धन और जल के कुछ और शब्द
तन
तन हमारी सामान्य जानकारी में अभी तक हमारी काया और पेड़ के तने से लेकर गर्दन के तने होने के लिए प्रयोग में आता है । बुनकर के ताने में भी हम परिचित हैं। परन्तु इसका अर्थ धन और जल भी हो सकता है इस ओर हमारा ध्यान नहीं जाता. धन के संबंध में चर्चा करते हुए हमने कहा था, यह तन का वैकल्पिक रूप है, साथ ही सुझाया था कि इसका अर्थ जल रहा है। तनिक – थोड़ा सा, तन्वी – पतली और कोमल, तनु – पतला, क्षीण, कोमल, सीधे या सांकेतिक रूप से जलार्थक तन से निकले हैं। तमिल तन जिसे लिखते तण् है पर बोलते तन ही है उसकी याद बचाए हुआ है। इसी से ठंढ निकला है।
तंतु (तन्तुं तनुष्व पूर्व्यं, 1.142.1)) और तनय (तोकाय तनयाय शं योः, 5.69.3), में विस्तार का वही भाव है जो जल की प्रसार से संबंधित है, इसलिए ऋग्वेद में वंश परंपरा की कतते हुए सूत की उपमा दी गई है और वंश परंपरा के खंडित होने को सूत कातते हुए धागे के टूटने के समान बताया गया है ( मा तन्तुश्छेदि वयतो धियं मे, 2.28.5) ।
ऋग्वेद के समय तक इसका प्रयोग धन के लिए भी होने लगा था (तना – धननामैतत् विस्तृतेण धनेन, (1.3.4) ।
हम पहले भी संकेत कर आए हैं जल से ही प्रत्ययों और विभक्तियों की उत्पत्ति हुई है इसलिए तन का भी एतन, सनातन, अद्यतन भूतन (मरुतो मापभूतन ), जुहोतन, (दुग्धमंशुं जुहोतन ), सोतन (सोममिन्द्राय सोतन ), युयोतन, दधातन, आदि में ऐसा प्रयोग देखा जा सकता है । तन की भांति तना का भी प्रयोग प्रत्यय के रूप में हुआ है सदतना, भजतना (आ न स्पार्हे भजतना )।
एक स्थल पर इसका प्रयोग गुना के लिए भी हुआ है( आ ययोस्त्रिंशतं तना सहस्राणि च दद्महे ।)
एक अन्य पर इसका प्रयोग वस्त्र के लिए हुआ है ( सोम विपश्चितं तना (वस्त्रेण) पुनान आयुषु ) ।
कुछ स्थलों पर इसका आशय तैयार करने का हो जाता है (‘भद्रा वस्त्रा तन्वते दंसु रश्मिषु’, अथवा, ‘वि युगं तनुध्वं’) ।
अंग्रेजी ten, teen, umpteen, tend, tender, tendril, tenson, tenure, tenuous, tendency, tenterhook, then, than इस दृष्टि से विचारणीय है।
सबसे रोचक है संगीत की तान और ताना मारने की लत। तेलुगू में जलार्थक तन तेन बन कर मिठास का स्वाद देता है।
द्रप्स
द्रप्स का नाम आते ही अंग्रेजी के drop शब्द की याद आती है, फिर भी drip, dripple, droop, आदि की और हमारा ध्यान नहीं जा पाता, क्योंकि हम इस तरीके से भाषा के बारे में सोचने के आदी नहीं है। द्रप्स का प्रयोग जल (द्रप्सं रेतः,7.33.11) के लिए तो हुआ है, परंतु या सामान्य जलसे कुछ अलग है (द्रप्सा बिन्दुरूपा,1.14.4; द्रप्सिनः-वृष्टि उदकबिन्दुभिर्युक्ता, 1.64.2), यह चाहे धारासार वृष्टि की बूंदे हो (ये द्रप्सा इव रोदसी धमन्त्यनु वृष्टिभिः, 8.7.16)। एक ऋचा ‘द्रप्सो भेत्ता पुरां शश्वतीनामिन्द्रो मुनीनां सखा, 8.17.14’ में सायणाचार्य ने द्रप्स की व्याख्या करते हुए कहा है, द्रप्सः ‘द्रवणशील सोमः तद्वान्’ अर्थात जिसने सोम पान कर रखा है ।
