लौकिक संस्कृत (३)
पाणिनि के समय में संभवत: संस्कृत का जनता से बिलगाव नहीं हुआ था। अनेकानेक जन भाषाओं के क्षेत्र में व्यापक संपर्क के लिए संस्कृत का प्रयोग होता था परन्तु क्षेत्रीय बोलियों के प्रभाव से इसका चरित्र बदला था। फिर भी यह माना जाता था कि उदीच्य की या कुरुपांचाल की संस्कृत अधिक शुद्ध है। शुद्धता के आग्रहशील अपने बच्चों को शिक्षा के लिए यहां भेजते थे और उनका अनुकरण करते हुए दूसरे अपना उच्चारण सुधारते थे । इसका कारण हम बता चुके हैं कि इसी क्षेत्र में कई हजार साल के लंबे दौर में संस्कृत का चरित्र निर्धारण हुआ था और मोटे तौर पर कहें तो इसी क्षेत्र में पाणिनीय वर्णमाला के सभी अक्षरों का सही उच्चारण संभव हो पाता है। यहां से जिस भी दिशा में चलें उच्चारण अशुद्ध होने लगता है। हालत यह कि बंगाल पहुंचते पहुंचते अकार अॉकार, इकार का ह्रस्व-दीर्घ में अभेद, ऐ और औ का एइ, ओइ मे परिवर्तन, ऋ, लृ, ण, य,व, ष, स, संयुक्ताक्षरों क्ष, ज्ञ, त्र की ध्वनियों का अभाव मिलता है।
हमने एक बहुत उलझे विषय को उठा लिया, जिसकी व्याख्या करने चलें तो बहुत लम्बा काम हो जाएगा, पर संक्षेप में कहें तो इस विकास रेखा को न समझ पाने के कारण संस्कृत का इतिहास लिखने वाले देसी-विदेशी सभी विद्वानों से भारी चूक हुई है। इनमें से कोई संस्कृत की निर्माण प्रक्रिया के विविध चरणों को समझ ही न सका, न ही यह समझ सका कि किसी भी क्षेत्र की बोलचाल की भाषा न होते हुए भी यह व्यापक संचार के लिए संपर्क भाषा बन कर वैदिक काल या हड़प्पा सभ्यता की नीव से जो भिर्राना के साक्ष्यों से समझना चाहें तो सातवीं सहस्राब्दी ईस्वी पूर्व तक जाती है, अपने नए रूप में ढलनी आरंभ हुई और विशिष्ट आर्थिक-सांस्कृतिक उपक्रमों से जुड़े श्रुधी और गंवार, अमीर-गरीब सभी के द्वारा बोली और समझी जाती थी, जब कि घरेलू स्तर पर सामान्य जन अपनी बोली बोलते थे जिनमें कुछ ऐसे तत्व थे जिन्हें द्रविड़ और मुंडा समुदायों की भाषाओं की विशेषता मानी जाती है और इसे बहुत झिझकते हुए वैदिक में मिला स्वीकार किया जाने लगा है।
पाणिनि से पहले जो वैयाकरण हुए उनके सामने मुख्य समस्या ऋग्वेद की भाषा को समझने की थी। हम फिर इस सवाल से बचना चाहेंगे कि यह समस्या पैदा क्यों हुई। संक्षेप में यह कि लंबे समय तक चलने वाली किसी प्राकृतिक त्रासदी के कारण जीवन रक्षा की समस्या इतनी उग्र हो गई कि पूरी सभ्यता नष्ट हो गई। असाधारण सम्मान के बाद भी वेदों की रक्षा तक संभव न रही, अर्थज्ञान का प्रशन तो उसके बाद आता है। दिन फिरे तो असाधारण प्रयत्न से देश-देशान्तर से जितना कुछ जुटाया जा सका उसका संकलित रूप ही हमें उपलब्ध है। इस परंपरा-विच्छेदन के कारण सदियों के अन्तराल के बाद तरह तरह की अटकलबाजियों से आगे बढ़ते हुए वे वेद का अर्थ समझने का प्रयत्न कर रहे थे। इसी क्रम में धातुओं की कल्पना और उनके बीजार्थ के निर्धारण के प्रयत्न भी हुए। इस प्रयत्न में दूसरे अनेक लोग लगे हुए थे, जिनके परिणाम वेदांग, संहिताएं और ब्राह्मण आदि हैं।
