Post – 2018-02-25

मेथड इन मैडनेस

ऋग्वेद के विषय में अपना मन्तव्य प्रकट करते हुए मैक्समुलर ने कहा था, इसके कुछ सूक्त तो निन्तान्त बचकाने हैं। उनकी नजर में पुरुष सूक्त अवश्य रहा होगा। इस टिप्पणी के लिए हम उन्हें दोष नहीं दे सकते। उनका तो एक प्रयोजन ही यह सिद्ध करना था कि ऋग्वेद मानवता की शैशव अवस्था की कृति है और ईसाइयत उन्नत चेतना की देन। भारतीय विद्वानों में जिन को वेदों की जानकारी थी या हो सकती थी उन्होंने इसका अक्षरानुगामी पाठ ही किया और इस लिए यदि पुरुष सूक्त को ही प्रमाण बना कर यह मान रखा था कि वेद सृष्टि से पहले अस्तित्व में थे, या कुछ दूसरे इसे लाखों वर्ष पुराना मानते रहे, तो वे स्वयं भी, अनजाने ही, मैक्समुलर के मत का समर्थन कर रहे थे। आपत्ति उन्हें बचकाना विशेषण से अवश्य हो सकती थी, क्योंकि वे वेद को ज्ञान की परकाष्ठा मानते थे। संभवत: इसीलिए स्वामी दयानन्द, मैक्समूलर को वेदों के विषय में अज्ञानी मानते थे।

इस सूक्त के मिथकीय रूपबन्ध का ध्यान न रखें तो इसमें, असंभव और अन्तर्विरोधी कथनों का ऐसा जमाव है कि कोई इसे किसी विक्षिप्त का प्रलाप कहे तो भी गलत न लगेगा।
हम दो ऋचाओं की चर्चा कल कर आए हैं। तीसरी ऋचा में भी यज्ञपुरुष की ही महिमा बखानी गई है जिसमें वामन के तीन डग और ऋग्वेद मे अन्यत्र आए विष्णु के पराक्रम – त्रीणि पदा विचक्रमे और त्रेधा निदधे पदं को ही दुहराया गया है पर उसमें धरती, अंतरिक्ष और द्युलोक या आकाश के तीन चरण रखने की बात है जब कि इस सूक्त में इसको बलिपशु बनाया गया इसलिए चतुष्पाद् पशु के रूपक का ध्यान करते हुए धरती के समस्त प्राणियों को एक पाद में समेटने के बाद तीन पाद सीधे द्युलोक में कल्पित कर लिए गए है। धरती के सभी मनुष्यों के स्थान पर समस्त प्राणियों को रखा गया है पर है यह समूळ्हम् अस्य पांसुरे (उसके पांवों की धूल में ही समस्त लोक समाया हुआ है।)

पहली ही ऋचा में हजार शिरों, आंखों और पांवों वाले पुरुष की कल्पना और फिर पूरी धरती को सर्वत: घेरने के बावजूद अलग और ऊपर हो कर दश अंगुल के आकार चमत्कारों और अन्तर्विरोधों की झड़ी लगा देता है। हम कहते हैं हमारी व्याख्या से सन्तुष्ट न होकर इसका आलोचनात्मक पाठ करें तो कृषिकर्म के स्थान पर इतने ही औचित्य से इसे अग्नि पर घटित किया जा सकता। दावाग्नि की कल्पना करें तो ऊपर उठते असंख्य शिरों, असंख्य आंखों और विविध रूपों में बढ़ते असंख्य पांव। फिर भी अग्नि का महत्व देव समाज के लिए कृषि उत्पादन और प्रसाधन में उसकी भूमिक के कारण ही है क्योंकि ‘अग्निना रयिं अश्नवत् पोषं एव दिवे दिवे यशसं वीरवत्तमम् (१.१.३);’ अग्निदेव ‘त्वया मर्तास स्वदन्त आसुतिं त्वं गर्भो वीरुधां जज्ञिषे शुचि:, २.१.१४?)।

