इस्सर पइठे दलिद्दर निकले
आज भी यह नहीं बता सकता कि उन दिनों स्त्रियाँ सामान्य मनुष्य होती थीं या सिद्धि के गौरव से वंचित साधिकाएं। उनको भूख पर नियंत्रण था, प्यास पर नियंत्रण था, थकान पर नियंत्रण था, नींद पर नियंत्रण था, सपनों पर नियंत्रण था। तालिका लंबी है, परन्तु यदि वंचित किये जाने को अकुंठ भाव से स्वीकार करके उससे समायोजित हो जाने को साधना कहें तो अधिकार से वंचित और कर्त्तव्य के लिए बाध्य और शेष जन साधक ही रहे है। इनमें राजरानियों से लेकर नौकरानियां, अपने ही अनुशासित बच्चे तक अाते थे।
यहां मैं सामाजिक न्याय पर विचार नहीं कर रहा हूँ और करता होता तो केवल भारतीय समाज को कोसना तो कत्तई नहीं चाहता क्योंकि दुनिया में यह सर्वत्र रहा है और भारत की तुलना में अधिक असहय रहा है।
मैं आपका ध्यान इस विचित्र और शाश्वत सचाई की ओर आकर्षित करना चाहता हूँ कि पुरुषों ने इतिहास को नष्ट किया है, और स्त्रियों उसे बचाया है। सत्ता और महत्त्व के भूखे लोगों ने इतिहास को नष्ट और विकृत किया है और वंचितों ने रक्षणीय को संभालने और बचाने का काम किया है, उसके लिए त्याग और बलिदान किया है। वर्चश्व के किए आतुर बुद्धिजीवियों उसे नष्ट और दूषित किया है और किसी अन्य युग की तुलना में आज अधिक उत्साह से यही कर रहे हैं, और वाचिक परंपरा के संरक्षकों ने संजोना और बचाने का काम किया है। मैं अपने शैशव के अनुभवों का अनुस्मरण करते हुए बाद की या अतीत की घटनाओं के हस्ताक्षेप से बचना चाहता हूँ परन्तु भौतिक जगत में चीजें जितनी अलग और एक दूसरे से दूर. यहाँ तर्क कि विरोधी होती हैं, स्मृति और स्वप्न, यहाँ तक कि दिवास्वप्न में भी पृथकता और दूरियां समाप्त हो जाती है और एक नया आलोक पैदा होता है जिसे तत्वज्ञान कहा जा सकता है. यदि ऐसा न होता तो ब्राह्मणों ने वेद को नष्ट करके उसे पुरुष सूक्त तक सीमित न कर दिया होता, और चारणों ने वेद की ख़ोज, पुराणेों की खोज, पुराने नीतिविधानो की खोज न की होती जिन्हें ब्राहमणों ने कभी अपनी बराबरी का दर्जा नही दिया. सोचिये क्या उन्होंने भार्गवों को, भांटो को अपनी बराबरी का दर्जा दिया?