पाणिनि का प्रयत्न उस भाषा का उद्धार था जिसमें ऐसी एकरूपता आ गई थी कि वह देश-देशान्तर में बोली और समझी जाती थी, परन्तु आज जिसके इतने स्थानीय भेद हो चुके थे कि एक क्षेत्र की उसी भाषा को दूसरे क्षेत्र का व्यक्ति समझ ही नहीं सकता था। वह भाषा में वैदिक कालीन एक रूपता लाना चाहते थे परन्तु इस बीच में भाषाओं में जो वैदिक प्रयोग प्रयोगबाह्य हो गए थे, या स्वयं वैदिक भाषा में जो प्रयोग बाहुल्य थे उनका परिहार करते हुए।
पाणिनि के सामने तीन समस्यायें थीं। एक भाषा का एक मानक रूप जिसका कठोरता से निर्वाह किया जाय। दूसरा, ऐसे शब्द जो कालबाह्य हो चुके हैं या नितान्त आंचलिक हैं उनसे बचा जाय। तीसरा उच्चारण की एक रूपता जिसकी चिन्ता पहले भी थी, परन्तु इस दौर में जिसकी आवश्यकता पहले की अपेक्षा अधिक बढ़ गई थी, पाणिनि पूरी वर्णमाला का पुनराख्यान और वर्गीकरण करते हुए उनके उच्चारण का तरीका बता रहे थे, उच्चारण के आभ्यन्तर और बाह्य प्रयत्न का संकेत देते हुए उच्चारण में हलन्त, अजन्त ध्वनियों के मात्राभेद से ह्रस्व, दीर्घ, प्लुत, स्वरित, अनुनासिक आदि का निर्देश देते हुए अपेक्षा कर रहे थे कि सभी के द्वारा एक जैसा उच्चारण हो जिससे उसी भाषा को बोलने, सुनने, समझने में किसी तरह की समस्या देश-काल भेद से उत्पन्न न हो। इसके अतिरिक्त उन्होंने अपनी ओर से किसी तरह का अनुशासन नहीं रखा। अष्टाध्यायी के अन्य प्रसंगों को ध्यान में रखते हुए भी उन्होंने अपनी ओर से कुछ नहीं किया जो ऋग्वेद में उपलब्ध न था। अपनी समझ से वह भाषा को कठिन नहीं बना रहे थे, पर नियमित बनाने के क्रम में ही भाषा यान्त्रिक भाषा में बदल गई और पहले के संस्कृत के आंचलिक रूप जो बोले भले शिक्षित और संभ्रान्त जनों द्वारा जाते थे, पर अशिक्षितों द्वारा भी समझ लिए जाते थे, अब व्यापक जनसमाज से पूरी तरह कट गए।
इस प्रक्रिया को एक उदाहरण से समझा जा सकता है। सामान्य बोलचाल की भाषा को सही सही बोलने के लिए हमें उन नियमों और प्रयत्नों को, यहां तक कि अक्षरों के क्रम और संख्या तक को जानने की आवश्यकता नहीं होती, जिनको समझाने के लिए पाणिनि को इतना श्रम करना पड़ा। बच्चा लोगों को बोलते सुनकर बोलना सीख जाता है। वु्याकरण जानने का भी झमेला नहीं रहता। परन्तु अपनी भाषा पर अधिकार के बाद भी सधे सुर ताल में अचूक गायन की शर्त हो तो यह अल्पजनसाध्य साधना में बदल जाता है। यदि संस्कृत को सर्वजनगम्य भाषा का रूप देना है तो लाख दावे करने के बाद भी वही भाषा नहीं रह सकती जिसकी नींव अपनी महत्वाकांक्षा नें पाणिनि ने रखी थी, इस प्रक्रिया को उलटना होगा। इसके लिए क्या करना होगा, इसकी चर्चा हम कल करेंगे।
आज इतना और कि पाणिनीय संस्कृत की कीमत पर यह काम नहीं किया जा सकता। साथ ही अपने पहले से चले आ रहे वैदिक साहित्य को समझने के जिस प्रयत्न को किनारे रख कर पाणिनि आगे बढ़ गए थे वह एक वेद की भाषा की समस्या नहीं है अपितु कई हजार साल के भाषा के पूर्ववर्ती इतिहास की समस्या है। इसकी घोर उपेक्षा हुई है। इसलिए संस्कृत के कतिपय़ मान्य विश्वविद्यालयों में संस्कृत के तीन विभागों की आवश्यकता है – लौकिक संस्कृत, पाणिनीय संस्कृत और आर्ष संस्कृत। अन्तिम दो को भी सरल बनाया जा सकता है, और संभवतः उस दिशा में कुछ प्रयत्न कई साल से हो भी रहा है।