ब्राहणों के भारत पर क्षत्रियों का आक्रमण
मजाक की हद है पर समझदारी की कोई हद नहीं। समझदार लोग अपनी अक्ल पर अधिक भरोसा करने के कारण ऐसी विचित्र बातों को इतिहास या वर्तमान की सचाई बना और अपनी समझ पर भरोसा करने वालों को जिस तरह उनका कायल बना देते हैं उसकी तुलना केवल स्वप्नशृंखला से ही की जा सकती है। परंतु इसके लिए इतिहासकार का भारतीय मार्क्सवादी होना जरूरी है। कारण मार्क्सवाद एक वैज्ञानिक दर्शन है और इसके भारतीय संस्करण में जो जी आए देखा जा सकता है, जैसे जी आए इतिहास को गढ़ा जा सकता है, क्योंकि इतिहास का एक ही उपयोग है, उसको हथियार बना कर वर्तमान को बदलना।
हमने तुलनात्मक भाषाविज्ञान के जनक विलियम जोंस के ब्राह्मण घुसपैठियों की अनोखी सूझ पहले देख रखी है। अब भारतीय मार्क्सवादी इतिहास के जनक दामोदर धर्मान्द कोसंबी की सूझ से ब्राह्मण तो हड़प्पा सभ्यता के पुजारी थे, वे भारत में पहले से मौजूद थे। आक्रमणकारी आर्य क्षत्रिय थे। संस्कृत भाषा ब्राह्मणों की नहीं, क्षत्रियों की भाषा थी।
आपको हैरानी हो रही है? हैरान होने की जरूरत नहीं, यह याद रखने की जरूरत है कि आवश्यकता आविष्कार की जननी है। जोंस को अधिक से अधिक खाली पड़े या नाममात्र को आबाद भारतीय भूभाग में संस्कृत भाषी ब्राह्मणों को स्थानान्तरित करना था। कोसंबी को आर्यों से मोहेंजोदड़ो का नरसंहार कराना था। पूरी हड़प्पा सभ्यता का विनाश कराना था। विनाश भी कुछ इस तरह कोई बचने न पाए।
आप को शंका हो रही होगी कि फिर हड़प्पा के ये चालाक पुरोहित कैसे बच गए? इतनी पेचीदा बात भारतीय मार्क्सवादियों को छोड़ कर किसी दूसरे की समझ में नहीं आएगी, इसलिए समझा दें कि जब ढोर डंगर चराने वाले क्षत्रिय आर्यों का आक्रमण हुआ तो वे भाग कर जंगलों में छिप गए। जब कुछ समय बीत गया तो वे जँगलों से बाहर आए और क्षत्रिय आर्यों को अपने तंत्र-मंत्र और और कर्मकांड की जादुई शक्ति का विश्वास दिला कर उनके पुरोधा बन गए। लेकिन इन क्षत्रियों ने उस सभ्यता का विनाश किया था जिसके ये पुरोहित हो कर पुष्करणियों में नग्न स्नान करने वाली भक्तिनों से रतिलीला किया करते थे, इसलिए इनसे उनके मन में इतनी खुन्नस थी कि वे इन को मिटा कर रख देना चाहते थे। सच कहें तो उनसे बदला लेने के लिए ही वे जंगलों से बाहर आए थे।
कोसंबी ने अपने ये विचार वैज्ञानिक जाच पड़ताल के बाद प्रकट किए थे। उन्होंने इसके लिए ब्राह्मणों के रूप रंग और मुखाकृति का अध्ययन किया था, उनके गोत्र नामों पर खोज की थी (On the origin of Brahman Gotras), जिन दृष्टियों से आटविक जनों से उनमें काफी समानताएं थीं, साथ ही उनकी आर्थिक दुर्दशा पर ध्यान दिया था। क्षत्रियों से उनकी शत्रुता का प्रमाण देखना हो तो विश्वामित्र और वसिष्ठ की शत्रुता पर ध्यान दें। इस बात पर ध्यान दें कि ब्राह्मणों के यज्ञ और कर्मकांड और वेद के विरुद्ध क्षत्रियों ने जैनमत और बौद्ध धर्म के द्वारा विद्रोह जारी रखा।
पर फिर भी कुछ बातें आप की समझ में नहीं आई होंगी। मिसाल के लिए यह समझ में न आया होगा कि जब क्षत्रिय आर्य चरवाहे थे और उस प्राचीन चरण पर परती पड़ी भूमि प्रचुर थी तो उनको हड़प्पा के नगरों पर आक्रमण करने की क्या जरूरत थी। दोनें के हितों में कोई टकराव तो था ही नहीं। क्या हड़प्पा के नगरों में अधिक घास पैदा होती थी?
