Post – 2018-04-23

पहले हिन्दी का सारा लेखन सबके लिए होता था। सभी लोग सभी चीजें नहीं पढ़ते थे, अपनी योग्यता, रुचि, अवकाश के अनुसार अपने लेखक, अपनी पाठ्य सामग्री तय करते थे। समीक्षाएं कम होती थीं पर गुण-दोष-परक होती थीं। उनकी भूमिका सीमित थी, आज भी सभी पुस्तकों की समीक्षा तो होती नहीं।

यह एक विचित्र बात है कि कम्युनिस्ट आन्दोलन हिन्दी क्षेत्र में सबसे कमजोर था और प्रगतिशील आन्दोलन हिन्दी साहित्य मे इतना कचवाबद्ध कि साहित्य भले न रहे, प्रगतिशीलता बनी रहनी चाहिए। पहली बार साहित्य समाज के लिए नहीं संघठन के लिए लिए, नकली समाज, नकली यथार्थ, और संगठन की अपेक्षाओ के अनुसार लिखा जाने लगा। यह व्याधि बंगाल, या केरल में जहा कम्युनिस्ट पार्टियां अधिक मजबूत थीं वहां नहीं लगी। वहां प्रगतिशील लेखक संघ भी नाम को ही रहे होंगे।

क्या इसका कारण यह है कि उर्दू भाषा और लिपि की प्रतिस्पर्धा थी जिसके कारण हिन्दी प्रदेश सांप्रदायिकता की रंगभूमि बना रहा। क्या हिन्दी क्षेत्र की प्रगतिशीलता का चरित्र संप्रदायवादी था और हिन्दू सांप्रदायिकता से लड़ने के नाम पर यह सांप्रदायिक तेवर अपना कर हिन्दुओं से, यहां तक कि हिन्दी और हिन्दुस्तान तक से छायायुद्ध करता रहा।

जहां तक समाज की कुरीतियों से मुक्ति का प्रश्न है, यह आर्यसमाज की समकक्षता में नहीं आ सका, उल्टे अपने आक्रामक तेवर के चलते परिरक्षणवादी प्रवृत्तियों को प्रबल किया।

हो सकता है, यह मेरी सोच का इकहरापन हो, पर हिन्दी साहित्य की प्राणवत्ता को इसने नष्ट अवश्य किया।