Post – 2017-09-26

बतंगड़

एक ऐसे दौर में जब समाचारपत्र विज्ञापन पत्र बन गए हैं, दृश्य माध्यम सनासनी पैदा करने के लिए जघन्यतम अपराध कर सकते हों ( तहलका के माध्यम से फर्नांडीज का जालसाजी पूर्वक चरित्र हनन, एक गरीब बच्चे को शराब पिला कर और ५० देकर मध्य प्रदेश की शिक्षामंत्री के पाँव पड़ने को तैयार करना और उसके ऐसा करने पर उनका पाँव झटकना और इसका विडिओ बनाना, दिल्ली की एक स्कूल की एक शिक्षिका के खिलाफ जघन्य आरोप लगाते हुए उसका जीवन नरक बना देना और फिर इनका राज खुलना, एक प्रसिद्ध चैनेल के द्वारा संवेदनशील सैनिक एअरपोर्ट की रेकी करना, एक अन्य का अपनी प्रचारर्शक्ति से अरविन्द केजरीवाल को भगत सिंह बनाने का आश्वासन देते हुए एंकर द्वारा उनके घुटनों को हाथ लगाना, अभी BHU प्रकरण में यह आरोप कि एक चैनेल अपने साथ गाड़ी में भर कर लड़कियों को ले गया और उनके बयान दर्ज किए, और वाचाल लड़कियों के एक दल का मुंह छिपाकर शिकायती बयान देना और उनके आधार पर कहानी बनाना – दृश्य माध्यमों के अपराधीकरण की बात करते हुए मेरी जहन में हैं) बुद्धिजीवियों का अपरिवर्तनीय दृढ़ता से किसी एक राजनीतिक समझ से जुडा रहना और आनन फानन कुछ भी करने को दौड़ पड़ना, विश्वसनीय सूचना और विचार के ऐसे गहराते संकट की और संकेत करता जिसमे पूरे समाज के अर्धविक्षिप्त होते जाने की संभावना प्रबल होती जा रही है.
ऐसे में फेसबुक का पूरी ईमानदारी से, अपनी सर्वोत्तम जानकारी के तथ्यो, प्रमाणों के साथ रखते हुए विचारों का आदान प्रदान करें तो स्वयं एक संचार और विचार मंच तैयार कर सकते हैं। बात करें, बतंगड़ से बचें। बात में तथ्य, तर्क, प्रमाण पेश करते हैं, उनके साथ छेड़छाड़ नहीं करते, निष्कर्ष उनसे निकलता है। बतंगड़ में आप अभियोग लगाते, नई या पुरानी गालियां देते हैं, भड़ांस निकालते हैं और बहुत सारी लफ्फाजी के बाद भी कुछ कह नही पाते।

आप के आग्रह और पूर्वाग्रह हो सकते हैं. वे लंबी छानबीन का बाद निश्चित किए हुए विचार होते हैं। सबके अपने होते हैं, वे तब दुराग्रह बन जाते है जब आप उनसे भिन्न विचारों, प्रमाणों को सुनने को तैयार नहीं होते।

सच है मैं मोदी को इतिहासपुरुष मानता हूं, आप को जब तक ऐसा न लगे, न मानें। बहस का विषय यह नहीं है। सहमत लोगों के बीच तो विचार की जरूरत ही नहीं।