दूसरी ऋचा ‘पुरुष एव इदम् सर्वं यत् भूतं यत् च भव्यम्। उत अमृतत्वस्य ईशानो यत् अन्नेन अतिरोहति॥’ ‘जो था और जो होगा, सब कुछ यह पुरुष ही है, पहली नजर में बहुत विचित्र लगता है, परन्तु यदि ऋग्वेद में ही आए अग्नि की सबमें विद्यमानता पर ध्यान दें तो जो कुछ था या होगा सभी में दिगातीत और कालातीत अग्नि को ही पाएंगे। वैचित्र्य तथ्यकथन बन जाता है। इसके दूसरे अर्धर्च मे पुरुष को अमृत का ईशान या स्वामी बताया गया है और फिर भी यह कहना कि अन्न से यह और प्रबलता पा लेता है , कुछ टेढा लगेगा । पर अग्नि को अमृत का निधान ( गोपा अमृतस्य , १.१.८), अग्नि देवों को अमृत प्रदान करते है (अग्निर् हि देवान् अमृतो दुवस्यति , ३.३.१) माना गया है। इस धारणा के पीछे भी उस काल से पाचेक हजार साल के देव समाज का बाद के कालों के देवताओं पर आरोपण हो सकता है जिनको अग्नि की बदौलत ही कृषिभूमि की तैयारी और पैदा हुए अनाज को पका कर अमृतोपम मधुर बनाने का श्रेय प्राप्त है परन्तु अमरता के इस निधान में जब इनका आहार – ईंधन, आज्य आदि – डाला जाता है तो यह और अधिक प्रज्वलित होते हैं। इस सूत्र के सामने आने पर अटपटापन समाप्त हो जाता है।

तीसरी और चौथी ऋचा में पुरुष की इतनी (ऊपर लिखी) महिमा बताने के बाद पुरुष की महिमा को उससे भी बहुत अधिक बताना इसलिए चौंकाता है कि पुरुष से पुरुष की महिमा अधिक कैसे हो सकती है, परन्तु कहा जा रहा है कि जो महिमा बताई गई है उससे बहुत अधिक है इसकी महिमा। आगे विष्णु के तीन पदों में धरती से आकाश तक को नापने की वही कथा दुहराई गई है। इस तरह की पुनरावृत्तियां वैदिक साहित्य में इतनी हैं कि ब्लूमफील्ड ने वेदिक रिपीटीशन्स नाम से एक पोथा ही तैयार कर दिया।
एतावानस्य महिमा अतो ज्यायांश्च पूरुषः। पादो अस्य विश्वा भूतानि त्रिपाद्स्य अमृतं दिवि॥३॥
त्रिपा्द् ऊर्ध्वं उदैत् पुरुषः पादो अस्य इहा पुनः। ततो विष्वं वि अक्रामत् स अशनान् अशने अभि॥४

अगली ऋचा में फिर उक्तिवैचित्र्य से काम लिया गया है। उस पुरुष से विराट् पैदा हुआ और विराट से फिर पुरुष पैदा हुआ और पैदा होते ही पूर्व से पश्चिम तक फैल गया। (तस्मात् विराड् अजायत विराजो अधिपूरुषः। सह अतो अत्यरिच्यत पश्चात् भूमिं अथो पुरः॥५)

इस बात पर ध्यान दें कि अपनी तेजस्विता के कारण अग्नि को राजा कहा गया है ( राजन्तं अध्वराणां, १.१.८; त्वां राजानं सुविदत्रं ऋंजते । २.१.८ ; नि दुरोणे अमृतो मर्त्यानां राजा ससाद विदथानि साधन् । ३.१.१८)और हम कह आए हैं तेजस्विता के कारण राजा को भी अग्नि का ही रूप माना गया है (हे अग्नि, मनुष्यों में तुम नृपति के रूप में पैदा होते हो – त्वं नृणां नृपति: जायते शुचि, २.१.१)।

यदि हम इस तथ्य पर ध्यान दें कि मनु एक अन्य कथा के अनुसार पहले किसान हैं, (धरती ने सभी ओषधियों को अपने में छिपा लिया तो धेनु रूपी धरती को मनु ने बछड़ा बन कर दुहा, और इस तर्क से वह पहले किसान (वैश्य) हुए, उन्होंने पहला विघान रचा जिस तर्क से (ब्राहमण हुए) और वह पहले राजा (क्षत्रिय) तो देव समाज के सभी वर्णों की एक मूलीयता की उस कथा से भी पुष्टि होती है और पुरुष या कृषि कर्मियों में आगे चल कर एक शासक (विराट या राजा) की जरूरत और फिर उसके संरक्षण में कृषि का दूर दूर पश्चिम और पूर्व की ओर प्रसार का संकेत यहां पाया जा सकता है। यह अवस्था तब आई हो सकती है जब कृषि कर्म की ओर पहले के विरोधी या उदासीन समुदायों में से अनेक आकर्षित हुए होंगे और सुरक्षा की साझी जरूरत अनुभव हुई होगी। मनु राज्य संस्था के अनुबन्ध सिद्धान्त के पहले प्रतिपादक हैं, तुम हमें उपज का एक भाग दोगे और मैं तुम्हें आन्तरिक व्यवस्था और बाहरी उपद्रव से सुरक्षा दूगा। इस राजसंस्था के आने के बाद दूर दूर तक खेती का प्रसार हुआ यह इस ऋचा का दावा है और पुरातात्विक साक्ष्य इस दावे की पुष्टि करते हैं कि बहुत थोड़े समय में भारत से लेकर पश्चिम एशिया तक और उत्तर चीन तक खेती का प्रसार हो गया। भले ये दोनों खेती में अपनी अग्रता का दावा करें, इस परिघटना का प्राचीनतम अभिलेख और इसके क्रम में हुए अनुभवों का अंकन भारतीय अतीत में ही मिलता है।