इंद्र को असुरों की पूरियों का भेदन करने वाला बताया गया है वहां समग्र सन्दर्भों को ध्यान में रखते हुए हमारी समझ से छाई हुई घटाएं हैं परंतु यहां इसके विस्तृत विवेचन में नहीं जाएंगे।
एक एक जगह पर द्रप्स का बहुत विचित्र प्रयोग हुआ है (द्रप्सं अपश्यं विषुणे प्रयन्तं उपह्वरे नद्यः अंशुमत्याः, 8.96.14) हमें इस विषय में उपलब्ध अनुवादों या व्याख्याओं से संतोष नहीं है। संभव है यह सोम के व्यापार से संबंधित उल्लेख हो परंतु हम स्वयं भी इस विषय में निश्चित नहीं है।
सोम का और उसकी बिंदुओं का प्रयोग आकाश से झरती हुई सूक्ष्म बिदुओं के लिए ही विशेष रूप से किया गया है और एक स्थल पर उसका आकाश से अपहरण करके लाने का भी उल्लेख है जो आकाशीय सोम के धरती पर लाने की कथा से जुड़ा हुआ प्रतीत होता है । अन्यत्र भी ऐसे संकेत प्रायः मिलते हैं (दिवः द्रप्सः मधुमान् आ विवेश , 10.98.3।
वानस्पतिक सोम का बड़े पैमाने पर उत्पादन और विनिमय किया जाता था और इसलिए यह ऐसा धन था जिसके बदले में सोना चांदी घोड़ा गाय बैल कुछ भी हासिल किया जा सकता था। (आ पवस्व महीमिषं गोमदिन्दो हिरण्यवत् । अश्वावद्वाजवत्सुतः, 9.41.4).
कुछ प्रसंग ऐसे हैं जिनसे लगता है सोम का कोई मादक पेय भी बनाया जाता था और संभव है उसका भी व्यापार होता रहा हो (यं देवासश्चक्रिरे पीतये मदं स्वादिष्ठं द्रप्समरुणं मयोभुवम् ।। 9.78.4
द्युम्न
द्युम्न का प्रयोग सामान्यता यश कांति आदि के विषय में किया जाता है और इसका एक अर्थ धन भी है इसका शाब्दिक अर्थ है ‘वह जिसमें ज्योति हो’। परंतु ऋग्वेद में इसका प्रयोग अन्न के लिए भी किया गया है (तुविद्युम्नस्य – बहुयशसो बहुअन्नस्य वा, 6.18.12 , द्युम्नसाता – अन्नस्य यशस्य वा लाभाय, 1.131.1…द्युम्निनः – द्योतनवतः यशावन्तः अन्नवन्तः वा, 1.138.2, द्युम्नेन – अन्नेन1.48.1)।
एक स्थान पर पोषक जल के रूप में ओस की महिमा चंद्रमा से झड़ते अमृत के रूप में की गई लगती है (यस्य ते द्युम्नवत्पयः पवमानाभृतं दिवः । तेन नो मृळ जीवसे, 9.66.30)। अन्यत्र भी चंद्रमा को ही सोम के रूप में संबोधित किया गया है ( ऋतं वदन्नृतद्युम्न सत्यं वदन् सत्यकर्मन् । श्रद्धां वदन् सोम राजन् धात्रा सोम परिष्कृत इन्द्रायेन्दो परि स्रव ।। 9.113.4)।
पर क्या आपने द्युम्न के द्यु के साथ अंग्रेजी के dew को याद किया ? यदि किया होगा तो वयह समझ में आजायेगा कि दयुम्न का पिता भी कोई जलार्थक शब्द ही है .