यह समझ मुझमें इससे पहले न थी। दीपावली अमावस्या को होती है। इसके दीप वाले जगमग पक्ष पर ही हमारा ध्यान जाता है, दूसरे पक्ष ओझल रह जाते हैं। मैं नहीं जानता दूसरे अंचलों में क्या चलन था पर हमारे यहां दीपावली की धूमधाम के होते हुए भी भोजन सादा होता और सब्जी के नाम पर ओल (जिमीकंद / सूरन) का चोखा (भर्ता)। संभवतः यह उस आदिम आहारसंग्रही चरण के अभाव के उन दिनों की याद से जुड़ा था जब फल फूल और बेरियों का अभाव हो जाता था और जीवन यापन का एकमात्र सहारा कंद रह जाता था। अतः दीपावली के दो पक्ष हैं, प्रकाश अर्थात् अंधकार से मुक्ति, समृद्धि का प्रवेश अर्थात् अभाव और दारिद्र्य से मुक्ति। यदि एक का दैवीकरण लक्ष्मी में तो दूसरे का दानवीकरण भी होना ही था। लक्ष्मी के प्रवेश के बाद भी दारिद्र्य किसी कोने अँतरे में दुबका रह सकता है। उसे घर से भगाने का काम गृहलक्ष्मी को ही करना था।
पांच साल की उम्र तक मैं माई के साथ ही सोता था इसलिए इस का पहला अनुभव हैरान करने वाला था। पूजा आरती, प्रसाद, दिया जलाने खाना बनाने, खिलाने पिलाने के बाद देर रात गए सोने के बाद रात ढलते ही अंधरे में तड़ातड बजते सूप की आवाज से चौंक कर उठा जो एक कमरे से दूसरे कमरे मे एक एक कोने से ‘इस्सर पइठें दलिद्दर निकले’ बोलते दरिद्रता को हर कोने अंतरे से भगाते घर के बाहर तक उसका पीछा करने की आवाज अब पूरे वातावरण में गूंज रही थी, क्योंकि दलिद्दर के पिशाच को सभी घरों से भगाया जा रहा था। इसे दलिद्दर भगाना कहते थे।
लगता है इस ख़ास मामले में सूप ही दरिद्रता का प्रतीक माना जाता है क्योंकि वह अपने में रखे अनाज को फटक कर, डगरा कर या हिलोर कर बाहर कर दिया करता है। अपने पास कुछ जोड बटोर कर रखता नहीं।
पिटाई हंसिये से, गला काटना न हुआ पीटना ही हुआ। घर में औरतों के निकास का दरवाजा पीछे की ओर था और उसी ओर कुछ दूरी पर घूरा भी था। काफी दूर तक चहेंटने के बाद जर्जर दरिद्र राम अर्थात् सूप को घूरे पर या बस्ती के बाहर फेंक दिया जाता लिए वापस लौटने और उस हंसिया को जनाना निकास की ड्योढ़ी में डाल दिया गया था कुछ ऐसी धुंधली याद है और यदि यह सही है तो इसका कारण संभवतः यह रहा हो कि खून सने हथियार को शुद्ध करने के बाद ही घर में लाया जा सकता था।
ये सारे लटके तो खेती के आरंभ होने के बाद की हैं फिर भी संभव है दीपमालिका से अधिक पुराना हो।
ऋग्वेद में दीपक और दीपावली या लक्ष्मी पूजा के विषय में एक भी ऋचा नहीं है। दीपक का भी हवाला नहीं। अभाव और सूखे से लड़ने और उसका वध करने की कहानियों से पूरा ऋग्वेद भरा है।
केवल एक स्थल पर सोम की कृपा से धनिकों जैसा सुख पाने की कामना के सन्दर्भ में संदीपन का प्रयोग हुआ है ः
अग्निं न मा मथितं सं दिदीपः प्र चक्षय कृणुहि वस्यसो नः ।
अथा हि ते मद आ सोम मन्ये रेवाँइव प्र चरा पुष्टिमच्छ ।। 8.48.6
पर दीपक जलाने से इसे खींच तान कर भी नही जोड़ा जा सकता। परन्तु शिरिंबिष्ट भरद्वाज के एक सूक्त का विषय (देवता) ही अलक्ष्मीनाशनम् अर्थात दरिद्रता का विनाश है जिसमें इसे दूर किसी दूसरे देश – समुद्र या पर्वत के पार – भगाने का उल्लेख है
अरायि काणे विकटे गिरिं गच्छ सदान्वे।
शिरिंबिष्टस्य सत्वभि: ते चातयामसि ।।
चत्तो इतश्चत्तामुत: सर्वा भ्रूणानि आरुषी ।
अराय्यं ब्रह्मणस्पते तीक्ष्णशृंगो दृशन्निहि । २
अदो यद्दारु प्लवते सिन्धो: पारे अपूरुषम् ।
तदारभस्व दुर्हणो तेन गच्छ परस्तरम् ।१०.१५५.१-३
रोचक बात यह कि इसमें इसे एक कुरूप, कंजूस दानवी के रूप में कल्पित किया गया है जो ऐश्वर्य की देवी लक्ष्मी के विलोम के रूप में कल्पित माना जा सकता है।