तिमिर के उस पार
कल की पोस्ट पर दो मित्रों ने कुछ ऐसी जिज्ञासाएं की हैं जिनके लिए मैं प्राय: अनुरोध करता रहता हूं, क्योंकि अपनी बात को स्पष्ट करने के प्रयत्न लंबाई काफी बढ जाती है और अनेक मित्रों की शिकायत सुनने को मिलती है। मेरी पीड़ा यह है कि फिर भी बात पूरी नहीं हो पाती। उसी विषय को बार बार स्वयं उठा नहीं सकता, इसलिए अपेक्षा करता हूं कि कोई सटीक प्रश्न करे तो उस पक्ष को भी स्पष्ट करूँ। प्रसन्नता है कि यह काम पहली बार सनातन कालयात्री और आनन्द प्रकाश ने किया है।
सनातनकाल यात्री के प्रश्न निम्न हैं:
आदिम वर्जनाओं, उनके अनुपालन या तोड़ने से सम्बंधित लिखित या अन्य प्रमाण उपलब्ध हैं या तार्किक निष्पत्तियों से ही माना जाता है?
धरती चीरने से सम्बन्धित कोई मान्यता?
लेख से लगता है कि पशु पालन कृषि के पश्चात आरम्भ हुआ। पुरातात्विक प्रमाण या विस्तृत विवेचन कहीं उपलब्ध हैं?
एक बात ध्यान में आई है _ बचपन में भूमि पर लिखने से हमें मना किया जाता था। कहते थे कि उससे ऋण बढ़ता है। लेख में वर्णित बातों से इसका सम्बन्ध हो सकता है क्या?
आनन्दप्रकाश की मांग निम्न प्रकार है:
असुरों-देवों के व्यवहार की विविधता और उसके कारणों की व्याख्या करिए ताकि कथित आर्यों-अनार्यों के सही भेद सामने आ सकें। इससे इधर उभरे दलित विमर्श को बहुत लाभ होगा। आप उन बिरलों मेंं हैं जो यह कर सकते हैं।
1. वायु पुराण में यह उल्लेख है कि प्राचीन काल में मनुष्य निर्बन्ध था, जो जी में आता था करता था और उसके आचरण पर कोई नैतिक प्रतिबंध न था। महाभारत के स्त्रीपर्व में कुंती प्राचीन अवस्था मे मुक्ताचार के प्रचलन की बात करती हैं – पुरा किल स्वतंत्रा स्त्रियः आसन वरानने, कामारण्य विहारिण्यः स्वतंत्राः कलहासिनी। एक उपनिषद कथा में गालव की पत्नी को कोई दूसरा ऋषि कामतुष्टि के लिए मांग कर ले जाता है । उनके पुत्र श्वेतकेतु को यह बुरा लगता है। वह इस पर आपत्ति करता है। उत्तर में गालव कहते हैं स्त्रियां गाय की तरह होती हैं, उनके साथ कोई भी संबंध बना सकता है। इससे खिन्न श्वेतकेतु विवाह संस्था की स्थापना करते हैं।
गालव श्वेतकेतु की कथा को इतिहास मानना उचित नहीं है। शंकराचार्य ने अपने भाष्य में उपनिषद की कथाओं को आख्यायिका कहा है। ये अति प्राचीन अवस्थाओं की जातीय स्मृतियां हैं। हाल तक अनेक देशों के आदिम समाजों में यह रिवाज रहा है।
अतः हम पाते हैं, पहला चरण मुक्ताचार, दूसरा सहजीवन और तीसरा एकनिष्ठ आजीवन सहसंबंध, जिसके लिए सामाजिक मर्यादाएं और वैधताएं नियत की गईं।
इसे यदि हम समाज की आर्थिक-विकास की यात्रा को सामने रखते हुए समझना चाहे तो बहुत सुविधा होगी। निजी संपदा की ओर बढ़ते मनुष्य का संपत्ति पर अधिकार के समानान्तर साहचर्य पर भी अधिकार बढ़ता गया है जो अटूट निष्ठा की माग और अधीनस्थ की यौन शुचिता की मांग बनती चली गई। भारत आज पाषाण युग से परमाणु युग तक एक साथ जीने वाला नुमायशी देश है और इसमें आठ विवाह-रीतियां तो समाज स्वीकृत रही हैं। आदिम अवस्था के मुक्ताचार से लेकर सभी तरह के साहचर्य इसके किसी न किसी अचल में आज भी मिल जाते हैं।
२. जोताई को धरती माता को चीरने के समकक्ष माना जाता था, असुरों के कृषि से परहेज का यह एक प्रधान कारण था। देव समाज भी असुर समाज से निकला था इसलिए ग्रन्थि उसके मन में भी थी। धरती इसका बदला न ले इसलिए वह माफी मांग लेता था। जैसे रुद्र जो नरभक्षी अवस्था के देव थे, पूरुषघ्न थे, उनसे प्रार्थना करता था, अपने बाण का रुख दूसरी ओर रखना, मेरी हमारे लोगों और जानवरों पर दया करना – शं नो भव द्विपदे शं चतुष्पदे – उसी तरह धरती मां से भी याचना करता था, ‘पृथिवी मात: मा मा हिंसी:।
दीवार आदि पर लकीर खींचने का संदर्भ अलग है। यह बहुत बाद में गणना आरंभ होने की प्राथमिक अवस्था का चिन्ह है। किसी का कर्ज आदि भूले नहीं इसलिए दीवार आदि पर उसका लकीर खींचना। यह कर्ज चढ़ने की आशंका के कारण वर्जित था।
