आलोकपर्व
एक चार साल का बच्चा क्या, किस तरह के और कितना काम कर सकता है? मुझे क्या करना पड़ता था, यह बिल्कुल याद नहीं, पर यह याद है कि माई अक्सर कहती, ईहै खैकवा केहू दुसरे के दे के कमवा करा ले आ तुहें माहुर दे के मारि डारै त अच्छा, अर्थात् जो खाना तुम्हें काम करने के लिए खिलाती हूँ वही खाना किसी दूसरे को दे कर काम करा लिया जाय और तुम्हें ज़हर देकर मार डाला जाय तो ही अच्छा (ऐसे प्रसंग पीड़क है परन्तु मैं इस उम्र में आपकी करुणा का भूखा तो नहीं हो सकता। प्रथम दृष्टि में नितांत तुच्छ और उपेक्षणीय प्रतीत होने वाले इन अनुभवों का अनुस्मरण मै अपने चेतन और अवचेतन की निर्माण-प्रक्रिया को, मानवीय, सामाजिक और राजनीतिक प्रश्नों पर अपने निजी दृष्टिकोण को स्वयं समझने के लिए कर रहा हूँ जो यदि पूरा जमाना एक ओर हो जाय पर मुझे गलत लगे तो भी, मुख्यधारा और तुच्छधारा की चिन्ता किए बिना अपने मत पर दूब जैसी विनम्रता के साथ अडिग रहता हूं। संभवतः इसका कारण यह है कि जो दूसरों के लिए पुस्तकीय ज्ञान या बौद्धिक विमर्श होता है जिसमें अपनी प्रतिभा और स्मृति के बल पर वे प्रत्येक अवसर के अनुरूप सही घटकों का चुनाव करते हैं वहां मेरे लिए एक खोज जो कभी पुरी नही होती पर अपने अधूरेपन में भी पुस्तकीय ज्ञान से अधिक समृद्ध होती है )।
माई के ऐसे वचन एकांत में सुनने को मिलते, दूसरों की श्रव्यसीमा भगवानजी कह कर पुकारती और स्वर में शहद की मिठास होती। अपमानित अनुभव करता था। दो कारणों थे। एक तो यह कि अपने ही घर में माई की नजर में मेरी हैसियत एक नौकर से अधिक न थी और मेरे जीवन की कोई कीमत न थी। दूसरे मैं अपनी पीड़ा किसी से बांट नहीं सकता था। उदारता या क्षमाशीलता के कारण नहीं, इस कटु सत्य के कारण कि दीदी और भैया को वह मारने चलती तो वे भागकर बच सकते थे, और ऊपर से बाबा से फटकार भी लगवा सकते थे जब कि मैं पकड़ में आ जाता था और मेरे कान उमेठते समय वह स्वयं भी भूल जाती थी कि कितने के बाद उमेठन कान के पर्दों पर बन आती है और जिस कान को स्पर्श तक नहीं किया गया पीड़ा की तरंगें उसे भी झंकृत करने लगती हैं।
जो लोग बचपन में दुलार भरे हाथों से कान उमेठ कर गालों पर पड़ी हल्की चपत से आगे के मरोड और दबाव से परिचित नहीं हैं उनके उपकार के लिए पांच साल बाद दीदी के विवाह के अवसर का एक दृश्यचित्र।
विवाह हमारी हैसियत को देखते अधिक समृद्ध परिवार में हआ था, ससुर जी रींवा रियासत में किसी प्रभावशाली पद पर थे इसलिए हाथियों घोड़ों की संख्या मेरे गांव के लिए अदृष्टपूर्व थी पर उनमें एक मदमस्त हाथी था। मद बहता हुआ और उस पर मक्खियां भिनभिनाती हुई, उसके चारों पावों को लोहे के कंटीले पट्टों से घेर कर चार जंजीरों के सहारे चार खूंटों से बांधकर रखा गया था फिर भी वह झूम रहा था। चलते समय उसे काबू में करने के लिए दो ऊंट थे। बताया गया कि यदि वह कोई उल्टी सीधी हरकत करे तो ऊंट उसके कान पकड़ सकते थे इसलिए वह उनकी उपस्थिति से ही सीधा बना रहता था। यदि बिगड़े हाथी को कान पकड़ने की दहशत में रख काबू मे रखा जा सकता है तो उससे आगे की उमेठने की पीड़ा के आतंक को आसानी से समझा जा सकता है। मैं माई के पीठपीछे भी उसकी शिकायत नहीं कर सकता था।
