Post – 2017-11-22

बात तो आज भी अधूरी है
हम अपनी शाम को कल सुबह करके देखेंगे।।

पिछले हफ्ते किसी मित्र ने, किसी सन्दर्भ में, रामचंद्र गुहा के एक भाषण का लिंक भेज दिया था। इस विषय पर विचार करने की जरूरत उस भाषण से ही पैदा हुई। मैं उनके नाम से परिचित था, उनका कुछ पढ़ा या उनको सुना न था। उस भाषण में उन्होंने चार पांच बार दुहराया कि वह अपनी बात एक इतिहासकार के रूप में रख रहे है। दूसरे लोग उनसे अलग राय भी रख सकते है। इतिहासकार के रूप में वह भारतीय सांस्कृतिक बहुलता का जो चित्रण कर रहे थे उसमें हमलावर आर्यो की निर्णायक भूमिका थी। पहले इस देश में यहां के आदिवासी रहते थे, फिर आर्य आये और इस पर कब्जा करके आदिम जनों को गुलाम बना लिया फिर इसी तरह दूसरे आक्रमणकारी आते रहे, जीतते, कब्जा करते और गुलाम बनाते रहे और भारत की भाषाई, नृतात्विक, सांस्कृतिक और सामाजिक बहुलता पैदा हो गई।

मैने उनके कथन को कुछ इकहरे ढंग से पेश किया, इसलिए उनके प्रति अनजाने कुछ अन्याय भी हो सकता है। लिक को तलाश न पाया, कि यहां दे सकूं। मुझे हैरानी दो बातों से हो रही थी। एक तो वह जानते थे कि वह झूठ बोल रहे थे। इसे छिपाने के लिए कि अधीति की सभी शाखाओं (साहित्य, पुरातत्व, नृतत्व, भाषाविज्ञान, जीनिवशलेषण) से आर्य-अनार्य की गप्प का खंडन हो चुका है वह एक ओर तो अपने फेफड़ों की ताकत का कुछ अधिक इस्तेमाल कर रहे थे और आपत्तियों को यह कह कर टाल रहे थे कि दूसरे लोग उनसे असहमत हो सकते हैं।