३. पहले मैं भी समझता था कि पशुपालन खेती से पुराना है। कालिन रेनफ्रू (Renfrew) ने इस पर पर्याप्त पुरातात्विक साक्ष्य देकर यह प्रमाणित किया कि पशुपालन खेती के बाद आरंभ हुआ और इसके बिना संभव न था। उससे पहले पशुओं का शिकार और रेवड़बन्दी प्रचलित थी जिसमे पालन प्रधान न होकर भक्षण प्रधान था।
आनन्द प्रकाश जी का प्रश्न बड़ा है क्योंकि छोटा काम, यहां तक कि छोटा सवाल तक उन्हें पसंद नहीं। बड़े सवाल का बड़ा जवाब, गरज कि पोथे से नीचे बात न बनेगी। वादा करके फंस गया इसलिए इसका जवाब एक इतिवृत्त के रूप में देना उचित लगता है। देव परंपरा, जिससे ही सवर्ण समाज पैदा हुआ, यह मानता है कि वह स्वयं भी उसी समाज या अवस्था से निकला है जिसमें असुर हैं। वह उनका सौतेला भाई है। पिता एक माताएं दो। दिति और अदिति।माताएं जीविका की भिन्न रीतियों से संबंध रखती हैं। बड़े भाई, असुर, छोटे देवता। असुर संख्या में अधिक, और अधिक शक्तिशाली (बलीयांस: भूयांसश्च असुराः) स्वभाव से गर्वीले (मन्यमान), जाहिर है देव संख्या में कम (अल्पीयांस), रिश्ते में छोटे (कनीयस्विन्) और असुरों से डरे हुए (ते वै देवा: असुर-रक्षसेभ्य: बिभयांश्चक्रु:)।
दोनों में विरोध यज्ञ या कृषि-उत्पादन के कारण आरंभ होता है। देव आमने सामने की लड़ाई में असुरों के सामने टिक नहीं सकते। जहां असुरों को पता चलता है कि वे यज्ञ का आयोजन कर रहे है, उन्हें वे मार कर भगा देते हैं। उनके इधर से उधर भगाए जाने का एक प्रमाण यह है कि देव उपनाम या तो बस्तर आदि में बचा है या नेपाल में। उनके अपने कथन के अनुसार वे पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण सभी दिशाओं में भागने को विवश होते है। यह वह सूत्र है जिससे हम समझ सकते हैं कि अपेक्षाकृत बहुत छेटी कालावधि में कृषि विद्या का प्रसार एक बहुत बड़े भाग में कैसे हो गया।
खैर, इस भागाभाग में उनका कोई जत्था पूर्वोत्तर दिशा में पहुंचता है। यहां पर उन्हें विरोध का सामना नहीं करना पड़ता। यहां वे लंबे समय तक स्थायी निवास करते और कृषि करते हैं। यहां देवों ने उन्हें पराजित नहीं किया इसलिए इसे अपराजिता दिशा कहते हैं, यहां पहली बार वे अपना प्रभुत्व कायम कर सके इसलिए इस कोण को ईशान कोण कहा जाता है। दिशा तय है पर न तो यह पता कहां से, न ही यह कि कितनी दूर। हम इसे कुरु पांचाल से पूर्वोत्तर हिमालय के निचले पहाड़ी क्षेत्र के गंडक के निकट कल्पित करते हैं।
देवों असुरों का यह अभेद और खेती में देवों की पहल की चर्चा ऋग्वेद से ले कर बाद तक के साहित्य में बार बार निरपवाद रूप में आती है और असुर राक्षस सभी कहानियों भी अरण्य क्षेत्र से संबंधित हैं।
जो पुराण से चिढ़ते हैं पौराणिक वृत्तों की ऐतिहासिकता को समझने का प्रयास तक नहीं कर सकते उसका उपद्रव के लिए मनमाना और पहली ही नजर में गैरजिम्मेदाराना और मूर्खतापूर्ण उपयोग अवश्य कर सकते हैं। यही कर रहे हैं।
यह कथा बहुत लंबी है। यह ध्यान अवश्य रहे कि असुर देव, रुद्र, से एक ओर देव डरते और बचते तो हैं, पर उनका सबसे अधिक सम्मान करते हैं। विष्णु उपेन्द्र हैं, इन्द्र अन्य देवों से बड़े हैं, रुद्र महेन्द्र हैं, ज्येष्ठ हैं, श्रेष्ठ हैं। वरुण के सामने इन्द्र हेय पड़ते हैं, साम्राज्य वरुण का है। देवों ने खेती (वन्य और पकने से पहले नोचना खाना वर्जित) वरुण प्रघास से आरंभ किया था और इससे संतुलित आहार के कारण उनका स्वास्थ्य सुधरा, निर्दयता कम हुई। वरुण प्रघास से ही देवों ने असुरों पर विजय पाई, शाकमेध से विजय पाई। वरुण प्रघास का अर्थ व्रीहि और यव है – वरुणप्राघासात् वै देवा अनमीवा, अकिल्विषा प्रजा प्राजायन्त, शाकमेधेन वै देवा वृत्रं अघ्नन्।
अनगिनत स्रोतों से अनेक रूपों में दुहराई जाने वाली इस कथाओं में पूर्ण अन्त: संगति है जब कि जिसे इतिहास बता कर पढाया जाता रहा उसमें हर कड़ी असंभव और इसलिए गलत है। चरवाहे नगरों पर हमला कर देते है और लुटेरे शान्तिपाठ करते हैं और इसे इतिहास बताने वाले राजनीति करते हैं और निर्लज्जतापूर्ण आत्मविक्रय।
पता नहीं जवाब संतोषप्रद लगेगा या नहीं क्योंकि ज्ञान का भी सांप्रदायीकरण और राजनीतीकरण किया जा चुका है और सही जानकारी राजनीतिज्ञों के काम की नहीं होती, दलितों के भी काम की न होगी।