इस्सर पइठें दरिद्दर निकले
(ऐश्वर्य अर्थात् समृद्धि का प्रवेश हो, दारिद्र्य इस्सर पइठें दरिद्दर निकले
(ऐश्वर्य अर्थात् समृद्धि का प्रवेश हो, दारिद्र्य दूर हो)
भूमिका
लक्ष्मी के प्रवेश के अगले ही दिन नई फसल की तैयारी और वह भी बैलों के भरपूर सम्मान और तुष्टि के साथ। इसकी स्मृतियों को टांकने से पहले, एक व्यतिक्रम दीपावली पर।
इसे राम की लंका विजय से वापसी से जोड़ करर देखने वाले पुरोहित और उनको प्रमाण मान कर आज की राजनीति करने वाले, इस बात को नहीं समझ सकते कि दीपावली में राम की कथा की एक खरोंच तक नहीं है। पर वैदिक विद्वान होने का दावा करने वाले और हमारे गौरंगप्रेमी और हीनाताग्रंथि से ग्रस्त भाजपाई साक्षरों के बीच समादृत अमेरिकी विद्वान ने दीवाली को वैदिक काल से जोड़ते हुए एक शेखचिल्लीपन दिखाया कि इसका सम्बन्ध चिताग्नि से है। समझदार माने जाने वालों की बौद्धिक दरिद्रता पर रोना आता है। इनमें अपने को आधुनिक और क्रान्तिकारी विचारों से लैस और इसी के कारण अकड़ी गर्दन के स्वामी मेरे मित्र जन तो आतो ही हैं, इतिहास और संस्कृति रक्षा के लिए आतुर और रीतियों और विश्वासों का फूहड़ आधुनिकीकरण करने वाले दक्षिणपंथी सोच की जमात दोनों से जुड़े लोग आते हैं। पहले वाले मिटाना या हटाना चाहते है। उनके अनमोल बोल के नमूनेः
1. छोड़ो इन बातों में क्या रखा है।
2. ये ब्राह्मणों के चोंचले ढकोसले हैं।
3. इनसे दिमागी पिछड़ापन पैदा होता है। वैज्ञानिक सोच में बाधा पैदा होती है।
4. सीधी बात रीति रिवाजों का इतना बोझ लेकर कोई समाज आधुनिक युग में आगे बढ़ा नहीं जा सकता।
ये दिमागी खोखलेपन के प्रमाण हैं और यदि ऐसे लोगों से कोई पूछे, इनसे मुक्त होकर आप ने कितनी प्रगति की है? जन दौरों में आत्मनिषेध और सांस्कृतिक निषेध की प्रवृत्ति नहीं थी, हमारे अपेक्षाकृत महान वैज्ञानिक, चिंतक, साहित्यकाऱ, फिल्मकार, समाजसुधारक, राजनेता, शिक्षाविद, यहां तक कि सामाजिक कुरीतियों के उन्मूलन के लिए आंदोलनकारी उसी दौर में क्यों पैदा हुए और जब से तुम्हारा आत्मनिषेधवादी गरम दिमाग हावी हुआ सभी क्षेत्रों में विश्वविजय को आतुर जोगाड़ी छुटभैये ही क्यों पैदा हुए? तुम्हारे तर्कवादी तक क्यों तर्क करना नहीं जानते, कटूक्तियों, दुरुक्तियों, गालियों या सीधी कार्रवाई (डाइरेक्ट ऐक्शन) को तर्क मान लेते हैं और जब अति कर देते हैं तो सीधी कार्रवाई के शिकार उस समाज में हो जाते हैं जिसकी पिछड़ी अवस्थाओं में किसी भी जाति के अकेले सुधारकों ने अपनी खरी आलोचना के बल पर आंदोलन खड़े किए हैं और अपने अनुयायियों ही नहीं विरोधियों के बीच भी समादृत होते रहे हैं? तो राजनीति चमकाना तो चाहेंगे, पर जवाब देते न बनेगा।
जवाब यह है कि वे पीढ़ियां अपनी जड़ों से जुड़ी थीं, उनमें आत्मबल था, इसलिए अपनी व्याधियों और विकृतियों की पहचान भी थी और उनसे लड़ने की क्षमता भी थी। तुम छिन्नमूल हो और मंत्रकीलित हो कर दंश मार रहे हो, जिनको मूलोच्चिन्न करने के प्रयत्न में लगे हो उनमे समझ नहीं पैदा कर पाते पर आक्रोश जानबूझ कर पैदा करते हो और परिणाम उल्टे आने पर कारणों की पहचान तक नहीं कर पाते फिर भी तर्कवादी हो।
जो भी हो इनकी लाख कोशिशों के बाद भी परिणाम उतने घातक नहीं रहे, क्योंकि वे हटाना, मिटाना या तोड़ना चाहते थे, विकृत करना नहीं।
इतिहास और संस्कृति के प्रति अंध अनुराग और अधकचरी समझ के कारण जिस तरह का महिमामंडन हो रहा है वह वामपंथियों द्वारा पहुंचाई गई क्षति से अधिक भयावह है।
