Post – 2018-05-05

धन और जल से जुड़े कुछ और शब्द

धासि
धासि का शाब्दिक अर्थ धारण करने वाला है । ऋग्वेद में इस आशय मैं संदर्भ अनुसार अनेक शब्दों का प्रयोग हुआ है जैसे वास्तु के संदर्भ में ‘धर्णि’ का अर्थ है ‘धरन’ और और निसर्ग जात गुणों के लिए ‘धर्म’। यहां ‘धासि’ का प्रयोग जीवन निर्वाह के साधन के रुप में हुआ है। यह संदर्भ के अनुसार जल, अनाज, दूध, घी, सोम और हवन सामग्री के लिए प्रयुक्त हो सकता है। ऋग्वेद में इन विभिन्न आशयों में इसका प्रयोग भी हुआ है। विदत् सरमा तनयाय धासिम्, (सरमा को अपनी संतानों के लिए आहार मिला); धासिं – अन्नं, 1.62.3: धासिमिव प्र भरा योनिमग्नये । 1.140.1 (जैसे अन्न से अन्नागार को भरते हैं उसी तरह हवनकुंड को हवन सामग्री से भर दो ) कृष्णा सती रुशता धासिनैषा, 4.3.9 (यज्ञाग्नि काली होते हुए भी घी, पड़ने पर उज्ज्वल होकर चमक उठती है। यहाँ सायण ने ‘धासि’ का अर्थ ‘धारकेण’ किया है और ग्रिफ्फित ने’दूध से’ , परन्तु घृत अथवा जैसा कि उन्होंने अन्यत्र किया है ‘धासिना -अन्नेन हविषा, 6.67.6’ हवन सामग्री अधिक उपयुक्त लगता है. ‘के धासिमग्ने अनृतस्य पान्ति क आसतो वचसः सन्ति गोपाः, 5.12.4’, ए अग्निदेव असत्यवादियों की रक्षा कौन करता है और झूठ और मक्कारी की हिमायत कौन करता है) में सायण ने धासि के अर्थ ‘धारकं जनं’ किया है । हमारे लिए इतना ही पर्याप्त है कि धासि का प्रयोग जल और खाद्य पदार्थों के लिए होता था ।

नम
‘नाम’ पर चर्चा करते हुए हम पहले भी कह आए हैं कि नम का मूल अर्थ जल था, यहां इसके विस्तार में जाने की जरूरत नहीं है । हम यहां सायणाचार्य द्वारा की गई टिप्पणी से अपने को संतुष्ट मान सकते हैं: नमस्वत् – अन्नवत्, 1.185.3; नमस्वान्- अन्नवान्,1.171.2; नमस्कारेण स्तोत्रेण वा युक्तः, 7.85.4; अब आप चाहे तो नमो नमः का अर्थ ‘धन धान्य से संपन्न हों’ भी कर सकते हैं।

पितु/ पित्व
पा, पी, पे का प्रयोग जल के लिए हुआ है और खाद्य पदार्थों के लिए भी उनका प्रयोग किया गया है। ऐसे ही शब्दों में पितु भी आता है। पिता अर्थ है पोषण करने वाला, पालने वाला । पितुः -पालयित्वा, 2.13.4 इसलिए पितु का अर्थ है – पालकं अन्नं, 1.187.1; ये पितुभाजो व्युष्टौ । 6.64.6 ( अन्न कामी जन अर्थात किसान भोर होते ही उठकर काम पर लग जाते हैं) । सायणाचार्य केअनुसार, पितुभाजः .- अन्नवन्तो अन्नार्थिनः, 1.124.12
पितुमतीमूर्जमस्मा अधत्तम् । 1.116.8 में पितुमती शक्ति युक्त। पित्व का अर्थ अन्न किया गया है। पित्वः -अन्नं, 5.77.4, अन्नस्य, 7.104.10, परंतु उत प्रपित्वे उत मध्ये अह्नाम्, 7.41.4, में प्रातः के लिए प्रपित्व का प्रयोग जलपान जैसा लगता है। जल की गति वाला भाव ‘अपपित्व चिकितुर्न प्रप्रित्वम्, 3.53.24’ (आगे कदम बढ़ाना जानते हैं पर पीछे लौटना नहीं जानते हैं) में बना रह गया है।