दूसरी बात कि अपने कथन को विश्वसनीय बनाने के लिए वह बार बार दुहरा रहे थे कि वह इतिहासकार हैं। होते तो कहने की जरूरत न होती, बार बार दुहराने की जरूरत कतई न होती। हम अक्सर मान लेते हैं कि इतिहास पढानेवाला इतिहासकार होता है, दर्शन पढ़ाने वाला दार्शनिक होता है। कुशल है कि हम कविता पढ़नेवाले को कवि और साहित्य पढ़ानेवाले को साहित्यकार नहीं मानते और यह समझ हमें अध्यापक या शास्त्रविद और मनीषी के अंतर को समझने में मददगार हो सकती है। इतिहासकार होने के लिए इतिहास पढ़ाना जरूरी नहीं, इतिहास की समझ जरूरी है। उनकी समझ की बुनियादी गड़बड़ी यह है कि यह एक अभियान है। इसमें किसी विषय के ज्ञान की जरूरत ही नहीं, बल्कि ज्ञान संकट पैदा करता है, इसलिय सोच विचार कर आंकड़ों के साथ घालमेल किया जाता है। यदि यह सीमा अकेले गुहा की होती तो उनको सतही सोच वाला जोगाड़ी व्यक्ति मान लेता जिसने भारत से लेकर अमेरिका और यूरोप के इतने देशों में इतिहास और इससे मिलते जुलते विषयों का अध्यापन किया है। परन्तु यह अभियान दो शताब्दियों से चल रहा है और समय बीतने के साथ इसके साथ जुड़नेवाली लामियों का विस्तार हुआ है। इसका भंडाफोड़ होने के साथ अभियान में तेजी आती रही हे। इससे पहले केवल केवल उपनिवेशवादियों और गेरी जाति के श्रेष्ठताबोध के हित जुड़े थे जिसे, जैसा कि अंबेडकर ने जोर दे कर कहा था, अपने लिए एक अवसर समझ कर अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त ब्राह्मणों ने अपना लिया था। मध्यवर्ग, या बुड बुद्धिजीवी वर्ग, भारतीय अमलावर्ग तीनो का मतलब पाश्चात्य शिक्षाप्राप्त ब्राह्मण रहा है, इसलिए जिनकी जिम्मेदारी थी कि वे इसकी जाँच पड़ताल करते उनके हित औपनिवेशिक और पाश्चात्य वर्चस्व से जुड़े रहे। भाषा के द्रविडवादी बिलगाव के समर्थन में भी पहले दाक्षिणात्य ब्राह्मण ही सामने आये थे। ईरानी और अरबी श्रेष्ठताबोध के चलते मुस्लिम और धार्मिक कारणों से ईसाई इससे हितबद्ध थे ही। इस तरह भारतीय बुद्धिजीवी और अमलावर्ग केवल आर्य आक्रमण का ही समर्थक न बना रहा, यह भारतीय भाषाओं के उत्थान और अंग्रेजी के वहिष्कार का भी विरोधी रहा क्योंकि इससे उसके हितों पर चोट पहुंचती थी। हाल के दिनों में जो सबसे रोचक परिवर्तन हुआ है वह यह कि अम्बेडकर की सोच को उलटकर दलित भी इसे अपने लिए अवसर मानने लगे है और ईसाई लॉबी को बहुत बड़े पैमाने पर आर्थिक और नैतिक समर्थन मिलने लगा है इसलिए इसकी प्रचारशक्ति बहुत आतंककारी है। इसे प्रतिष्ठा प्रदान करने का काम कम्युनिस्ट आन्दोलन ने किया जिसके चरित्र का विवेचन हमने पहले कई दृष्टियों से किया है। इससे जुड़ते ही अवसरों के अनंत द्वार खुल जाते है, इसलिए साहित्य, शिक्षा, ज्ञान, प्रशासन सर्वत्र इसका बोल बाला रहा है और आज भी है।

मैं मार्क्सवादी हूं। कम्युनिस्ट कभी न रहा, पर कम्युनिस्टों की कार्यशैली से असहमति के बाद भी उनकी सोच और इरादे को लेकर मेरे मन में पहले कोई सन्देह नहीं पैदा हुआ था। पहली बार जिस प्रश्न का सामना मुझे कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय के इतिहास, पुरातत्व विभाग के अध्यक्ष और विचारों से कम्युनिस्ट मित्र से अपनी पुस्तक पर निजी चर्चा के क्रम में यह सुनने को मिला, “इससे किसका लाभ होगा?”

मैंने कहा, मैं लाभ हानि की चिता करते हुए न अध्ययन करता हूँ न शोध. उन्होंने फिर समझाया कि इससे दखिंपंथियों को लाभ होगा। मैंने कहा यदि सच की चिंता उन्हें ही है, यदि मार्क्सवाद झूठ पर पलता है तो मैं मार्क्सवादी नहीं हूँ।” यह दूसरी बात है कि मैं तब भी मानता था और आज भी मानता हूँ कि मार्क्सवाद मिथ्याचारी दर्शन नही है मिथ्याचार भारतीया कम्युनिस्ट आन्दोलन में आगया और यह इसकी बुनियाद में है जिसके कारण यह प्राचीन भारतीय इतिहास, सस्कृति को हिंदुत्व से जोड़ लेता है, लीगी मानसिकता के कारण इसे डरावने, घिनौने या विचित्र पर निरीह लगने वाले जीवों को लकड़ी या छड़ी से छेड़ने और उद्विग्न करने वाले बच्चे की तरह उलटना, पलटना और बदलने के नाम पर मिटाना चाहता है इसलिए इसकी भूमिका ईसाइयत को भी रास आती है और इसे भी ईसाइयत का या इस्लाम का दबंग चरित्र पसंद आता है।

