सवाल विश्वसनीयता का है
आज भारत के सभी दल आसन्न भविष्य में सत्ता हासिल करने के लिए नहीं , अपितु भाजपा को सत्ता से वंचित करने के लिए, किसी भी तरह का जोड़-तोड़ करने और गर्हित से गर्हित हथकंडा अपनाने को तैयार हैं और इसके बाद भी उन्हें भरोसा नहीं कि वे ऐसा करने में सफल होंगे। इससे तीन बातें स्वतः सिद्ध हैः
1. वे दिशाहीन हें, उनमें सत्ता की भूख तो है, पर आगे का कोई ठोस कार्यक्रम नही है;
२. सभी मानते हैं की उनमें से कोई अकेला मोदी के नेतृत्व वाले भाजपा का सामना नहीं कर सकता और सभी मिलकर भी उसके बराबर नहीं है और
३. यह कि पत्रकारों और बुद्धिजीवियों के लगातार कोसने के बाद भी जनसाधारण के बीच भाजपा की साख इन सभी की अपेक्षा अधिक बनी हुई है, अन्यथा इनके निराश होने की कोई वजह वजह न थी।
ऐसी स्थिति में समस्या सत्ता हासिल करने की नहीं है, अपितु विश्वसनीयता अर्जित करने की है। मोदी को तीन बार ऐसे निर्णय लेने पड़े जो किसी व्यक्ति और प्रशासन की विश्वसनीयता को समाप्त कर सकते थे:
१. विमुद्रीकरण का प्रयोग स्वयं ही जोखिम भरा प्रयोग था, क्योंकि इससे पहले यदि किसी देश ने ऐसा प्रयोग किया था तो सत्ता पलट गई थी । विपक्ष और राजनीतिक दलों से लगाव रखने वाले पत्रकार और बुद्धिजीवी इस उम्मीद में थे कि यहां भी ऐसा हो सकता है और इसलिए उन्होंने अपना सारा जोर लगा दिया था। सभी संचारमाध्यम मोदी की कटु आलोचना कर रहे थे और इस प्रयोग से जनता को होने वाली कठिनाइयों का हृदयविदारक चित्र प्रस्तुत कर रहे थे। कई बार संचार माध्यमों का प्रयोग लोगों को उकसाने के लिए किया गया। सर्वोच्च न्यायालय के तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश ने अपनी सीमा तोड़कर बयान दिया, राष्ट्रपति ने भी दबी जुबान से अपनी निराशा प्रकट की।
यह कोई नहीं कह सकता कि सार्वजनिक जीवन पर, छोटे काम-धंधों पर और कुछ दूर तक बड़े उद्योगों पर भी तत्समय या उसके बाद तक इसका प्रभाव कष्टकर नहीं रहा। इसके बावजूद जो बुद्धिजीवी मोदी की निंदा करने के लिए मुहावरों का अनुसंधान करते रहते थे, उन्हें भी यह देख कर आश्चर्य हुआ, कि इतना सब कुछ सहने ने के बाद भी जनता मे मोदी की विश्वसनीयता कम नहीं हुई।
२. जीएसटी दूसरा प्रयोग था जिससे अर्थव्यवस्था ही नहीं कुछ समय के लिए कर की उगाही में भी निराशाजनक परिणाम देखने को मिले । इसके बाद भी इससे प्रभावित व्यापारियों के बीच भी मोदी की विश्वसनीयता पर आंच नहीं आई, या आई तो इतनी कम कि उसका निर्णायक प्रभाव नहीं पड़ा।
३. विदेशनीति में एक और सबको साथ लेने के व्यक्तिगत और कूटनीतिक प्रयत्न जिनमे बरती गई उदारता को देश के लिए अहितकर बताया जाता रहा और दूसरी और सामरिक तैयारी जिसे भी मोदी की युयुत्सु प्रकृति का प्रमाण माना गया जब की विभिन्न कारणों से उनकी सफलता मोदी को एक दूरदर्शी राजविद सिद्ध किया.
