संतापसूचक शब्द और जल (3)
पीड़ा, तड़प, दर्द
पीड़ा
‘पी’ का अर्थ जल होता है हम जानते हैं, परंतु यह सोचते हुए झिझक होती है पीड़ा उत्कट प्यास और जल के अभाव से संबंध रखती है। विशेषतः इस कारण कि ‘पीड़न’ के साथ पांव से कुचलने का बिंब उभरता है। हाथी के लिए ‘पील’ का प्रयोग इस संभावना को और बढ़ा देता है, परंतु पील फारसी का शब्द है।
तडप
पीड़ा के साथ ही तड़पना शब्द याद आता है । इसमें ‘तड़’ जलर्थक है। तड़ाग का अर्थ जलाशय है। तड़पने के साथ, पानी के अभाव में मछलियों की छटपटाहट का बिंब सामने आ जाता है और प्रायः इसका प्रयोग किसी उग्र और प्राणान्तक अभाव की अवस्था में ही किया जाता है। पीर या पीड़ा के साथ ऐसी विकलता नहीं जुड़ी है।
ऋग्वेद में एक स्थल पर पावों से कुचलने या रौंदने का संदर्भ आया है, जिसमें छिन्न करने का प्रयोग हुआ हैः
अभिव्लग्या चिदद्रिवः शीर्षा यातुमतीनाम् ।
छिन्धि वटूरिणा पदा महावटूरिणा पदा ।। 1.133.2
सायण ने छिंधि का अर्थ चकनाचूर करना और वटूर का अर्थ हाथी के चौड़े पांवों जैसा किया है। हम पीछे देख आये हैं कि छिनाई का प्रयोग कुचलने के लिए नहीं किया जाता परन्तु संस्कृत में तोडकर तितर बितर करने के लिए छिन्न विच्छिन्न करने का प्रयोग चलता है। सामान्य बोलचाल में पावों से रौंदने या दलने, कुचलने का मुहावरा प्रयोग में आता है । छीनना कोई चीज़ जहां नैतिक या भौतिक न्याय से होना चाहिए उससे बलपूर्वक अलग करना- चाहे सिल पत्थर की चिनाई हो, किसी शाखा को झटक कर अलग करना हो, या हमारी संपदा का अपहरण हो, यहाँ तक कि छिन्नभिन्न करने पर भी – यह लागू होता है.
पीड़न का पीटने से और इस क्रिया से उत्पन्न ध्वनि से उत्पन्न मना जा सकता था, पर पीटने के कारण उत्पन्न वेदना के लिए पीड़ा का प्रयोग असंभव न होते हुए भी दूर की कौड़ी लगता है । पिटने या वंचित होने का पीडन में निहित सताने के भाव से कम मेल बैठता है.
पीटने से होने वाला कष्ट शरीर में जहां भी चोट पहुंची हो वहाँ दर्द होने का सूचक है इसलिए यदि कोई यह सुझाये कि यह छड़ी से चोट करने से पैदा ध्वनि का अनुकरण पीड़ा के रूप में हुआ है तो आपत्ति न होगी। एक ही या लगभग एक ही क्रिया से उत्पन्न ध्वनि/ ध्वनियों का अनुकरण ‘सट्’, ‘चट्’, ‘छट्’, ‘हंट’, ‘विप्’, ‘कश्’,आदि रूपों में किया गया है इससे ‘सटाकी’, ‘चटाकी’, ‘सटकी’, ‘सुटुकी’, ‘छड़ी’, ‘हंटर’, ‘व्हिप’, ‘कशा’ आदि की उत्पत्ति हुई है, परंतु ‘हंट’ को छोड़कर, जिसका अर्थ विस्तार शिकार करने अथवा खोज करने की दिशा में हुआ है, दूसरी संज्ञाएँ आघात का संकेत देती है, परंतु इनके कारण जहां दुर्दशा का संदर्भ आता है, वहां भी पीड़ा का पक्ष ओझल रह जाता है। दलित भी यह तो कह सकता है कि मेरा दलन हो रहा है या हमारा दलन किया गया, परंतु यह कहते नहीं पाया जाएगा मुझे दलन हो रहा है। क्रिया का पता चलेगा, परंतु उसकी अनुभूति का पता नहीं चलेगा। ऐसी स्थिति में हमें लौटकर जल से संबंध और जल के अभाव में उत्पन्न विकलता से पीड़ा का संबंध जोड़ना अधिक समीचीन लगता है।