मुझे मरने का भय नहीं था। मुझमें मरने का साहस भी नही था। मरने के साथ एक क्षीण, असंभव और संभव के बीच की झिलमिलाहट थी कि तब मैं मां के पास पहुंच सकता हूं। मेरे लिए वह अनश्वर थी, जहां कहीं भी थी सदेह थी. मेरी यातना के क्षणों में अश्रु विगलित होकर मुझे निहारती, मेरे पास पहुंचने को छटपटाती फिर भी एक अलंघ्य दूरी और अभेद्य दीवार के कारण वहां से हिलने में असमर्थ। परलोक को मैं इसी रूप में कल्पित कर पाता। इससे मृत्यु के प्रति कोई आकर्षण तो पैदा नहीं होता, पर मृत्यु का भय कम हो जाता । तड़पती मां की कल्पना से मेरी तड़प बढ़ जाती परंतु इससे एक ऐसी आत्मिक तुष्टि मिलती थी जिसे सही नाम दे पाने की योग्यता मुझमें आज भी नहीं है। इसने कष्ट को एक ऐसी रंगत दे दी कि मेरी जिंदगी का लंबा हिस्सा, जवानी तक का, कष्ट में बीता पर मै दुखी कभी न रहा, अभाव ने दैन्य का रूप कभी न लिया – न अंतर्मन में न बाह्य आचरण मे।
मरने का भय इसलिए भी न था कि युह जानता था कि यह झुंझलाहट है। तब इतना ज्ञानी तो न था कि यह सोच सकूं कि इसमें क्रोध से अधिक अपनी आंतरिक व्यग्रता भी मिली हुई थी, कि वह मुझे कोसती हुई अपनी भौतिक स्थिति से भी ल़ड़ रही थी और महाप्रकृति से भी पर आज उसके चरित्र को अधिक तटस्थता से समझ सकता हूँ.।
एक नई बहू जिसे ऊंची आवाज में बोलने, खुलकर हंसने, यहां तक कि दुनिया को यह अटल सत्य भी सर्वविदित करने की भी छूट न थी कि उसे भी भूख और प्यास लगती है, थकान लगती है, नींद आती है। यहाँ तक कि उसे दर्द होता है या उसका जी अच्छा नहीं है यह कहने तक का अधिकार तक नहीं था। हाउस अरेस्ट को सजा कहा जाता है। अक्सर यह दंड किसी विद्रोही को दिया जाता है। हमारी अपनी ही लड़कियां जो विवाह से पहले हंसती, खेलती, गाती, चहकती, लड़ती, जिद करती थीं विवाह के साथ ही बिना किसी अपराध के गृहबन्दिनी ही नहीं, सश्रम गृहबन्दिनी बना दी जातीं, जिनके हंसने, बोलने, सोने तक के अधिकार सीमित ही नहीं कर दिए जाते, अपितु इस यातना को कुलगौरव के रूप में स्वीकृति देकर मूल्यपरंपरा का हिस्सा बनाकर इसपर गर्व करना भी सिखा दिया जाता या इसकी मांग की जाती।
बाहरी दुनिया से, अर्थात् अपने ही घर के बाहरी ओसारे-गोसवारे तक से सूचना-संचार तक के लिए उसे बच्चों पर ही निर्भर रहना था। दीदी और भैया ने विद्रोही तेवर अपना लिया था। काकी हमारे अलंग में सीधे हस्तक्षेप नहीं कर सकती थी पर भैया और दीदी को फुसला-भड़का कर उसके लिए समस्यायें खड़ी करती रहतीं। काम में हाथ बंटाने वाला कोई नही। ले देकर मैं जो होकर भी किसी काम का नहीं। कोई ऐसा नहीं जिससे अपना दुख बता सके, अपनी घुटन बयान कर सके। उत्पीड़ित तो वह भी थी। एक ही अनुभव प्रक्रिया के कितने भिन्न और विरोधी आसंग होते हैं – दृश्य के भीतर कितने रंगों की कितनी अदृश्य परतें । कितना सतही होता है हमारा ज्ञान।
किसी भी स्रोत से लब्ध ज्ञान अनुभव के स्पर्श से आलोक में बदलता है, अन्यथा सूचना बहुल फुलझड़ी बन कर चमत्कार पैदा करके रह जाता है और किसी समस्या को समझने या उनके समाधान मे सहायक नहीं होता, उल्टे नई समस्याएं पैदा करता और पुरानी समस्याओं को असाध्य बनाता है।