कतिपय नकली मुद्दे उठा कर जाटों को, पाटीदारों को, दलितों को, मुसलमानों को भड़काने ओर अलगाने के प्रयत्न किए गए। विक्षोभ को, अपवित्र साधनों का प्रयोग करते हुए, इस सीमा तक पहुंचाया गया कि पूरे देश में अराजकता फैल जाए।
बुद्धिजीवियों ने या तो मुखर होकर अराजक तत्वों का साथ दिया, या चुप्पी साध ली। उन्हें कभी ऐसे अशोभन तरीकों की निंदा करते हुए नहीं पाया गया। घबराहट के कारण हडबडी में पाखंड और धूर्ततापूर्ण प्रदर्शनों का जाने कितनी बार प्रयोग किया गया और इसमें विदेशी परामर्शदाताओं तक का भी सहयोग लिया गया।
कई बार जनता की नजर में देशद्रोह प्रतीत होने वाले प्रदर्शन और आयोजन किए गए,। बुद्धिजीवियों द्वारा उनकी हिमायत की गई। ऎसी स्थिति में जहां हिंदुत्व को बदनाम करने के लिए अशोभन तरीके से भगवा ध्वज का प्रदर्शनीय प्रयोग हुआ या गोरक्षा के नाम पर पशु तस्करों की प्रतारणा और लूटपाट की घटनाएं घटी और समस्या की संवेदनशीलता को देखते हुए भाजपा सरकारों ने भी ठंडा रवैया अपनाया, और अपराधियों को दंडित करने में विलंब या संकोच किया, वहां पर दूसरी पाखंडपूर्ण गतिविधियों के कारण, कम से कम हिंदू समाज में, यह विश्वास पैदा नहीं हो सका कि इन सब के पीछे कांग्रेस का हाथ नहीं है ।
प्रशासन की विफलता सिद्ध करने के लिए रेलवे के न जाने कितने एक्सीडेंट कराए गए, जिनमें मानव हस्तक्षेप को छुपाया नहीं जा सकता था, और इन दुर्घटनाओं पर उनके प्रति सहानुभूति प्रकट करने की जगह प्रशासन की खिल्ली उड़ाई जाती रही।
मुसलमानों में नितान्त मामूली और काल्पनिक आधार पर ( सोचिए, दो दो बीवियां रखने वाला एक हीरो तीसरी की तैयारी कर रहा है और उसकी पत्नी अपनी असुरक्षा का सवाल उठाती है तो वह इसे मुसलमानों के मन में असुरक्षा की भावना का सवाल बना देता है), कभी-कभी शातिराना ढंग से,असंतोष भड़काने के प्रयत्न किए गए ( JNU का IS से जुड़ाव रखने वाला एक लड़का ABVP नेता को पीटने के बाद चुपके से गायब हो जाता है और बहुत बाद में उसकी असलियत पता चलती है पर उसकी मां को लेकर इस तरह के इशारे करते हुए बयान दिए जाते हैं मानो सरकार ने उसे जानबूझकर गायब कराया हो) , जबकि उसकी तुलना में अधिक जघन्य और संख्या में गणनातीत त्रासदियों के प्रति संचार माध्यम और बुद्धिजीवियों द्वारा लकवाग्रस्त उपेक्षा का प्रमाण दिया गया।
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर शत्रु देशों के साथ छिपी सांठगांठ के प्रमाण दिए गए और सैन्य बलों के मनोबल को गिराने वाले बयान दिए जाते रहे, आहत और हताहत सैनिकों के प्रति संवेदनहीनता प्रदर्शित की जाती रही, और इस पर भी बुद्धिजीवी चुप रहे।
मोदी और भाजपा का विरोध करने वालों ने विरल अपवादों को छोड़कर तार्किक विश्लेषण का सहारा नहीं लिया, केवल मखौल उड़ाते रहे और विमर्श का स्तर नीचे गिरा कर आरोप प्रत्यारोप करते रहे, जो उनकी घृणा तो प्रकट करता था, परंतु समझदारी को नहीं । जिन क्षेत्रों में भारत की सफलता और नेतृत्व शक्ति, दुनिया में पहली बार आशा जगा रही थी, उनमें ऐसे बुद्धिजीवियों को कुछ दिखता ही नहीं या सब कुछ उलटा दिखाई दिया।
