स़च तो यह है मगर सच होने से क्या होता हे
वही होता है जो होकर भी नहीं होता है।।
सभी लोग दूसरों से कुछ अलग होते है। पहली नजर में एक जैसे लगने वाले परिवारों के सदस्यों को ध्यान से देखने पर वे दूसरों से काफी अलग और कुछ विचित्र लगते हैं। मेरे परिवार के साथ पाखंड का एक तत्व अलग से जुड़ गया था, इसलिए अनेक मामलों में यह दूसरों से अधिक विचित्र था। यह प्रेरक भी था और मारक भी, इसलिए इस विचित्रता पर हम गर्व करते थे। इसके कारण मेरी यातना कई गुना बढ़ गई थी। मेरे लिए मेरा घर अनाथालय से भी बुरा बन गया था और इसके बाद भी मैं इस पर बहुत बाद तक और, दूसरों से कुछ अधिक, गर्व करता था।
सामान्यतः दूसरे परिवारों में घरेलू कलह के कारण एक पुश्त के बाद बंटवारा हो जाता है। हमारा परिवार तीन पुश्तों से एक था और जब चूल्हे अलग हुए तो भी, खेती-बारी एक रही। पांच पुश्तों के बाद खेती भी बंट गई तब भी, आज सातवीं पुश्त चल रही और बाग-बगीचे बंटे नहीं हैं।
इसका शर्मनाक पक्ष यह कि जो लूटे सो खाए और सहयोग की गौरवपरंपरा की दुहाई देकर बंटवारे को असंभव बनाए और जो कमजोर या आलसी हो , वह दूसरे की नीयत की खोट और अपनी अकर्मण्यता को अपनी उदारता मान कर आत्मग्लानि से बचें और अपनों को समझाएं कि हम कितने उदार हैं और इस पर गर्व भी करने लगें और जिसकी खोट निकाल कर गर्व करें वह, उसे ही अपना चारित्रिक गुण मान कर उस पर गर्व करे, अपने को आश्वस्त करे और अपनों को उस पर गर्व करना सिखाए, परन्तु दूसरे को मूर्ख बनाने की सद्भावना गाथा की दुहाई देकर उसे मूर्ख बनाने की क्षमता पर भी गर्व करे और अपनों को गर्व करना सिखाए और इसकी एक अलग ‘गौरवशाली’ परम्परा कायम हो जाय।
अब एक का गर्हित दूसरे का गौरवशाली हो गया। कृपया यह न समझें कि मैं भारत का राजनैतिक इतिहास बखान रहा हूँ। सच मानें, मै अपने घर की, अपने भोगे हुए अनुभव की, और केवल अपनी, बात कर रहा हूं।
माँ जब तक जीवित थी परिवार बंटे होने पर भी, छोटी मोटी गलतियों पर आँख मूदने के बाद भी, न्याय की तुला काम कर रही थी। बाबा जब तक जीवित थे और खेती का काम पिता जी देख रहे थे और सहायक के रूप में अवध काका काम कर रहे थे, तक जिन्दा थी। हिसाब बराबर। क्योंकि जब पिताजी खेती की देखरेख कर रहे थे तब भी छोटे बाबा हर चीज की खोज खबर रखते थे और अपना समय छावनी पर ही बिताते थे। छोटे बाबा के जीवन काल में ही उनके सबसे बड़े पुत्र, रामचंद्र को सिपाही की नौकरी लग गई थी, इसलिए उनकी मृत्यु के बाद छोटे बाबा की संतानों में दूसरे अवध काका (अवधेश) उनके सहायक बन गए थे । इस तरह संतुलन बना रहा और ईमानदारी भी बनी रही। बाबा की मृत्यु के बाद पिता जी कुछ भौतिक कारणों से और कुछ आराम तलबा: हि देवाः के सिद्धांत से यह बहाना बना कर घर पर बैठ गए कि दरवाजे पर भी कोई होना चाहिए, और तराजू का दूसरा पलड़ा खाली हो गया और यहाँ से आरम्भ हुई वह चोरी और बेईमानी जिसे सहन करते हुए माई अपनी उदारता और उनकी कृपणता और तुच्छता के नमूने पेश करती हुई मेरी नजरों में भी महान होने का भ्रम पैदा करने लगी।