यदि दक्षिणपंथियों से कोई पूछे कि तुम्हारी उक्तियों और कारगुजारियों से सांस्कृतिक उत्थान की जगह सांकृतिक हुडदंग क्यों पैदा हो रहा है और नित नए अनमोल बोल सुनाने को क्यों मिल रहे हैं जिन पर हनसने चलो तो भी रोना आता है और रोना चाहो तो हसी आती है (हँसी आती है अपने रोने पर और रोना है जग हँसाई का) तो जवाब इनसे भी देचते न बनेगा।
इतिहास की जितनी खोखली समझ हिंदुत्व के प्रति मूर्खतापूर्ण अनुराग में देखने को मिल रहा है वह वामपंथी नासमझी के सभी कीर्तिमानों को तोड़ गया है।
वामपंथी नासमझी का एक नमूना यह था कि शूद्र आपका इतिहास क्यों पढ़ें? यह तो सवर्णों का इतिहास है।
भले मानसों में से किसी ने नहीं समझाया कि सवर्णों का इतिहास यदि कागद पर कलम से लिखा गया है तो तुम्हारा इतिहास पत्थर की लकीरों से लिखा गया है। यदि मान भी लें कि सारी पोथियां सवर्णों का कीर्तिगान है तो समूची प्रौद्योगिकी तुम्हारी उंगलियों की देन और तुम्हारा प्रशास्तिलेख है। सारा पुरातत्व तुम्हारी महिमा की खोज ह। ऐसे तो थे हमारे आंख के अंधे पर मार्गदर्शक बनचने को आतुर वाममार्गी बुद्धिजीवी.।
परन्तु जब कोई कहे हुमायूं का मकबरा, अकबर का मकबरा, ताजमहल, लालकिला तो आक्रमणकारी और हिंदूद्रोही मुसलमानों के स्मारक है, हम इन पर गर्व नहीं कर सकते, तो उसे यह तो समझना चाहिए कि कलाकारों को धन और सरक्षण तो सदा ऐसे लोगों ने दिया है जिन्होंने अन्याय और अत्याचार से धन कमाया था पर कलाकृतियाँ तो उनकी नहीं है। धनदाता मुसलमान थे तो शिल्पकार हिन्दू, वे सभी हमारी कृतियाँ है। हिन्दू मुस्लिम में बांटने के बाद भी ये वास्तुकृतियाँ हमारी साझी विरासत है। ब्रिटिश मूर्तियों की बात अलग थी. शिल्प भी उनका था और शिल्पकार भी वे थे और उनका होना उनकी धाक और धौंस का सूचक था, जिन्हें हटा देना ही सही उपाय था।
भूमिका कुछ लंबी हो गई पर यह इस बात को समझने के लिए जरूरी थी कि पुरातत्व की ओर हमारी दृष्टि हाल में में अंग्रेजों की उस पड़ताल के कारण गई जिसमें वे यहां की प्राकृतिक जैव व वानस्पतिक संपदा, भूगर्भीय संपदा और खनिज भंडारों के साथ गड़े हुए खजानों का पता लगाना और उसे लूटना चाहते थे, पर जल्दी ही ये सभी वैज्ञानिक शाखाओं का रूप लेते चले गए। इसी तरह अपने शासन को अचल बनाने और प्रशासन को अधिक प्रभावकारी बनाने के लिए हमारी भाषाओं, सामािजक बुनावट, सांस्कृतिक भिन्नताओं, नृतात्विक संरचना को समझने और इन सभी के माध्यम से हीनताग्रन्थि, अलगाव और विद्वेष फैलाने तथा हमारे पुराणों पर आधारित परंपराबोध को इतिहास के नाम पर सर्जित अपने पुराणों को लादने के द्वारा किया। उनकी चाल को समझने वालों ने भी अपने आलस्य, कल्पनाहीनता और प्रलोभनों के कारण उन्हीं के मतों और मान्यताओं पर भरोसा करके अपनी मुश्किल आसान की। सांस्कृतिक मामले में वामपंथी दूसरों द्वारा उगलदान की तरह इस्तेमाल किए जाते रहे, इसलिए वे इतिहास, पुरातत्व और नृतत्व की अपनी साख तक बचाने की दिशा में सक्रिय नहीं हुए।
परन्तु जो लोग उनकी इस कमी को अपने उत्साह, अतिपाठ, अतिरंजना से नया पाठ तैयार कर रहे या करना चाहते हैं वे भी अपनी संस्कृति और इतिहास को नष्ट ही कर रहे हैं। दो तरह की विनाशकारी गतिविधियों में किसी एक को इसलिए सही नहीं माना जा सकता कि वह एक गलत चीज के विरोध में कही या लिखी गई है।