रोहिंग्या समस्या
मैं इस विषय पर लिखने से बचना चाहता था इसलिए प्रसंगवश कहा था कि रोहिंग्या समस्या को सर्वोच्च न्यायालय में नहीं ले जाना था, इससे इसके कूटनीतिक हल में बाधा पड़ती है। यह कथन कुछ लोगों को जिन कारणों से पसन्द आया होगा, उन्हीं कारणों से कुछ दूसरे लोगों को निष्ठुरता का प्रमाण लगा होगा। अब माननीय न्यायाललय ने इसे मानवीयता के आधार पर विचारार्थ स्वीकार कर लिया है, अत: इस समस्या पर कुछ विचारणीय बिन्दुओं की ओर ध्यान दिलाना जरूरी समझता हूं, भले इससे न्यायविचार में मदद न ली जाए।
१. हमारा देश अतिथि परायण रहा है। ‘अतिथिदेवो भव’ हमारे प्रेरक सिद्धान्तसूत्रों में से एक रहा है। स्वयं भूखा रहते भूखे अतिथि के लिए करस्थ थाल छोड़ने वाले की यशोगाथा युग- युगांतर तक गाई जाती रही है। ऐसी स्थिति में पहली बार जब एक स्मृति में पढ़ा कि सैनिक या चिकित्सक यदि अतिथि बन कर शरण चाहे तो उसे शरण नहीं देना चाहिए तो बहुत आघात लगा। सैनिक जो हमारी रक्षा के लिए अपने प्राण देने को तत्पर रहता है, उसे हम एक रात की शरण नहीं दे सकते? चिकित्सक जो व्याधियों से हमारे प्राण बचाता है, उसे रात को शरण नहीं दे सकते? कुछ समय लगा यह समझने में कि सैनिक उग्र स्वभाव का होता है, रक्तपात कर सकता है, इसलिए उस पर भरोसा नहीं किया जा सकता। चिकित्सक बेहोशी पैदा करने वाले, प्राण लेनेवाले द्रव्यों आदि से परिचित होता है, उसे घर में ठहराना प्राण संकट में डालने जैसा है। अब समझ में आया कि उक्षुधार्त रन्तिदेव एक प्रेरणादायक चरित्र हैं, यह नीति विधान व्यावहारिक परिपक्वता का सिद्धान्त है। तर्क किया जा सकता है, जो आज कल कुछ लोग बढ़ चढ़ कर देते हैं, कि यह जरूरी तो नहीं कि सभी सैनिक या चिकित्सक इतने कृतघ्न् हों कि अपने आश्रयदाता का अनिष्ट करे। बेचारा रात में निराश्रय कहां भटकता फिरेगा। यह तो संवेदनहीनता का मामला है। नीतिकार का लक्ष्य जीरो रिस्क का है। वैज्ञानिक है, वैसा ही जैसा संक्रामक स्थितियों में क्वैरैंटाइन आदि में होता है।
२. संवेदनशीलता एक मानवीय गुण है, अतिसंवेदन या हाइपर सेंसिटिविटी एक व्याधि । अपने को जोखिम में डाल कर ज्ञात रूप में किसीसन्दिग्ध पृष्ठभूमि के व्यक्ति या व्यक्तियों को दूसरे विकल्पों के रहते अपने ऊपर लाद लेना अतिसंवेदनशीलता, व्याधि जिसके पीछे गर्हित सचाइया भी हो सकती हैं।
३. संवेदनशीलता पर बात करने से पहले हमने ‘सन्दिग्ध पृष्ठभूमि के व्यक्ति या व्यक्तियों’ कह कर जो आरोप लगा दिया उसे स्पष्ट करना जरूरी है। यायावर जातियां स्थाई और एक परिचित परिधि में जीने वालों की अपेक्षा अधिक गैरजिम्मेदार, आपराधिक मनोवृत्ति का और हिंसाप्रेमी माना जाता रहा है। इसके नमूने मध्येशिया से लेकर इस देश तक ही नहीं सारी दुनिया में पाए जाते हैं। रोहिंग्या की समस्या यह है कि उन्हें अपनी जन्मभूमि में ही नागरिकता और जीवन निर्वाह के साधनों सुविधाओं से वंचित रखा गया, जिसके कारण उन्हें हिंसा और अपराध की गतिविधयों में लिप्त रहना पड़ा। भूमि से उखड़े हुओं का सेंस आफ बिलांगिंग मजहबी एकजुटता और कट्टरता से पूरा होता है