छठीं ऋचा (यत् पुरुषेण् हविषा देवा यज्ञं अतन्वत। वसन्तो अस्य आसीत् आज्यम् ग्रीष्म इद्ध्म शरत् हवि:॥६) के पहले अर्धर्च में एक बड़ी क्रूर प्रथा का आभास होता है। आरंभिक चरण पर भूमि की उर्वरता बढ़ाने के लिए खाद की उपयोगिता से परिचित होने से पहले संभवत धरती को तुष्ट करने के लिए नरबलि देने की प्रथा थी। यह प्रथा शबरों में से कुछ में उन्नीसवीं सदी तक प्रचलित थी जिसे मरिया प्रथा कहते थे। इसके लिए वे किसी अन्य कबीले या समाज से किसी शिशु को चुरा लाते थे, प्यार से पालते थे, उसे नशे की आदत भी डालते और पियक्कड़ बना देते थे। बलि के तरीके का जिक्र न करना ही अच्छा। दूसरे स्रोतों (शतपथ ब्रा.) में भी नरबलि की प्राचीन प्रथा की और फिर पशु बलि के कई चरणों के हवाले हैं। इसमें जिन देवों द्वारा बलि यज्ञ के आयोजन का हवाला है, वे कृषि का आरंभ करने वाले देव या देउआ थे। दूसरे देव तो अभी पैदा ही नहीं हुए थे। उन्हें तो इस यज्ञ से पैदा होना था। दूसरी पंक्ति को काल्पनिक माना जा सकता है, अभी तो ऋतु ओं को भी इस यज्ञ से ही पैदा होना था।

सातवीं ऋचा (सप्त अस्य आसन् परिधय: त्रि: सप्त समिधः कृताः। देवा यत् यज्ञं तन्वाना अबध्नन् पुरुषं पशुं॥७॥) में बाद मे विकसित कर्मकांडी यज्ञ के अनुसार परिथि की सात और समिधा की इक्कीस लकड़यों के चयन की बात की गई है, क्योंकि उतने प्राचीन समय में यज्ञ या वनों की सफाई के लिए आग लगाने के क्या आयोजन किए जाते रहे होंगे, उनके निर्विघ् संपन्न होने के लिए उस काल में भी किसी तरह की रीति अपनाई जाती थी या नहीं, इस विषय में हम स्वयं भी अन्धकार में हैं। परन्तु बलिपशु के रूप में पुरुष की बलि देने की बात एक ही भूमि में बिना खाद के खेती करते रहने से उपज में आई गिरावट से प्रेरित हो सकती है और ऐसी दशा में पुरुष अग्नि, विष्णु, और कृषिकर्म या उत्पादन नहीं हो सकता, कोई मनुष्य ही हो सकता है। परन्तु हमें यह आसुरी चरण का अवशेष, या असुर समाज का प्रभाव लगता है, जिसके देवी देवता (काली, कपाली, आदि) रक्तपान और बलि के बिना तुष्ट ही नहीं होते थे।

नरबलि की प्रथा कभी वैदिक समाज में प्रवेश कर चुकी थी इसकी पुष्टि शुन:शेप की. कथा से होता है, परन्तु वह भी असुर देवता हैंजो असुरों के देव समाज के साथ सहयोगी भूमिका में आने के बाद प्रधान देवताओं में एक मान लिए गए थे।

समिधा की बात समझ में नहीं आती क्योंकि इसके कटे हुए अंगों से विविध तत्वों की सृष्टि हो जाती है। यह आनुष्ठनिक यज्ञ के रूपक के कारण जोड़ी गई है।