पृक्ष

पृ भी उसी प्र, प्री, पृ श्रृंखला में आता है। धातुपाठ में पृ का अर्थ पालन और पूरा करना मिलेगा पालन उसी जल और पय से संबंधित है और इसी को हम पृक्षः- अन्नानि,1.71.6, सोमः, 4.43.5, अन्नस्य, 2.1.6 और पृक्षं ‘पयः पृक्षं इति अन्ननामासु पाठात्, 6.62.4में देख सकते हैं

पाज
पाज का प्रयोग जल, अन्न और उससे मिलने वाली ऊर्जा शक्ति और तेजस्विता के लिए प्रसंग के अनुसार प्रयोग में आया है। पृथुपाजा- पृथुतेजाः , 3.2.11, 3.5.1, पृथुपाजसे – बहुअन्नाय बहुबलाय,3.3.1, ‘रथेन पृथुपाजसा’ अर्थ सायण ने ‘ विस्तीर्ण बलेन बहु अन्नेन वा’, किया है जब कि हमारी समझ से इसका अर्थ ‘माल से लदा हुआ रथ होना चाहिए. ‘ सोमाः सहस्रपाजसः’ समस्त शक्तियों से भरपूर सोम है। पाज का अर्थह्रास हमारी बोलचाल के ‘पाजी’ में देखने में आता है जिसका सामान्य अर्थ हुआ बाहुबली, वह जो अपनी शक्ति का दुरुपयोग करता है।

ब्रह्म
ब्रह्म आध्यात्मिक अर्थ से हम परिचित हैं, इसका अर्थ अग्नि और अग्नि साधक हो सकता है इसका संकेत हमने पहले दिया है । ब्रम्ह का अर्थ स्तोत्र ( ब्रह्माणि – स्तोत्राणि; 7.1.20) हो सकता है यह भी मानने को हम तैयार हो सकते हैं परंतु ब्रह्म का अर्थ अन्न है ( ब्रह्माणि -अन्नानि) यह तब तक समझ में नहीं आएगा जब तक हम यह न समझना कि ब्रह्मा अर्थ भी जल है। ब्रह्म ब्रह्मयुजो हरय इन्द्र केशिनो वहन्तु सोमपीतये ।। 8.1.24 में ब्रह्मयुज के अर्थ ‘आवाज सुनते ही जुतजानेवाले’ यद्यपि 8:00 दो 27 मैं सायणाचार्य ने एह हरी ब्रह्मयुजा में ब्रह्मयुजा का अर्थ ‘स्तोत्रेण व हविषा युज्यमानौ’ किया है। कुछ और संदर्भों में जी हमें ऐसा लगता है कि भाषा के लिए भी ब्रह्म का प्रयोग होता था. सीधे जल के अर्थ में ब्रह्म का प्रयोग हमें ऋग्वेद में देखने में नहीं आया। ब्रह्मपुत्र नदी को छोड़कर अन्य नदी नामों में भी ब्रह्म का प्रयोग देखने में नहीं आता। परंतु गति और भोजन के लिए प्रयोग में आने वाले सभी पदार्थों का एक अर्थ जल रहा है इसलिए अपनी ओर से ऐसा मानते हैं की ब्रह्म का एक अर्थ जल था। ब्रह्म का वर्णन करते हुए भी प्राथमिक अवस्था को अप्रकेत सलिल माना गया है, इसलिए ऐसा सोचने में कोई तात्विक विरोध नहीं दिखाई देता।.