अब हम इसकी जांच अकादमिक या ज्ञानशास्त्रीय आधार पर करते हुए यह समझना चाहेगे भारतीय इतिहास, संस्कृति और सामाजिक संरचना को समझने में यह दृष्टि कहां तक सहायक या बाधक होती है।

1. आक्रमणवादी बहुलता विघटनकारी है। एकता के साथ जो सौमनस्य जुड़ा है उसका इसमें अभाव है जब कि यूनिटी इन डाइवर्सिटी जो भारतीय एकता की पहचान है उसमें विविधता के बावजूद एकसूत्रता या एकप्राणता है, जिसे आक्रमणवादी बहुलता से नष्ट किया गया है। इसमें भिन्नता पृथकता का द्योतक बन जाती है और समावेशिता का लोप हो जाता है, अत: यह खतरनाक साजिश का हिस्सा है और इकबाल के कारवांवादी सोच से भी अधिक गर्हित है, क्योंकि कारवांवादी बहुलता में आक्रमणों की नृशंसता पर परदा डालते हुए एक कामचलाऊ सौहार्द कायम करने का प्रयास तो था, यद्यपि खतरे उसके भी थे।
जो बात सिद्धान्त निरूपण से समझ नहीं आती उसे दृष्टान्तों और परिणतियों से समझा जा सकता है। विविधता के बावजूद भारत की एकात्मता से सबसे अधिक घबराहट ब्रितानी हुक्मरानों को थी। उन्होंने द्रविड़ आर्य के माध्यम से उत्तर दक्षिण को बांटने का, तमिल बनाम सिंहली, तमिल बनाम मलयाली तिकड़म से दक्षिण को और हिन्दू-मुसलिम, जनजाति-हिन्दू, ब्राह्मण -अब्राह्मण, सवर्ण-असवर्ण आदि की तरकीबों से भिन्नता को टकराव में बदलने का प्रयत्न किया पर हिन्दू-मुस्लिम टकराव से आगे टकराव तो पैदा कर ही न सके, बिखराव न पैदा कर सके और पूरा देश उनके विरुद्ध महाकाय देव की तरह खड़ा होता रहा और यही कारण है कि उन्हें भारत को स्वतंत्र करना पड़ा। हम केवल यह निवेदन करना चाहते हैं कि जिस स्तर का आंतरिक टकराव पैदा करने में वे विफल रहे थे, उनके अधूरे काम को मार्क्सवादियों और समाजवादियों और औपनिवेशिक मानसिकता के उत्तराधिकारियों ने पूरा कर दिया भारत तेरे टुकड़े होंगे के साथ सुर मिलाने वालों की गिनती कराने की जरूरत नहीं।

२. यदि इस विखंडनवादी सोच के पीछे कोई महान उद्देश्य छिपा हो जिसे मैंन समझ पारहा हूं तो वे अपना अभियान जारी रख सकते हैं। जिन्हें उस फिल्मी गाने की सचाई तक का पता नहीं कि “क्या से क्या हो गए बेवफा तेरे प्यार में”, उन्हें कोई यह भी नहीं समझा सकता कि जब तुम विखंडन के हिमायती हो तो तुम्हें भारत की बहुलता में अंतर्निहित समावेशिता परबोलने से बचना चाहिए। यह आरोप लगाने से बचना चाहिए कि भारत की एकता को हिंदुओं और हिंदुत्ववादियों से खतरा है। इसका विशेषाधिकार केवल मुझे है और यही मेरे जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि है कि मैं कह सकूं कि यदि लीग की मानसिकता को अपनानेके कारण भारतीय कम्युनिस्ट मेरी नजरों से उतर जाते हैं तो उसी कार्ययोजना को उल्टे सिरे से लागू करने वाले जनसंघी मेरी नजर में ऊपर नहीं उठ सकते। भाजपा अकेली है जो देश और समाज को खंडित चेतना और विघटनवादी प्रवृत्तियों से बाहर लाना चाहती है।