लौकिक संस्कृत (2)
यदि स्टीफेन हाकिंग्स का दृढ़ संकल्प प्रेरक न होता तो चारपाई पर निष्क्रिय पड़ा रहता । उनको नमन पूर्वक हम कल की चर्चा को आगे बढ़ा सकते हैं।
जिन दिनों राजदरबारों में संस्कृत का आदर था उन दिनों भी संस्कृत बोलने और लिखने वाले दुर्लभ थे। इसका एक प्रमाण पुराभिलेखों में ताम्रपत्रादि में पाई जानेवाला अशुद्धियॉं हैं। इसी का दूसरा पक्ष यह है कि संस्कृत में गद्य साहित्य का विकास न हो सका। किसी इतर भाषा में गाना गा लेना आसान है, पर जरूत पड़ने पर गद्य में कुछ कहना पड़े तो असलित सामने आ जाती है । पद्य में पुराने पद बन्धों की स्मृति उसी तर्ज पर कुछ गढ़ने जोड़ने में सहायक होती है। जिन दिनों खड़ीबोली कविता के उपयुक्त नहीं समझी जाती थी पूरे हिन्दी प्रदेश के कवि ब्रजभाषा में कविता करते थे जब कि ब्रजभाषा नहीं बोल सकते थे। भाषा पर अधिकार गद्य पर अधिकार से प्रकट होता है, यह बात संस्कृतज्ञों को भी मालूम थी- गद्यं कवीनां निकषं वदन्ति । गद्य का विकास बोलचाल की भाषा पर निर्भर करता है। संस्कृत को योजनाबद्ध रूप में बोलचाल से अलग करके ब्राह्मणों ने अपनी कूट भाषा बना कर अपनी कालकोठरी में बन्द कर लिया। यह मानुषी वाक् से पारुषी वाक् बना दी गई।
यह तो रही कल की पोस्ट में छूटे रह गए कुछ बिन्दुओं का स्मरण ।
अब हम आज की समस्या पर आएं, साथ ही यह देखें कि संस्कृत में वह कौन सी विशेषता है कि लोक भाषाएं कला, प्रविधि, दर्शन और विज्ञान के उपयोग के लिए संस्कृत पर इतनी निर्भर करने लगती हैं कि वे संस्कृतमय हो कर संस्कृत की ही तरह अपनी बोली से दूर चली जाती हैं परन्तु उनके प्रसार और व्यवहार का क्षेत्र बढ़ जाता है, जैसा प्राकृत और पाली के साथ हुआ और कुछ दूर तक हिन्दी के साथ भी हो चुका है।
परन्तु इससे पहले हम दो बातों पर विचार करेंगे। पहला उन बिन्दुओं से संबंधित है जो अंग्रजी की कमियों को इंगित करते हुए एक दो मित्रों ने संस्कृत की क्लिष्टता का बचाव किया है और दूसरा इस बात से कि क्या संस्कृत को लौकिक संस्कृत बनाकर सामान्य बोलचाल की भाषा बनाया जा सकता है ? दूसरे प्रासंगिक प्रशन भी हैं जिनसे हम बचना चाहें तो अपने विषय के साथ न्याय नहीं कर सकते।
हमने संस्कृत की निखोटता को नहीं, इसके व्याकरण की जटिलता और व्याकरण से भाषाशिक्षा आदि की ओर ध्यान आकृष्ट किया था और अंग्रेजी के दोष गिनाने वालों में कुछ को पता होगा कि अंग्रेजी की वर्तनी के दोष को लेकर बर्नर्ड शा (Bernard Shaw on Language) ने कितनी तल्ख टिप्पणी की है । इसके बावजूद अंग्रेजी इंगलैंड के और उच्चारणभेद के साथ अमेरिका और आस्ट्रेलिया तथा दूसरे देशों में जहां उनके परिवार बसे हैं. वहां के बच्चे-बूढ़े सभी अंग्रेजी बोलते, समझते, पढ़ते, लिखते हैं। दूसरों को भिन्न भाषाई परिवेश में रहते हुए अंग्रेजी सीखनी होती है इसलिए शब्दभंडार से लेकर व्याकरण तक किताबों से सीखना पड़ता है इसके बाद भी जितने लोग अंग्रेजी लिख, पढ़ और बोल लेते हैं संस्कृत सीखने वालों में उसके शतांश भी ऐसा क्यों नहीं कर पाते जब कि 75 प्रतिशत शब्दभंडार से वे अपनी भाषाओं के माध्यम से परिचित होते हैं?
रही बात संस्कृत के लोकव्यवहार की भाषा बन पाने की समस्या। इसका सफल प्रयोग मैं देख चुका हं, यद्यपि उस किशोरवय में मुझे यह प्रयोग हास्यास्पद प्रतीत होता था, जैसे मेरा यह प्रस्ताव आप में से बहुतों को लग रहा होगा।
मेरे गांव से तीन किलोमीटर की दूरी पर भलुआन के एक ठिगने कद के बहुत ओजस्वी व्यक्ति थे, नाम विन्ध्याचलशर्मा शास्त्री। उन्होंने एकाएक ठान लिया कि वह संस्कृत छोड़ दूसरी कोई भाषा बोलेंगे ही नहीं। उनको अपनी बात समझाने में कभी परेशानी नहीं हुई। परन्तु उनकी संस्कृत व्यावहारिक संस्कृत थी –
द्वि आणकस्य जलेबीं देहि। इक्कया गच्छ।
सुनकर आरंभ में लोग मुस्कराते। बाद में मुस्कराना भी बन्द हो गया। आजीवन वह अपने व्रत पर कायम रहे।
संस्कृत से हमारी भाषाएं और भाषाओं से बोलियां नहीं पैदा हुईं, अपितु आर्थिक विकास के क्रम में हारसंग्रह के आदिम चरण के मानवयूथों के परस्पर निकट आने और वृहत्तर सामाजिक इकाइयों के गठन के चलते आदिम बोलियों का अधिक समर्थ बोलियों, भाषाओं और फिर संपर्क भाषाओं के गठन और क्रमिक मानकीकरण से वैदिक का प्रादुर्भाव हआ। यह प्रक्रिया कई हजार साल में सारस्वत क्षेत्र में पूरी हुुई और तब से आजतक यह क्षेत्र व्यापक प्रसारक्षेत्र वाली भाषाओं के मानकीकरण का केन्द्र बना हुआ है।
जिस तथ्य को मै यहां रेखांकित करना चाहता हूं वह यह कि वैदिक या संस्कृत शुद्ध भाषाएं नहीं हैं, बहुत सी बोलियों के मेल से बनी भाषाएं हैं और बोलियों से क्रमशः दूर होती हैं, न कि बोलियों का जन्म संस्कृत के विघटन से हुआ है।
चर्चा आज भी अधूरी रह गई। कल सही।