तडप
तड़प के विषय में अब अधिक कुछ कहने की आवश्यकता नहीं रह जाती सिवाय यह बताने के कि तर ही> तळ> तड़ बना है।आज भी हम रानी को रानी लिखते हैं और हरियाणवी और राजस्थानी में राणी लिखा और बोला जाता है ।यह ध्वनि परिवर्तन के कारण नहीं है अपितु उस समुदाय के कारण है जो दंत्य ध्वनियों का मूर्धन्य उच्चारण करता था। तुलसी को आज भी मराठी में तुळसी लिखा जाता है। भले तडप मरण के प्रश्न से जुड़ी हुई हो परंतु इसकी अनुभूति ‘स्थाई’ नहीं होती और इसलिए संताप का कारण नहीं बन सकती।
दर्द, दारुण
तर /दर, तरु / दारु, तृप्त/ दृप्त, तर्पण/ दर्पण,आदि से स्पष्ट है आरंभ में दोनों में अर्थभेद नहीं था परंतु इनके अमूर्तन की प्रक्रिया और विकास की दिशा किंचित भिन्न रही है। पर यहां भी दर में अमूर्तन की प्रक्रिया कुछ पहले आरंभ हो जाती है। दर के साथ दरकने का आशय कैसे जुड़ा, यह किसी चीज के दरकने से उत्पन्न ध्वनि का अनुकरण था या नहीं, यह निश्चय के साथ नहीं कह सकते, परंतु ऋग्वेद में दारण, विदारण का प्रयोग ध्वस्त करने, नष्ट करने आदि आशयों में देखने में आता है। इसके लिए कुछ ऋग्वेदिक प्रयोगों पर नजर डालना उपयोगी होगा:
१. इन्द्रेण दस्युं दरयन्त इन्दुभि १.५३.4, इन्द्र सोम विन्दुओं से दस्यु का संहार किया। ग्रिफिथ ने दरयन्त का अर्थ तितर-बितर करना (scattering)
२. वैश्वानर पूरवे शोशुचानः पुरो यदग्ने दरयन्नदीदेः ।। 7.5.3 अग्निदेव ने पुरुओं के लिए धधक कर पुरी को जलाकर फाड़ दिया दिया।
३. वलं रवेण दरयो दशग्वैः ।। 1.62.4 वल को दशग्वों ने हंकार भरते हुए विदीर्ण कर दिया।
इन अंशों पढ़ाते हुए आप इनका दृश्य बिंब बनाना चाहें, तो कठिनाई होगी, क्योंकि इनका संदर्भ स्पष्ट नहीं हो पाता। अब यदि आप व्याख्याकारों के इस सुझाव को मान लें कि जिनको वृत्र आदि असुरों और दानवों के रूप में चित्रित किया गया है वे ऐसे बादल हैं जो पानी नहीं बरसाते और सारा जल अपने पास चुरा कर रखते है बिम्ब स्पष्ट होने लगता है । ऐसा सुझाव देने वालों में ग्रिफिथ भी हैं, और फिर पहले और तीसरे उद्धरणों पर पुनर्विचार करें तो आपको जल बिंदुओं से दस्यु को विदीर्ण करने, और बिजली की कड़क के साथ बादलों को प्रज्ज्वलित करते हुए चीर देने का बिंब आंखों के सामने उपस्थित हो जाएगा। तीसरा मेरे अनुसार मूल्यवान रत्नों के लिए की जाने वाली खुदाई से संबंधित है, परंतु इतना तो संदेहातीत है कि यहां दर का प्रयोग हमें होने वाले दर्द का भी आभास करा देता है।
संस्कृत में दारण और विदारण का प्रयोग चलता है परंतु फारसी में जिस अनुभूति के लिए दर्द का प्रयोग किया जाता है उस अर्थ हम व्यथा (सं. शिरोव्यथा, भोज. कपार बत्थल) या पीड़ा (भोज. पिराइल) का प्रयोग करते हैं। वैदिक में दर्द अनुभूत के लिए नहीं है दारण के लिए ही प्रयोग में आया हैः
१. वाजं दर्दर्षि स किलासि सत्यः ।
२. घ्नन् वृत्राणि वि पुरो दर्दरीति जयन् शत्रूँरमित्रान् पृत्सु साहन् ।। 6.73.2
३. त्वं सूकरस्य दर्दृहि तव दर्दर्तु सूकरः ।7.55.4
क्रमशः