आठवीं ऋचा (तं यज्ञं बर्हिषि प्रौक्षन पुरुषं जातं अग्रतः। तेन देवा अयजन्त साध्या ऋषयश्च ये॥८॥) में बलि से पहले बलिपशु के शरीर को संभवत: घृतलेप आदि करने का संकेत है जो पशुपालन के बाद ही संभव था इसलिए यह भी बाद की रीति का आरोपण हो सकता है, पर यहां इससे पुरुष के पैदा होने, देवों, साध्य देवों या जिनमें देव बनने की संभावना थी और ऋषियों के उत्पन्न होने को कृषि के बाद अदेवों या कृषि के प्रति उदासीन या विरोधी जनों की कृषि की दिशा में रुझान वाले (साध्य), नए देव समाज या कृषि अपनाने वाले समुदायों की (देवों), और चिन्तनशीलता में आई वृद्धि (ऋषय:) को मूर्त किया गया लगता है।

हम यह निवेदन करना चाहते हैं कि इस सूक्त में पुरुष की बलि से जिन चीजो के पैदा होने की बात की गई है वह उसकी उत्पत्ति से अधिक उसकी ओर ध्यान जाने, उसके संभव हो पाने का मूर्तीकरण है न कि सचमुच सृजित होने का। इसे इस रूप में समझ न पाने के कारण ही बहुत सारी गलतफहमियां पैदा हुई हैं, जिनकी ओर हम आगे ध्यान दिलाएंगे। सार केवल यह है कि कृषि उतपादन से पहले की पशुसुलभ जिन्दगी में इनकी संभावना थी ही नहीं।

अगली ऋचा पशुपालन के आरंभ की है। यह याद रखना होगा कि खेती आरंभ करने के बाद भी आखेट से देवगण विरत नहीं हुए थे बल्कि अब शाकाहारी जानवरों से अपनी खेती को बचाने के लिए पशुओं का शिकार या भागते हुए बीमार या छोटे शावकों को पकड़ना अधिक जरूरी था और जैन तथा बौद्ध मतों के प्रभाव से शाकाहार पर मनोव्याधि के स्तर तक जोर देने वाले यह सोचते हुए विचलित अनुभव करेंगे कि वन्य अवस्था में ही आमिष आहार के बिना प्राणरक्षा संभव न थी अपितु कृषि का आरंभ होने पर शाकाहारी जानवरों पर आघात किए बिना वे अपनी खेती को बचा ही नहीं सकते थे। शाकाहार मुझे भी पसन्द है, पर शाकाहारी जनों को यह न भूलना चाहिए कि मांसाहार से परहेज, कृषि उत्पाद की प्रचुरता के बाद ही संभव था, और इसके लिए दार्शनिक सूझ से अधिक भारत की उर्वरा धरती और छह ऋतुओं वाली जलवायु को श्रेय जाता है जिसमें अल्प श्रम से ही, दो और तीन फसलें उगाई जा सकती थीं। जो भी हो पहली पृषदाज्य या बकरी के दूध से बने घी के तर्पण का प्रश्न है वह बकरी को पालतू बनाए जाने अर्थात् पशुपालन से पहले संभव ही न था (तस्मात् यज्ञात् सर्वहुतः संभृतं पृषदाज्यं। पशून् तान् चक्रे वायव्यान आरण्यान् ग्राम्याश्च ये॥९॥।) प्रसंगवश कहदें कि जिस जानवर को सबसे पहले पालतू बनाया गया था वह बकरी ही थी और इसके बकरे का कोई दूसरा उपयोग भी न था। पालतू पशुओं से दूध पाया जा सकता है यह बाद की सूझ थी, पहला उपयोग उसकी लेड़ी से भूमि में आई उर्वरता थी। यहां आकर उनके भौतिक दृष्टिकोण में क्रान्तिकारी परिवर्तन हुआ। धरती की भूख मिटाने के लिए नरबलि की आवश्यकता नहीं है। उसकी भूख खाद (करीष) से मिटती है।

कृषि की समृद्धि और निश्सेचिन्तता से ही साहित्य रचना, और औपचारिक यज्ञादि (तस्मात् यज्ञात् सर्वहुत ऋचः सामानि जज्ञिरे। छंदांसि जज्ञिरे तस्मात् यजु: तस्मात् अजायत॥१०॥ तस्मात् अश्वा अजायंत ये के च उभयादतः। गावो ह जज्ञिरे तस्मात् संजाता अजा अवयः॥११॥) का पर्यावरण तैयार हुआ। यह सूक्त गो आधारित कृषि आरंभ हो जाने के बाद रचा गया इसलिए समय का ध्यान नहीं रखा गया, अन्यथा अज पालन और ढुलाई के लिए अश्वपालन सबसे पहले किया गया। गोपालन लगभग पांच हजार साल ईसा पूर्व के आसपास आरंभ हुआ। हम कह सकते हैं कि इससे पहले देव युग था और गोपालन से मानवयुग आरंभ हुआ या देवों के वंशधर अपने को मनुष्य कहने लगे क्योंकि यह कहा गया है कि देव आज्य प्रेमी थे, और मनुष्य गव्य प्रेमी हैं। यह वह चरण है जब कृषिभूमि के स्वामित्व से उत्पन्न समृद्धि व्यापारिक पूंजी का रूप लेती है, पर कृषिभूमि पर अधिकार बना रहता है। जिसे ऐबसेंट लैंडलार्डिज्म कहा जाता है वह भारत में वैदिक काल से पहले आरंभ हो गया था ( क्षेत्रस्य पतिं प्रतिवेशं ईमहे, १०.६६.१३)।

