Post – 2017-11-25

सवाल टेढ़े हों, टबरे हों या कि औंधे हों
हर एक सवाल का हल है उसे सीधा करना।

अब जैसा कि कहा था हम उन सवालों के जवाब तलाशेंगे जिन्हें कल उठाया था। सबसे पहले वे जिनके उत्तर में हमने ‘हां’ कहने से पहले सोचने की जरूरत नहीं समझी थी।

१. क्या यह सच नही है कि भारत पर आक्रमण होते रहे हैं और विजेता इस पर शासन करते रहे हैं?

उ. सच यह है आक्रमणों से बचने के लिए चीन को दीवार बनानी पड़ी, परंतु प्रकृति ने भारत को पर्वतीय दीवार दे रखी थी इसलिए दुनिया के किसी अन्य देश की तुलना में इसे सबसे कम आक्रमण झेलने पड़े। दूसरे किसी देश की तुलना में यह अधिक सफलता से आक्रमणकारियों का मुंहतोड़ जवाब देते हुए उनके आक्रमणों को विफल करता रहा, जो त्रसदस्यु, शकारि विक्रमादित्य, चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य, हर्षवर्धन की किर्ति से समझा जा सकता है।

इसके बाद भी केवल दारा को पराजित करके उसके साम्राज्य पर अधिकार करने के कारण महान बना दिया जाने वाले सिकन्दर को भारतीय सीमान्त के एक छोटे से राजा के साथ मुठभेड़ में ग्रीक सेना के मनोबल को इस तरह तोड़ दिया कि वह भाग खड़ा हुआ और भागते समय भी गणसंघों (मल्लों,क्षुद्रकों, कठों) के हाथों इस तरह पिट कर घायल होना पड़ा कि उनके कारण उसकी जान चली गई। भारतीय जलवायु के कारण न तो हम आ न जीवट ।

फिर भी कुषाण, शक, हूण(तोरमान), अरब (मुहम्मद बिन कासिम), महमूद गजनवी और मुहम्मद गोरी को सन्दग्ध परिस्थतियों मे भारत के किन्ही हिस्सों पर विजय मिली, इससे इनकार नहीं किया जा सकता।

२. क्या यह सच नहीं है कि विजेता सैनिक और सहायक यहाँ बस जाते रहे है?
उ. सच है कि वे बसते रहे पर उनकी संख्या नगण्य थी। भारतीयता का चरित्र उससे प्रभावित नहीं हुआ।

३. क्या भारत की सांस्कृतिक बहुलता में उनकी भूमिका नहीं रही है?
उ. भारत की सांस्कृतिक बहुलता और समावेशिता उनसे प्रभावित नहीं हुई। इसके दो कारण हैं। पहला यह कि मुस्लिम आक्रान्ताओं से पहले के सभी आक्रान्ता प्रयत्नपूर्वक अपनी योग्यता के अनुसार भारतीय वर्णसमाज में मिल गए, इससे उन वर्णों की संख्या में नगण्य वृद्धि तो हुई, उनका अपना सांस्कृतिक योगदान कोई नहीं है। रंचमात्र का योगदान यूनानियों का सिद्ध करने का प्रयत्न तो किया गया पर इसकी परीक्षा होनी चाहिए कि फलित ज्योतिष उनकी ही देन है। नाटक के क्षेत्र में परदे के प्रयोग को यवनिका नाम के कारण यूनानी प्रभाव माना जाता था, पर यूनानी नाटक खुले में खेले जाते थे। उनमें परदे का प्रयोग नहीं होता था। भारत में परदे का चलन पहले से था। इसे तिरस्करणी कहा जाता था। अत: इस नाम के प्रयोग से ऐसा अनुमान किया जा सकता है कि संभवत: बटुए का कौशल यूनानी था और उसकी नकल पर तिरस्करणी को जो ऊपर से नीचे गिराई जाती थी परदे को एक किनारे से खोलने और बन्द करने के लिए किया जाने लगा और इसके लिए प्रेरणा के आधार पर भेदक संज्ञा यवनिका का प्रयोग आरंभ हुआ।

तुर्कों के साथ एक पृथक् संस्कृति का और एक नई प्रौद्योगिकी का प्रवेश हुआ। इसे हम भारतीय भाषाओं मे दस-पांच शब्दों – तोप, तमगा, बारूद आदि – तक सीमित पाते है।

