Post – 2017-10-18

खुराफात दर्शन

लोग देश लिए समस्याएं पैदा करते रहते हैं और सोचते हैं, यह देशहित का श्रेष्ठ रूप है। संदेह करने वालों को समझाते हैं, “समस्याएं ही न रहीं तो समाधान की चुनौती कैसे पैदा होगी? और समस्या-समाधान की प्रवृत्ति न रही तो चेतना का वैज्ञानिक विकास कैसे होगा?”

देशहित के इस रूप से परिचित होने के बाद मन में अपनी देदशहित-विमुखता पर इतनी ग्लानि हुई कि प्रायश्चित करने के लिए मैं राह चलतों को टांग अड़ाकर रोक देता और यह मंत्र रटाने के बाद ही अगला डग रखने देता।

सच्चे मन से किया प्रयत्न व्यर्थ नहीं जाता। मेरी भी न गया। एक दिन टांग गुरु घंटाल को जा अड़ी। जब मैने उन्हें मंत्र दिया ‘देशहित के लिए समस्याएं खड़ी किया करें! उन्होंने पलट कर ऐसा दन्नाटा तमाचा जड़ा कि मेरे दांत हिल गए। मैंने हैरानी से देखा और गुस्से में सवाल दागा, “मैं देश के भले की बात कर रहा था। देश के भले में आपका भी भला है, फिर आपने अपने ही हितैषी को चांटा क्यों मारा?”

“चांटा इसलिए मारा कि तुम अधूरा पाठ पढ़ा रहे थे।”

“पूरा पाठ यह है कि इसके लिए खुराफातियों की तलाश करो । वे दिशाहीन और असंगठित हैं, साधनहीन हैं। वे देश-विदेश जहां भी मिलें, उन्हें संगठित करो। उनके साथ एकजुटता दिखाओ। यदि पर्याप्त संख्या में न मिलें तो खुराफाती चेतना का निर्माण करो। दुनिया में कभी कोई समाज या व्यक्ति न हुआ जिसे किसी न किसी तरह का असन्तोष न रहा हो। अपने को संतोषी कहने वाले अपनी आकांक्षाओं का दमन करने वाले मनोरोगी होते हैं। सही शिक्षा से उनके असंतोष को विस्फोटक बनाया जा सकता है। जो असंतुष्ट हैं उनके असंतोष को इस तरह भड़काया जा सकता है कि वे उसे जीने मरने का प्रश्न बना ले। विज्ञापन कला से व्यर्थ को सार्थक और सार्थक को व्यर्थ बनाने की कला सीखो। सीखो कि एक घूंट जहरीले जकनी की तड़प में जान की बाजी लगाने की कला विकसिी की जा सकती है। समझो कि यह कितना सनसनी भरा कारोबार है और इसका कितना बड़ा बाजार है।”

मैं श्रद्धाजड़ित भाव से उन्हें सुन रहा था फिर भी जानें कैसे मुंह ‘अरे’ निकल गया। वह रुक गए। प्रश्न-विस्फारित मुख ही प्रश्न बन गया और मैं इतना घबरा गया कि यह तक भूल गया कि मेरे मुंह से कोई शब्द फूटा भी था।

मुझे सकपकाया देख कर वह आश्वस्त हो गए, “तुम्हें इतने क्रांतिकारी विचार से पहले पाला नहीं पड़ा था इसलिए तुम हैरान हो रहे थे। तुम्तुहें यह तक पता नहीे कि सत्ता से वंचित सभी दलों को केवल तुम्हारा भरोसो है और हमें उनकी साधन संपन्नता पर उससे दूना भरोसा है। तुम्हारा सौभाग्य है कि तुम्हें सच्चा गुरु मिल गया। मैने तुम्हें थप्पड़ मारा, यदि तुमने बदले में एक का चार जड़ दिया होता तो मान गया होता कि तुम क्रांतद्रष्टा हो चुके हो। अपने गाल सहलाने की जगह तुम्हारे हाथ चूम लेता कि एक से दो हो गए, तुमने सवाल किया, इसलिए सोचा अधकचरा है, इसलिए तुम्हें क्रान्ति का दर्शन समझाता हूँ।