भग
भग और भर्ग का सामान्य अर्थ प्रकाश और सूर्य माना जाता है । सूर्य के लिए प्रयुक्त होने से पहले इसका प्रयोग आग के लिए किया जाता था और इसी से भूनने की क्रिया या विधि के लिए भर्जन का प्रयोग होता है भूना, भूनना, बंगाली का भाजा, भाजी, भजिया, भुजिया इसी भर्जन से पैदा हुए हैं । यह सूचना आसान तो है परंतु सच्चाई इससे भी आगे है। जलती हुई आग या चिराग के बुझने से जो निर्वात पैदा होता है उसे भरने के लिए पैदा हुए हवा के दबाव से और आग जलने पर ऑक्सीजन सोखने से उत्पन्न ध्वनि के लिए भक् या भक्क का प्रयोग होता है, इसीलिए हम चिराग भक से बुझ गया, या भक से उजाला हो गया, या आग भभक उठी जैसे वाक्यों का प्रयोग करते हैं। इसी से पहले आग के लिए, और फिर प्रकाश देने वाले स्रोतों के लिए , भग/ *भक्क (भर्ग) का प्रयोग हुआ। भूनने- तलने की क्रिया और भुने-तले हुए अनाज का संबंध इसी से है। अब हम कुछ विश्वास से कह सकते हैं की भूजा, भांजा भाजी आदि भर्ज के तद्भव नहीं हैं बल्कि भर्ज भक्क का संस्कृतीकरण है।

परंतु भक् या पक्क ध्वनि के इससे दूसरे स्रोत, घटनाएं और क्रियाएं भी हो सकती हैं। उदाहरण के लिए एक घडे के गिरने या पटकने पर उसके टूटने से पैदा होने वाली आवाज के लिए भड़/भक/ भग/भंग/भंज का प्रयोग लोग करते हैं। इनका प्रयोग तोड़ने, बाँटने, बटे हुए हिस्से, के लिए भी हो सकता है और हम इसके लिए भी भग और भाग का प्रयोग करते हैं। साझे की चीज का आपस में बटवारा इमानदारी से हो, इसलिए इसकी देखरेख करने वाले को भग भक्त, भग/भर्ग या भगवान कहा जा सकता है। इन दोनों अर्थों में / भग भाग, भक्त का प्रयोग ऋग्वेद में हुआ है। जब हम भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न प्रचोदयात् कहते हैं तो उसी विवेक बुद्धि से अविचलित भाव से, सत्य का पालन करते हुए, बटवारा करने वाले विधाता पर इसकी छाया देखी जा सकती है । भौतिकही आत्मिक और आध्यात्मिक के धरातल पर कैसे पहुंचता है, इसे इस उदाहरण से समझा जा सकता है।

इस तरह भगवान के दो रूप हो जाते हैं एक तो ज्योति और प्रकाश और ज्ञान से संबंधित है और दूसरे जो आर्थिक उपक्रमों में व्यक्ति को उसके कार्य के अनुपात में लाभांश देता है । यह दूसरा भगवान ही है जिससे हम भक्ति पूर्वक याचना करते और अधिक से अधिक पाने की आकांक्षा रखते हैं और पटा कर अपने अनुकूल रखना चाहते हैं। प्रकाश वाला भगवान भगवा रंग का प्रेरक है, यद्यपि इसका एक दूसरा पक्ष भी है। गेरू के रंगे हुए वस्त्र कृमिरोधी होते हैं इसलिए इनका प्रयोग बहुत प्राचीन काल से देखने में आता है और यह अनेकानेक सभ्यताओं में प्रचलित रहा है जो भारतीय संस्कृति से प्रभावित हो सकते हैं या नहीं भी हो सकते हैं।

हम हो भाग्यवाद को कोसते तो हैं परंतु हममें से बहुत कम लोग जानते हैं या इस विषय में सचेत हैं कि यह एक उन्नत अर्थव्यवस्था की तार्किक परिणति है।
यह विषयांतर इस तथ्य को समझने के लिए जरूरी था कि क्यों ऋग्वेद में भग प्रयोग अन्न के लिए भी किया गया है : भगः – सवैर्भजनीयः सः 3.36.5; भगः – पूषादेव, 3.49.3 ; भगस्य – धनस्य, 3.54.15; भगः – धनं, 3.54.21; भगं- अन्नं, 5.7.8; भगवती -धनवती,1.164.40; भगवन्तः – प्रभूतेन धनेन तद्वन्तः,1.164.40)