या कुछ और पीछे लौटें और उनके एक साथ गोपालक और अशवारोही होने पर ध्यान दें तो यह समझने में कुछ कठिनाई होगी कि वे घोड़े पर चढ़ कर गोरू चराते थे, या गोरू चरा लेने के बाद घुड़सवारी करते थे। ऐसे एक दो नहीं दसियों सवाल हैं जिनको छोड़ा जा सकता है। पर एक सवाल आपके मन में जरूर पैदा हुआ होगा कि जब ब्राह्मण हड़प्पा सभ्यता के पुजारी थे तो उन नगरों पर हमला ब्राह्मणों पर हमला कैसे हो गया? सच यह है कि नगर बसाने वाले व्यापारी तो कहीं और से आए थे, देश के असली मालिक ये पुजारी ही थे और सुमेरिया के पुजारी शासकों की तरह जनता से चढ़ौती वसूल करते थे।
लेकिन इससे भी कठिन एक अन्य सवाल। जब आक्रमणकारी क्षत्रिय थे, वही संस्कृत बोलते थे तो, यह कमाल कैसे हो गया कि उनकी भाषा ब्राहमणों ने ले ली और क्षत्रिय आर्य अपनी भाषा से ही हाथ धो बैठे। इसे समझने के लिए आपको डूगल्ड स्टीवर्ट का सुमिरन करना पड़ेगा जिसने उन्नीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध में यह दावा किया था कि भारत के धूर्त ब्राहमणों ने सिकन्दर के आक्रमण के बाद यूनानियों के संपर्क में आने के बाद ग्रीक की नकल पर जालसाजी से संस्कृत भाषा गढ़ ली। धूर्त ब्राह्मण क्या नहीं कर सकते! फिर भी जवाब अधूरा ही रह जाएगा, क्योंकि इससे यह बात तो आप की समझ में आ जाएगी कि हड़प्पा सभ्यता के पुजारियों ने संस्कृत कैसे सीखी, पर यह समझ में नहीं आएगा कि उनके संस्कृत सीखते ही असल आर्य क्षत्रियों को अपनी भाषा भूल कैसे गई। इतने दूर की तो स्टीवर्ट ने भी न सोची थी।
मुसीबत एक और है। ऋग्वेद में एक स्थल पर नार्मणी पुर का उल्लेख आया है। नार्मणी पुर का शाब्दिक अर्थ हुआ समृद्ध नगर। कोसंबी ने पहचान लिया कि यह उस नगर का नाम है जिसे हम मोहेंदोदड़ो कहते हैं। वहां नरसंहार हुआ था इसे ह्वीलर के कहने के बाद कोसंबी सहित सभी मार्क्सवादी मानते आए हैं। मुश्किल यह कि यह नाम संस्कृत का है। यदि इसका यही नाम था तब तो यह आर्यों का नगर हुआ। ऐसी ही मुसीबत हरियूपीया के साथ देखने में आती है जिसका शासक चयमान था और जिस पर वरशिख के पुत्र वृचीवान ने हमला किया था। हरियूपीया को कुछ लोगों ने हड़प्पा का असल नाम मान लिया था। हरियूपीया संस्कृत नाम। उसका राजा चयमान संस्कृत नाम, वरशिख संस्कृत नाम, वृचीवान संस्कृत नाम। ये बातें कोसंबी की निगाह में आई थी, इनको लेकर वह चकराये भी थे, पर आवश्यकता आविष्कार की जननी ही नहीं है, आवश्यकता, ‘छोड़ो यार, इससे क्या होता है?’ की भी जननी है। आक्रमण की आवश्यकता गोरों को किसी अन्य कारण से थी, भारतीय मार्क्सवादियों को किसी और कारण थी। यदि यह सिद्ध कर दिया जाय कि मध्य कालीन आक्रमणकारियों की तरह संस्कृत भाषी भी आक्रमणकारी के रूप में आए थे और उन्होंने भयंकर रक्तपात किए थे तो मध्यकालीन आक्रान्ताओं की बर्बरता क्षम्य हो जाएगी इसलिए यह आक्रमण वर्तमान समाज में सामाजिक सौहार्द का आधार बन जाएगा। दोनों को दरिंदा बना देने के बाद एक दूसरे को दोष नहीं दे सकेगा। इस इतिहास ने जैसा सामाजिक सद्भाव पैदा किया वह हमारे सामने है । ये मात्र बानगियां है, भारतीय मार्क्सवादी इतिहास के वंडरलैड के नजारे एलिसेज’ ऐडवेंचर्स इन टु वंडरलैंड से भी अधिक वंडरफुल हैं।