“इसका पहला सिद्धान्त है कि क्रान्ति रिवोल्यूशन नहीं है। क्रान्ति का अर्थ है एक सीमा रेखा को पार करके दूसरी में पहुंच जाना। इसमें प्रगति तो हो सकती है, विनाश नहीं। रिवोल्यूशन में चक्कर देने, जो ऊपर था उसे नीचे कर देने या तख्ता पलट कर वहीं का वहीं रह जाने का भाव है। दो भाषाओं या दो संस्कृतियों में एक ही काम एक ही तरह से नहीं हो सकता। भारत में क्रांति हो सकती है और प्रतिक्रांति हो सकती है, आगे बढ़ा जा सकता है, अपनी जगह पर टांग गड़ाए खड़ा भी रहा जा सकता है, यहां तक कि युगों तक एक टांग पर खड़ा भी रहा जा सकता है और पूरी शान से युगों पीछे लौटा भी जा सकता है पर जहां हो वहीं उलट-पलट, तोड़ फोड़ नहीं किया जा सकता। सबको साथ ले कर आगे बढा जा सकता है पर कुछ को बचाने के लिए बाकी का संहार नहीं किया जा सकता। यह भारतीय मानस के अनुकूल नहीं है। कोई करे तो पसन्द नहीं किया जाएगा।

“दूसरी बात यह कि रिवोल्यूशन की मानसिकता से क्रान्ति करें तो दोनों के योग से खुराफात पैदा होगा। यह यहां लंबे अरसे से छोटे से लेकर बड़े पैमाने पर होता आया है, यह हम कर सकते हैं, यही करते रहे हैं।

“तीसरी बात यह कि जैसे क्रान्ति का दर्शन होता है, उसी तरह खुराफात का अपना दर्शन होता है। इसके अनुसार कोई काम करो, वह गलत नहीं हो सकता क्योंकि अपनी समझ से कोई गलत काम नहीं करता। एक का सही और दूसरे का गलत होना इस बात पर निर्भर करता हैं कि आप किसी क्रिया को कहां से या किसकी नजर से देख रहे हैं।

“चौथी बात अपने देशवासियों द्वारा किया जाने वाला कोई काम यदि करने वाले के हित में है तो देश हित में भी है, क्योंकि देश अपने नागरिकों से अलग नहीं होता। इसलिए किसी काम को गलत ठहराया ही नहीं जा सकता। अपराध तक गलत नहीं होता, वह तात्विक दृष्टि से भिन्न नैनिकता और आदर्श पर व्यापक हित में किया गया काम होता है, जिसे समझने के लिए एक भिन्न शिक्षा प्रणाली की जरूरत है। इसके लिए पूरी शिक्षा प्रणाली में क्रान्तिकारी परिवर्तन की आवश्यकता है। हमें इसके लिए प्रयत्न करना है। हमारे पास किसी भी विषय के निष्णात विद्वान नहीं है, उसकी जरूरत ही नहीं है। हमें वह पश्चिम से मिल रहा है तो उस पर व्यर्थ समय बर्वाद क्यों करेें। विद्यानुराग मनुष्य को कूप मंडूक बना देता है इसलिए शिक्षातंत्र को खुराफात तंत्र में बदल कर ही हम देश हित कर सकते हैं। हमें कूपमंडूकेों की जमात की जगह झपट्टामार बाजों की जमात पैदा करनी है, इस मरियल समाज को शुद्ध करने के लिए शवभक्षी गिद्धों की जमातें तैयार करना है। यह बड़ा काम है।”

मैं इतना अभिभूत हो गया कि मैंने उसके पांव पकड़ लिए पर इतने जोर की ठोकर लगी कि उलट कर गिर गया। उसकी गरजती आवाज सुन पड़ी, “पांव ठोकर लगाने के लिए बने हैं, पकड़ने के लिए नहीं।”