हमारी भाषा(4)
सूनृता वाक् और भाषा,
जैसा हम पहले कह आए हैं, सायणाचार्य ने सूनृता वाक् की परिभाषा करते हुए इसे पशुओं, पक्षियों और दूसरे जानवरों की भाषा – पशुपक्षिमृगादीणां भाषा – कहा है। ‘मृगादीणां’ में आए ‘आदि’ में हम अन्य प्राकृत ध्वनियों को समेट सकते हैं।
हमारा भौतिक जगत जड़ और चेतन, सजीव और निर्जीव तत्वों से निर्मित है। सजीवों में कुछ हैं जो बोल और चल सकते हैं और कुछ ऐसे जो बोल नहीं सकते, चल नहीं सकते, जैसे पेड़-पौधे। गति का वाणी से अनन्य संबंध है। गति के बिना ध्वनि पैदा नहीं हो सकती। क्षिप्रगति (आक्रमण, धावा) और ध्वनि (हल्ला, दंगा, दंगल, डाक-डाकू-डाका, ऋ. आरव, आहव) का हिंसा से भी गहरा संबंध है। संस्कृत धातुओं का वर्गीकरण करते हुए मुझे इस बात पर आश्चर्य हो रहा था कि हजार बारह सौ सक्रिय धातुओं में एक तिहाई से अधिक धातुओं का अर्थ गति या हिंसा क्यों है और उनका एक अर्थ नाद का कोई रूप क्यों है। यह मोटी बात भी कुछ विलंब से समझ आई कि क्रिया के जितने भी रूप हैं सभी गति से और ध्वनि से अनिवार्य रूप से जुड़े हैं अत: कोई ध्वनि उस वस्तु और उस क्रिया के साथ ही क्रिया की उस विशेषता को भी प्रकट करती है जिससे वह ध्वनि उत्पन्न हो रही है। कहें अनुकारी ध्वनि संज्ञा, क्रिया और क्रियाविशेषण तीनों को व्यक्त कर सकती है।
इससे पहले इस। पक्ष की ओर समुचित ध्यान नहीं दिया गया इसलिए भाषा की उत्पत्ति के विषय में एक आपत्ति यह थी कि भाषा का इतना जटिल ढांचा अनुकारी ध्वनियों से निर्मित नहीं हो सकता। यह मान लिया जाता था कि अनुकारी ध्वनियाें से केवल संज्ञाओं का ही नाता हो सकता है।
यह दुहराने की जरूरत नहीं है कि भाषा सुनी हुई ध्वनियों का अनुकरण है। हम जैसा सुनते हैं वैसा ही बोलते हैं। आदिम अवस्था में जब भाषा का जन्म हुआ तब तक मनुष्य को पशु पक्षियों की बोली और, स्वयं अपने हर्ष विषाद की ध्वनियां ही सुलभ थीं । परंतु इनकी एक सीमा थी, इनमे अमूर्तन का अभाव था। अत: इनका प्रयोग केवल उन जीवों-जंतुओं की संज्ञा के लिए ही किया गया । इन्हीं के कारण भाषा वैज्ञानिकों में यह भ्रम भी पैदा हुआ कि अनुकारी ध्वनियों से केवल संज्ञाएं पैदा हो सकती हैं, पूरी भाषा नहीं।
परंतु हमारे ध्वनि परिवेश में दो और तत्वों की भूमिका थी – एक जल और दूसरा वायु। इनकी गतियों से और उनमें पड़ने वाले अवरोधों के कारण, इनके परिमाण और निकास मार्ग की सीमा के कारण, इनसे भयानक गर्जना से ले कर मधुर संगीत के बीच की अनंत धनिया पैदा हो सकती थीं, और इसलिए भाषा के विकास में इन्हीं की सबसे प्रबल भूमिका हो सकती थी।
कहें जिनमें गति थी, जो बोलते थे उनकी गति या बोली का प्रयोग उनकी संज्ञा के लिए किया जा सकता था, परन्तु जो स्थावर थे, जिनसे स्वत: कोई आवाज नहीं निकलती थी, उनका नामकरण जल या वायु से उत्पन्न असंख्य ध्वनियों में से किसी एक के द्वारा ही संभव था। प्रश्न यह है कि क्या ऐसा हुआ और यदि हुआ तो उसके पीछे कोई औचित्य भी था ?
हम इसका उत्तर सकारात्मक में ही दे सकते हैं। यह जानना सबसे रोचक हो सकता है कि विष्णु के जिन हजार नामों की बात की जाती है, वे जल के नाम हैं। शिव के पर्यायों का साम्य अग्नि के पर्यायों से है’ परन्तु इस तथ्य की ओर किसी का ध्यान नहीं गया कि आग केपर्याय जल के पर्याय हो सकते हैं। यहा तक कि वायु जिससे उत्पन्न ध्वनिया जल से अभिन्न हैं, उसके कुछ पर्याय जल से निकले है।
पानी नैसर्गिक दर्पण इस पर सभी रंगों की छाया पड़ सकती है उसके अनुसार इसका रंग बदल सकता है इसलिए सभी रंगों और उनसे जुड़े मनोभावों के लिए संज्ञा जल की देन है। जितने भी खाद्य और पेय पदार्थ हैं जितनी ओषधिया और वनस्पतियां हैं, उनका नामकरण पानी से संबंधित है । सभी गतिशील पदार्थों का नामकरण पानी से जुड़ा है। अमृत से लेकर विष तक, पवित्रता से लेकर मलिनता तक, पुण्य से ले कर पाप तक, स्वर्ग से नरक तक, हमारे समस्त मनोभावों के लिए, समस्त अमूर्त आशयों या भाववाचक संज्ञाओं के, बालू से ले कर पत्थर तक के लिए, धन के संभी रूपों और सभी धातुओं के लिए अभिधान जल ने ही प्रदान किए हैं। इसकी पड़ताल हम आगे करेंगे।