जिस बात को मोदी ने अपने पिछले चुनाव में केंद्रीय मुद्दा बनाया था अर्थात कांग्रेस पार्टी नहीं है वह एक वंश का राज्य है उसे उस वंश ने निर्लज्जता पूर्वक स्वीकार और प्रमाणित किया।
कांग्रेस के शासन की वापसी का सपना देखने वालों ने यह दोहराते हुए कि भाजपा ने कांग्रेस के ही कार्यक्रमों को कार्यान्वित किया, एक साथ दो बातें प्रमाणित की। पहला यह कि वर्तमान शासन उन योजनाओं को क्रियान्वित करने की क्षमता रखता है जिनके कांग्रेस केवल सपने देखती थी और कमीशन तय न हो पाने के कारण जो लटके रह जाते थे और दूसरे भाजपा की नीतियां राष्ट्रीय हित हैं। यदि किसी चीज में कमी है तो वह है उच्चतम स्तर से संचालित होने वाला भ्रष्टाचार।
ऐसी स्थिति में सामान्य जन को लगता है कि वे लोग जो कांग्रेस के शासन की वापसी के लिए बेचैन है, केवल भ्रष्टाचार के लिए कांग्रेस की वापसी चाहते हैं क्योंकि किसी अन्य बदलाव का संकेत उनके अब तक के बयानों या कार्यक्रम में उन्हें दिखाई दे रहा है?
कांग्रेस के लूटपाट के दौर में पत्रकारों शिक्षकों और बुद्धिजीवियों को भी तरह तरह से लाभान्वित किया जाता था ताकि वे चुप रहे या उसका समर्थन करें इससे कोई इनकार नहीं कर सकता। इसके विरल अपवाद वे पत्रकार और बुद्धिजीवी हो सकते हैं जिनका लगाव ऐसे दलों से रहा है जो आज अपनी साख गंवाकर अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं। बुद्धिजीवियों की साख भी उसी तरह डाव पर उन्कीलग अतिसक्रियता के कारण लगती गई है पर उनको इसकी चिंता तक नहीं ।
मैं यहां वर्तमान शासन सफलताओं या उपलब्धियों की गिनती कराना नहीं चाहता परंतु यह दुखद है कि जो दल और बुद्धिजीवी विविध कारणों से अपनी विश्वसनीयता खोते गए हैं, या खोई हुई विश्वसनीयता हासिल नहीं कर सके हैं, उन्हें उस दिशा में प्रयत्नशील तक नहीं देखा जा रहा है। ऊपर गिनाए गए उनके सारे प्रयत्न रही सही विश्वसनीयता को भी खत्म करने के लाजवाब प्रयोग तो कहें जा सकते हैं पर जनता से बीच अपनी विश्वसनीयता पैदा करने के प्रयोग नहीं माने जा सकते।
पहले भी मोदी को सफलता का नहीं राजनीतिक क्षेत्र में पैदा हुई रिक्तता का लाभ मिला था. विगत वर्षों में यह रिक्तता बढी है, न कि कम हुई है। इसका लाभ तो मोदी को और भाजपा को मिलना ही है।
व्यावहारिक राजनीति मैं धूर्तता और षड्यंत्र के बल पर कुछ भी हासिल किया जा सकता है और पहले भी हासिल किया गया है, इसलिए हम चुनाव की गणित में अपनी बात नहीं रख सकते। जाति धर्म और पैसे का ऐसा सदुपयोग हो सकता है कि सत्ता भाजपा के हाथ से चली जाए। किसी दल की लंबे समय तक उपस्थिति और शिक्षा और संस्कृति के मामले में उसकी नीतियां और व्यवहार जितने भी असंतोषजनक क्यों न हों, मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा जीतकर तो कमजोर हो सकती है पर यदि हार हो ही गई तो दोबारा उसका और मजबूत बनकर सत्ता में आना निश्चित है।