Post – 2020-07-13

रोना भी मुसीबत में किसी काम न आया

मैं अक्सर अपनी बात ठीक-ठीक समझा नहीं पाता। गलतियाँ तो इतनी छूट जाती हैं कि उसके बाद भी लेख में से कुछ निकाल लेने वालों को सदाशयी मानता हूँ। मैंने जब अपने समानधर्मियों के औपनिवेशिक मानसिकता से बाहर न निकल पाने पर लेखन में रोने की, बार एक ही शिकायत के बने रहने की, बात की तो कुछ मित्रों को लगा मैं निजी विफलता की बात कर रहा हूँ।

मेरी लड़ाई मेरी नहीं, हमारी रही है। यही कारण रहा कि मैं लगभग प्रत्येक शोधकार्य के विषय में विषय से सीधे जुड़े लोगों से आग्रह करता रहा कि इसे वे लिखते तो अधिक अच्छा होता। मेरी चिंता इसीलिए स्वतंत्र होने के साथ सास्कृतिक परजीविता के आरंभ हो जाने से जुड़ती है। खिन्नता बुद्धिजीवी के रूप में हमारी सामूहिक विफलता से उत्पन्न है। हमारी आवाज जिन माध्यमों – पत्र, पत्रिका, साहित्य, कला विधाएँ – नाटक, सिनेना, चित्रकला- से समाज तक पहुँचती रही है उन पर वह समाज विश्वास खो चुका है, क्योंकि उनमें वह अपने को नहीं पाता। अपने तक पहुँचने की चिंता तक नहीं। य़ह एक बड़ी त्रासदी है जिसे मैं ठीक से समझा नहीं पाया। मेरा रोना निजी विफलता पर रोना नहीं है, बुद्धिजीवी वर्ग के अपने ही समाज के लिए व्यर्थ हो जाने की और इस व्यर्थता के बोध तक के अभाव पर रोना है। जिस लड़ाई को मैंने जारी रखा उसे आगे बढ़ाने वाला, मेरी अपनी कमियों को सुधारने वाला कोई नजर न आने पर रोना है।