दारा’ – कुआं, ‘ई/ ईर/इरा’/ इळा’/इला, इय (इयर्ति),ए (एति) -गति, जल(इरावती), अन्न. धरती.आदि के लिए शब्दों का जनन करती है और इसका संप्रसारित रूप ‘य’ (ज) जिसका ‘यव’ और ‘जव/जौ’ – से संबंध भी अन्न, जल, गति. वेग, आदि के लिए प्रयोग में आता है। जल्रार्थक हीनार्थक का भी बोधक है इसलिए यह स्त्रीलिंग और लघुता सूचक प्रत्यय तो बनता ही है, गुण और स्वभाव आदि से जुड़ी विशेषता का भी प्रत्यय बनता है जिसके लिए सं. में -‘-इन्’ और हिंदी में ‘-ई’ प्रत्यय (विधर्मी, अधिकारी, कमी) का विधान है।

अब इस पृष्ठभूमि में हम केवल ‘य’ से निकली और ऋग्वेद में उपलब्ध शब्दावली पर दृष्टिपात कर सकते हैंः

ययिं – गतिमन्तं मेघं, 1.87.2
यय्यं – गन्तारं , 2.37.5
यवसं – तृणादिकं; 3.45.3), ओषध्यादिलक्षणमन्नं 7.102.1
यवसस्य – अन्नस्य, 7.93.2
यवसे – घासे विसृष्टः 6.2.9; घासे प्रक्षिप्ते सति, 7.87.2
यविष्ठ = युवतम, 1.26.2; 2.6.6
यव्यं – ब्रीहिजवादिकं, 1.140.13
जवनी सूनृतारुहत् , 1.51.2
जवनी- प्रेरयित्री 1.51.2
रथेन मनोजवसा – मनोवेग से चलने वाले 1.117.15
श्येनस्य जवसा1. 118.11
धीजवना नासत्या – बुद्धि को प्रेरित करनेवाले अश्विनीकुमार 8.5.35