Post – 2020-07-13

हम राजनीतिक रूप में चालबाजी की कमी के कारण, चाणक्य के सुझावों को अपनी जीवनचर्या में न उतार पाने के कारण, पराधीन हुए, शौर्य की कमी के कारण नहीं। सांस्कृतिक रूप में हम दुनिया के किसी अन्य देश से आगे थे। पश्चिम का आधुनिक अठारहवीं सदी के बाद से -भारत का कितना ऋणी है, इसका हम सही अनुमान नहीं कर सकते क्योंकि उन्होंने जो कुछ लिया उसे आत्मसात करके अपना बना लिया और अपना बताते रहे। य़हाँ तक कि हमारी भाषा तक को अपनी भाषा सिद्ध करने के प्रयत्न में लगे रहे। उनके संपर्क में आने के बाद वही काम हमने नहीं किया।

हमारी एक लंबी- दुनिया में सबसे लंबी, दस हजार साल की – सांस्कृतिक परंपरा रही है जिसमें अपनी संचार प्रणाली में अद्भुत प्रयोग किए – 1. जन्तुकथाओं के माध्यम से गहन विचारों को जन जन तक पहुँचाने का तरीका जिसकी परंपरा बहुत पीछे जाती है, पर प्रमाण ऋग्वेद से और हड़प्पा सभ्यता के अवशेषों से मिलने लगते हैं; 2. देव कथाएँ जिनके शिक्षा शास्त्रीय और सौंदर्य शास्त्रीय महत्व को समझा ही न गया (जिनकी समझ के भरोसे बैठे रहे उनकी रुचि खिल्ली उड़ाने में अधिक समझने में कम थी); 3. दो पंक्तियों में किसी विचार को व्यक्त करके अविकल रूप में स्मरणीय बनाने का प्रयत्न जिसका परिणाम था कई हजार साल के लेखन पूर्व के इतिहास का सुरक्षित रह जाना, जो अपनी ‘सटीकता’ में विस्मयकारी लगता है।

लेखन के बाद का साहित्य भी प्राचीनता से ले कर गुणवत्ता की दृष्टि से हेय न था और प्रथम परिचय में ही किसी को चकित करने के लिए काफी था। हमारा समाज इसी में पगा था। उस तक पहुँचने के नए प्रयोग इसकी प्रकृति की रक्षा करते ही संभव था। पश्चिम से सीखने को एक ही चीज थी जिसके सम्यक विकास न हो पाया था। यह था गद्य। हमारा गद्य काव्यात्मक या सूत्रपरक रह गया था।

पर हम अपना आपा भूल कर आत्मसात्करण के स्थान पर सांस्कृतिक परकायप्रवेश में जुट गए और अपने घर से इतने दूर बढ़ आए हैं कि गलती का अहसास हो भी तो लौटने का रास्ता न मिल सके।