Post – 2020-07-11

सामान्य बोध यह है कि यदि दो सभ्यताओं में बहुमुखी समानताएँ दिखाई देती हैं, तो इसका अर्थ है समानता रखने वाले मामले मे दोनों में से कोई एक दूसरे का ऋणी है। सभ्यता के मामले में ऋणी होना दोष नहीं, गुण है। दोष यह तभी बनता है जब हम अपने दुर्बल या निष्क्रिय उपापचय तंत्र के कारण उसे पचा कर अपनी शक्ति में नहीं बदल पाते। कायिक अजीर्णता की तरह सांस्कृतिक अजीर्णता भी हमारी निजी शक्ति का क्षय करती है और कभी कभी मृत्यु तक का कारण बन जाती है।

भारत, स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद का भारत, जिसे अंग्रेजी शिक्षा के कारण ‘विश्व’ मानता था, उसके समकक्ष आने की स्पर्धा में, पहले अपने को राजनीतिक अधीनता मे रखने वालों की समकक्षता में आने के प्रयत्न में, अपने सांस्कृतिक उपापचय तंत्र का ध्यान न रखते हुए, उनका अपाच्य और दु्ष्पाच्य भी अधातुर की तरह निगलता रहा और आज सांस्कृतिक अकाल मृत्यु का शिकार है।

हम जिस पश्चिम के समक्ष आना चाहते हैं, वह मुक्तिबोध के स्वर में कहता है, कोशिश करो़! कोशिश करो!! जमीन मेे गड़ कर भी, हम तक पहुँचने की कोशिश करो!!! और हम लगातार कोशिश कर रहे हैं।

1970 से बाद का मेरा समूचा लेखन, वह किसी भी विधा में हो, औपनिवेशिक मानसिकता, असमानता और अन्याय के सभी रूपों के विरुद्ध रहा है। मैं कभी कभी कह और लिख बैठता था, “लिखना मेरे लिए (वेचिरिक) युद्ध है। I write to fight. और अब 90 के साल मे प्रवेश के साथ कहता किसी से नहीं, बचपन से छिप कर रोने का अभ्यास जो किया है, रोना किसी को दिखाई नहीं देता। लिखने से अपने को रोक नहीं पाता पर मन में सोचता हूँ, मैं सूखी आँखों से रोने के लिए लिखता हूँ – I write to weep without tears!

हम अपने समाज से कट चुके है। हमारी आवाज हमारे समाज तक नहीं पहुँच पाती, समाज की आवाज हम सुन नहीं पाते। दुनिया का कोई समाज अपने विरुद्ध खड़ा नहीं होता। इसका दूसरा नाम आत्महत्या है। हम आत्महत्या के लिए कृतसंकल्प समाज के वाचाल प्रवक्ता हैं जिनकी लिखावट आत्महत्या के बाद खोली और पढ़ी जाएगी।