किसको दुश्मन कहें सगा किसको
मकान बड़ा था, परन्तु जितना बड़ा था उससे अधिक रहस्यमय लगता था। यह बिना किसी विभाजन रेखा के दो भागों में बंटा था। इन्हें हम अलंग कहते थे। इसका दृश्य भाग धुंधला और शेष डरावनी संभावनाओं वाले अंधकार और सन्नाटे से भरा लगता, जिसमें अकेले घुसने की न मुझे जरूरत पड़ सकती थी, न घुसने का साहस कर सकता था। इसका सबसे रहस्यमय और सबसे अंधेरा कोना था, दक्खिन-पच्छिम कोने की कोठरी जिसमें लगभग जीवन से निर्वासित की तरह बुटुका काकी रहती थीं। वह सबकी काकी थीं, बाबा की भी, सच कहें तो बाबा लोगों की ही। वह हमारे परदादा छत्तर बाबा के सबसे छोटे भाई नैपाल ठकुराई की पत्नी थीं जिनके एक बेटी तो हुई थी, बेटा कोई नहीं। वह होकर भी न होने जैसी जिन्दगी जी रही थीं। मेरी दादी की मौत कब हुई इसे न किसी ने बताया न पूछने का साहस हुआ। छोटी दादी की मौत मेरे जन्म के कुछ ही बाद हुआ होगा क्योंकि उनकी अन्तिम संतान, जगदीश काका थे जो मुझसे छह महीने ही बड़े थे और आगे की कक्षाओं में मेरे सहपाठी थे। जैसे बुटुका काकी सबकी काकी थीं वैसे ही जगदीश काका मेरे और अपने सभी सहपाठियों के काका बनने वाले थे।
उस तीस पैंतीस फुट लंबाई के बिना खिड़की-रोशनदान के सुरंग जैसे अंधेरे आठ कमरों वाले घर में दो महिलाओं का राज था। माई काकी से पद में बड़ी थी, इसलिए वह भैयाजी ’ब कह कर माई के गोड भी लगती थीं और अनुभव और उम्र में बड़ी थीं इसलिए माई को दबाकर रखने के तरीके भी निकालती रहती थी जिसमे उसे अपमानित करने के तरीके भी शामिल थे, परन्तु औपचारिक व्यवहार इतना सम्मानजनक कि शिकायत करने वाला जिससे शिकायत करे उसकी ही नज़र में गिर जाये।
भैया और दीदी को मां की याद थी और अपनी माँ का स्थान लेनेवाली स्त्री को स्वीकार करने को तैयार न थे। ऊपर से माई के व्यवहार में, प्रकृति प्रेरित, सपत्नघातिनी वाले तत्व तो थे ही, इसलिए उन्होंने विद्रोह सा कर दिया था। मेरी स्थिति दूसरी थी।
शिशुओं के चेतना जगत में असंभव और प्रतिलोम भी इतने विश्वसनीय रूप में घटित होते हैं कि बड़े होने पर हम उस अनुभव और उसके अतार्किक सत्य को, एक भिन्न भाषा में, अधिक विश्वास से, व्यक्त करने वाले तंत्र को समझ ही नहीं पाते और उसकी याद दिलाई जाय तो ठहाका भरने लगते हैं। हम स्वप्नतंत्र की अकाट्य प्रामाणिकता के पीछे काम करने वाले तर्कातीत दबाव को नहीं समझ सकते और यह तो समझ ही नहीं सकते कि मूर्खता के कितने आयाम और सत्य के साक्षात्कार के कितने अकल्पित द्वार होते हैं।
मै मानता था, और भैया और दीदी के समझाने के बाद भी मानता था कि माँ मरी नहीं है। मुझसे ओझल हो गई है। जीवन के साथ इसकी समाप्ति से अधिक क्रूरता की मैं कल्पना नही कर सकता था, इसलिए पहले ही साक्षात्कार में वह मेरा नाम आदि पूछती, उससे पहले ही मैंने स्वयं पूछा था, ‘तू कहाँ चलि गइल रहलू, हमसे कौनो भूल हो गइल रहल का?’
मैं कह चुका हूं, इस प्रश्न से वह विगलित हो गई थी और आगे कोई प्रश्न न कर सकी थी. उसने मेरा स्पर्श किया था, स्पर्श याद है, कहाँ, माथे पर या गाल पर या चिबुक पर या पीठ पर यह याद नहीं फिर भी यह याद रहा कि उसमें ममता थी, जो मेरे इस विश्वास को दृढ कर रहा था कि मेरी अपनी माँ ही लौट कर आई है. भैया या दीदी को भी मुझसे पहले इसी तरह अलग अलग बुलाया गया था. न कभी इस पर बात हुई, न यह जाना कि उनका अनुभव क्या था. मै प्रथम शक्ति परीक्षण में अपनी मैभा, विमाता, पर विजय पाकर, उसके मातृभाव को जगा कर लौटा था. भैया और दीदी युद्ध ठान कर लौटे थे।
मुझे कुछ समय लगा यह समझने में कि वह मेरी माँ है या कुछ और. वह कुछ और क्या होता है इसे समझने में भी उसने ही मदद की। वे इसे अपनी हथेली की रेखाओं से भी अच्छी तरह जानते थे। मुझे दो तटबंधों के बीच सही धारा का चुनाव करना था जिसमें जीवनयात्रा में व्यवधान दूर हो सकें, उन्हें अपने बचाव के लिए दूसरे को मिटाने के निर्णायक युद्ध में उतरना था। सभी सताए हुए थे और सभी अपने शत्रु को सताने का खेल खेल रहे थे और अपने उस विद्रोह के कारण दीदी और भैया काकी के हाथ लग गए थे और अपने व्यवहार से माई को उससे अधिक उत्पीडित कर रहे थे जितना वह उन्हें कर सकती थी।
अजीब स्थिति है। अत्याचारी पर अत्याचार हो रहा है। वह अपने अत्याचारियों के सामने निरुपाय है। वह उनका बदला उससे ले रहा है जो उससे अधिक निरुपाय है, उसी पर आश्रित है और उससे सहानुभूति रखता है। यह मैं था।