Post – 2017-11-30

.यदि सोच न पाते हों तो पत्थर जुटाइए।

मैं जब पश्चिमी जगत के भारत विषयक ज्ञान पर पलने वाले, पश्चिम के अधिकारी माने जाने वाले विद्वानों के निर्देशन में शोधकार्य करने पर, पश्चिमी विश्वविद्यालयों में अध्यापन के लिए आमंत्रित किए जाने पर गर्व करने वाले इतिहास या भाषाशास्त्र के विद्वानों के मानसिक वधियाकरण की बात करता हूं तो इस कारण कि इनका इस्तेमाल किया जाता है, विद्वान के रूप में इनका सम्मान नहीं किया जाता। इनको अपने विषय का अधिकारी नहीं माना जाता।

न मानने का कारण यह है कि इनका सारा ज्ञान उन्हीं की लिखी पुस्तकों, उन्हीं के किए गए अनुवादों पर निर्भर करता है और इन्होंने उनकी स्थापनाओं से तनिक भी हटने का साहस नहीं दिखाया।

अब एक रोचक सवाल खड़ा होता है कि जब इनके पास अपना कुछ देने को है ही नहीं तो इन्हें इतने धूम धाम से बुलाया क्यों जाता है? अंग्रेजी का जो रोब भारत में पड़ जाता वह भी वहां तो पड़ने से रहा।

क्या कायाअपनी छाया से पूछेगी कि बता मैं क्या हूं? यह उसके भीतर का परिचय देना तो दूर, बाहर के रूप, रंग, आकार तक से अवगत नहीं करा सकती। रोशनी की दिशा, तीव्रता और दूरी के अनुसार छायाभिनय से उसका मनोरंजन अवश्य कर सकती है। इनके कारनामों से थोड़ा बहुत मनोरंजन करते भी होंगे, पर मनोरंजन के अधिक उन्नत और विविधतापूर्ण साधन उन्हें उपलब्ध हैं इसलिए इसके पीछे अधिक गहरे कारण तलाशने होंगे।

इसे एक वाक्य में रखना हो तो इनको वे भारतीय समाज को नियन्त्रित करने का सबसे उपयोगी माध्यम मानते हैं और इनका ठीक उसी तरह ध्यान रखते हैं जैसे हम अपने उपयोगी पोष्य या पालतू प्राणियों का रखते हैं और जरूरत और हैसियत के अनुसार सजाते, दुलारते, नाथते, बांधते और प्रतिरोध को कम करने के लिए जरूरत होने पर बधियाकरण भी करते हैं।

उपमा, वह भी बहुमान्य, अंतर्राष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त और प्रतापी विद्वानों की ऐसी जो उन्हें सुलझे विचार के निरक्षर या नाममात्र के साक्षर लोगों से भी गया बीता सिद्ध करती हो, यदि प्रमाणित न की जा सके सके तो अभद्रता है। गाली है। यही बात समस्त पाश्चात्य विद्वानों, समस्त पाश्चात्य देशों, समस्त पाश्चात्य विश्वविद्यालयों के ऊपर यह आरोप कि वे किसी कुटिल योजना से जुड़े हैं, निराधार हो तो उससे भी अधिक गर्हित है। गाली के विषय में मेरा दृढ़ मत है कि यह यदि निराधार हो तो लौट कर गाली देने वाले को ही मिलती है, पुराने ज़माने के बैरंग (बीअरिंग) डाक की तरह। आसमान में कीचड़ उछालने के मुहाविरे की तरह। यदि मैं अपनी टिप्पणियों को साधार न सिद्ध कर सकूं तो, अधिक प्रबुद्ध होते हुए मैने यह धृष्टता कैसे की, इसके लिए मेरा संगसार हो तो मंजूर है. पर यदि प्रमाण दूं और आप उनका खंडन न कर सकें तो, आप को शर्मशार तो होना ही चाहिए।

समस्या के कई आसंग हैं। सभी पर आज बात हो नहीं सकती। पर

यदि सोच न पाते हों तो पत्थर जुटाइए।
यह जंग सिर के और सिरफिरों के बीच है।।