भारत में तीन सौ से अधिक भाषाएं बोली जाती हैं। उनके बीच पारस्परिक लेन देन के रहस्यमय सूत्र काम करते रहे हैं जिसके कारण इतनी भाषाओं के रहते हुए भी इमेनो को यह एक भाषाई क्षेत्र लगा था। क्या इन भाषाओं में से किसी को इन आक्रान्ताओं की भाषा माना जा सकताहै? नहीं न!
यह मात्र एक कसौटी है, सभी कसौटियों से एक ही बात सिद्ध होगी कि जिस विविधता में एकता के अंगांगी भाव की हम बात कर रहे हैं वह बहुत पुरानी है। उसी में आक्रान्ता कभी सुर मिलाते समायोजित होते गए कभी बेसुरा राग अलापते उस कोरस में विघ्न डालते रहे। बहुलता मे एकता के समूहगान में अलग राग अलापते हुए उसे भंग करने वालों की इस एकप्राणता में कोई भूमिका नहीं।

४. क्या यह संभव नही कि सुदूर अतीत में इसी तह आर्यों ने आक्रमण करके भारत में प्रवेश किया हो और भारत पर अधिकार करके स्थानीय जनों को दास बना लिया हो और अपने सेवा कार्य में लगा लिया हो?

उ. इतिहास और न्यायविचार कयास से नहीं चलता। उलटबासियों से भरी इस कपोल कल्पना का खंडन हो चुका है ।

५. क्या यह संभव नहीं कि जो काम आर्यों ने द्रविड़ भाषियों के साथ किया, वही काम उनसे पहले उसी मध्येसिया से आए द्रविड़ों ने पहले बसे मुंडा जनों के साथ किया हो और उन्होंने स्वयं आक्रमण करके अपने से पहले के निगरों या निग्रोवत जनों के साथ किया हो?

उ. नहीं। ऐसा सोचना मानसिक विचलन है। जिसकी बुनियाद ही न हो, पहली मंजिल धराशायी हो उस पर ऊपर की मंजिलें बन नहीं सकतीं। फिर भी इसका कोई समाधान होना चाहिए कि उस क्षेत्र में तथाकथित आर्य, द्रविड़ और मुंडा के तत्व कैसे पहुंचे। हमने इसका विवेचन पहले किया है, उसे दुहराना उचित नहीं, पर यह याद दिलाना जरूरी है कि यह वैदिक समाज के पशु व्यापार से जुड़ी समस्या है।

६. जब तुम इतने प्रतिभाशाली हो कि इन तर्कों को समझ सको तो तुम्हे उचित सम्मान, पद , स्वीकृति तो मिलनी ही चाहिए सो यह रही, अब बताओ जिसे तुम संभावना मानते हो वह संभावना है या सत्य?

उ. जिसको वे प्रस्ताव सही लगते थे वह प्रतिंभाशाली और सूचनासंपन्न तो था पर उसने अपने दिमाग से काम ही नहीं लिया। उसके मस्तिष्क के उस कोने में जिसमें नीर-क्षीर विवेक के तंतुजाल होते हैं लाभ-लोभ तंतुजाल छा गए थे अन्यथा वह यह तो सोचता कि सुझाए मूल निवास में विकसित जन आरंभ से ही दीख रहे हैं फिर वे भारत में आदिम अवस्था में कैसे पहुंच गए?

७. तो जो सच है उससे अपने लोगों को परिचित तो कराओ.

उ. इसका परिणाम यह कि:
फरेब में पड़े रहे।
फरेब बांटते रहे।
पहन के कागजों का ताज,
तलवे चाटते रहे ।

८. अब बताओ क्या यह सच नही है कि भारत की प्रकृति कृपालु रही है. यहाँ अल्प प्रयास से जीवन निर्वाह संभव था,जब कि जहां प्रकृति अधिक क्रूर रही है इसलिए वहां जीवट और कौशल को बढ़ावा मिला ।
9. यह अर्धसत्य है। सभ्यता और आविष्कार का आर्थिक आधार होता है। प्रकृति अनुदार हो तो जीवनयापन की समस्या ही प्रधान हो जाती है। तकनीकी कौशल यहीं तक सीमित रहता है। लूटपाट की प्रवृत्ति और अधिक से अधिक जोड़ने की हवस प्रबल होती है। संपन्नता से वह चुंबकीय क्षेत्र तैयार होता है जिससे लाभान्वित होने के लिए प्रतिभा और अपनी कलाएं और कौशल लेकर और सेवा भाव से लोग स्वतः पहुंचते हैं और उनको नियंत्रित करने के और उनका सही मूल्यांकन करने के लिए उसे स्वयं शौर्य, निपुणता और जरूरी संस्थाओं का विकास करना होता है। देवों, आर्यों की सबसे बड़ी शक्ति थी उनकी कृषिकर्म में अग्रता। भारत में विश्व का सबसे विशाल और सबसे उर्वर कृषिक्षेत्र था जिसमें दो और तीन तक फसलें उगाई जा सकती थीं। इस समृद्धि ने उन्नत व्यापार को जन्म दिया था। जो इस नियम को नहीं समझता वह न भारत की समाज व्यवस्था को समझ सकता है न मानव इतिहास को।