इसलिए धार्मिक कट्टरता उनमें भारत के कट्टर मुसलमानों से अधिक दिखाई देती है। इसके चलते नागरिक भेदभाव के उन जैसे ही शिकार हिन्दुओं को भी आसान निशाना समझ कर। उन पर उससे अधिक अत्याचार किया जितना म्यामार के बौद्धों पर। जरूरत थी कि अपने ही समान भेद भाव के शिकार हिन्दुओं के साथ वे नागरिक अधिकारों के लिए शान्तिपूर्ण तरीके से संघर्ष करते और विश्वमंच का भी उपयोग करते, पर जैसा खिलाफत के चलते भारत में हुआ था उन्होंने हिन्दुओं का भी संहार किया और बौद्धों पर भी, और उनका हिंसक दमन और संहार उसी का परिणाम था जिससे बचने के लिए उन्हें पलायन करने का रास्ता चुनना पड़ा।
४. भेदभाव सदा से रहा है पर लगता है आई एस की गतिविधियां तेज होने और उससे संपर्क बढ़ने के बाद रोहिंग्यों की आक्रामकता बढ़ी थी इसलिए उनकी विश्वसनीयता घटती है ।
५. वोट बैंक की राजनीति के कारण कांग्रेस प्रशासन ने बांग्लादेश और रोहिंग्या घुसपैठ को बढ़ावा दिया और इसका कारगर समाधान प्रशासनिक दृढ़ता और कूटनीतिक दक्षता से निकालना जरूरी है और मानवीय संवेदना के नाम पर जनसंख्या विस्फोट के शिकार देश को घुसपैठ का खुला अखाड़ा बना देना, राष्ट्र की संप्रभुता और आंतरिक शान्ति और व्यवस्था के साथ खिलवाड़। मानवीयता का यह प्रश्न तब बनता जब सरकार उनका वैसा ही उत्पीड़न आरंभ करती जैसा उनके साथ हुआ, वह केवल उनका समयबद्ध तरीके से उन देशों को वापस लौटाने के लिए शिनाख्त कर रहा था अत: यह मानवता के तकाजे से एक काल्पनिक मामला है। इसे विचार के लिए स्वीकार करना भी कूटनीतिक पहल को कमजोर करता है। कूटनीतिक पहल में म्यामार पर दबाव डालना और उसे इनकी सुरक्षा की गारंटी लेना पहला कदम था। यदि मुकदमे से म्यामार को लगे कि उसके कठोर रुख अपनाने से इनके भारत में रुके रहने की संभावना है तो हमारे कूटनीतिक प्रयत्न विफल होंगे या कमजोर पड़ेंगे।
६. जो भी हो हमारी और दसरे देशों की कूटनीतिक सक्रियता से म्यामार के रुख में बदलाव आया है और उसे तात्कालिक रूप में इनको वापस लेने और दूरगामी पहल से म्यामार में पैदा होने के कारण जन्मना नागरिक का दर्जा देने, नागर सुविधाएं बढ़ाने, और आर्थिक गतिविधयों में उनकी भागीदारी बढ़ाने के लिए अन्तर्राष्ट्रीय दबाव पैदा किया जा सकता हैं क्योंकि यह म्यामार के भी दूरगामी हित में है।
७. जहां तक संविधान, सिविल और आपराधिक संहिताओं और न्याय विचार की प्रक्रियाओं से संबन्धित निराकरण और व्यवस्था का प्रश्न है, छोटे से लेकर उच्चतम न्यायालय तक सभी इसके लिए अपनी अधकार सीमा में सक्षम हैं और उनके निर्णय हमें मान्य हैं, परन्तु मानवीय संवेदना का निर्णय अदालतें तय करने लगें तो मानना होगा संवेदना हृदय और मन में नहीं होती है काठ की कुर्सी में होती है और उसकी ऊंचाई के साथ संवेदना ऊंची और व्यापक होती चली जाती है।
ये थे मेरे विचार जो हो सकता कुछ दृष्टियों से कमजोर हों क्योंकि रोहिंग्या समस्या काे सतही सूचनाओं के आधार पर ही समझा है। इसका आधिकारिक ज्ञान नहीं है।
एक टिप्पणी का कट-पेस्ट 17.19.17 08.40 पर
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