बारहवीं ऋचा में प्रश्न किया गया है कि पुरुष को काट कर कितने टुकड़ों में बाटा गया और उसके मुंह, बाहु जांघ और पावों को क्या कहते थे (यत्पुरुषं व्यदधुः कतिधा व्यकल्पयन्। मुखं किमस्य कौ बाहू का उरू पादा उच्येते॥१२॥) और इसी का उत्तर तेरहवीं ऋचा में दिया गया है ( ब्राह्मण: अस्य मुखं आसीत् बाहू राजन्य: कृत:।ऊरू तदस्य यत् वैश्यः पद्भ्यां शूद्रो अजायत॥१३॥) जिसका अर्थ ऐसा हर एक व्यक्ति जानता है जो वेद शब्द से परिचित है। यज्ञपुरुष की बलि कृषिकर्मियों की विवशता थी। देव समाज का आंतरिक विभाजन उसकी अपनी अर्थव्यवस्था की अपरिहार्यता थी । इस पर विस्तार से हम चर्चा कर चुके हैं।

यदि वर्णों का विभाजन कटे हुए अंगों से नहीं हुआ तो चन्द्रमा और सूर्य का तो हो ही नहीं सकता (चंद्रमा मनसो जातः चक्षोः सूर्यो अजायत। मुखात इन्द्रःच अाग्निः च प्राणात् वायुः अजायत॥१४॥)। इसके विषय में हम ऋतुओं के रूठने की प्रतीक कथा का उल्लेख कर आए हैं। मौसम का सही ध्यान न रखने पर खेती की बर्वादी ने काल गणना और क्रमश: खगोल के अध्ययन को प्रेरित किया। समय के सूक्ष्म विभाजन और इसके वृहत्तम चक्र आदि के हिसाब को प्रेरित किया। यह गणना इतनी सूक्ष्मता तक पहुंची हुई थी कि अन्य संस्कृतियों के प्रबुद्धतम लोग भी इसका उपहास करते थे और सृष्टि और जो प्रलय के बीच इतने विराट अन्तराल की बात करते थे वे उन्हें सनकी तक मानने को तैयार थे, परन्तु इस काल प्रसार को सही मानने को तैयार नहीं। आधुनिक विज्ञान ने ही उनकी इन संकल्पनाओं को कुछ सुधार के साथ समर्थन दिया। इन गणनाओं के क्रम मे ही अंकमान को उस विराट संख्या तक पहुंचायागया जिसकी कल्पना तो आधुनिक विज्ञान के पास है पर अंकमान बिलियन से आगे यदि ट्रिलियन तक पहुंचता भी है तो उसकी अनिश्चितता के कारण उसका उपयोग नहीं हो पात।

हम इस तथ्य को दुहराना चाहते हैं कि यदि ये सभी विकास इतने पहले दूसरी संस्कृतियों के लिए अठारहवीं शताब्दी तक अकल्पनीय थे जिस ऊंचाई तक केवल भारत में पहुंचा तो इसलिए कि इसका जन्म कृषिक्रान्ति की अपरिहार्यता के कारण हुआ ।

आगे की दोनों ऋचाएं इस रूपकीय ताने बाने का काव्यातमक विस्तार है इसलिए उस पर चर्चा जरूरी नहीं पर यह याद दिलाया जा सकता है कि अन्तिम कृषिकर्म के आरंभ का धुंधला अनुस्मरण है।

नाभ्या आसीदंतरिक्षं शीर्ष्णो द्यौः समवर्तत।
पद्भ्यां भूमिर्दिशः श्रोत्रात्तथा लोकाँ अकल्पयन्॥१५॥

यज्ञेन यज्ञमयजंत देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन्।
ते हि नाके महिमानं सचन्त यत्र पूर्वे साध्या सन्ति देवा।