मां का जाना (2)
हमारा घर आकार में बड़ा था। कभी इसमें तीन संयुक्त परिवार रहते थे। उनकी महिलाओं की चारपाइयां गर्मियों में आंगन में लग जाती थी। आंगन को घेर केर ओसारा और फिर कमरे जिनमें कही कोई खिड़की न थी। वे लंबाई में इतने बड़े थे कि दिन में भी अँधेरा रहता। घुसने पर सुरंग जैसे लगते। अग्नि कोण पर जो कमरा था उसके दरवाजे के सामने तिकोनी दीवार थी, जिसे कोनसिला कहते थे। इसके कारण इसके भीतर अँधेरा इतना गहरा होता कि दिन में भी चिराग लेकर घुसने की जरूरत हो।
रहस्यलोक जैसे इस अंधेरे कमरे में ही प्रसूति ज्वर से माँ की मृत्यु हुई थी। मैं उस कमरे में न जा सकता था, न किसी ने यह बताया था कि हुआ क्या है। मेरे परिवार में कोई दूसरी महिला न थी पर ऐसे अवसर पर पास पड़ोस की महिलाएं भी जुट जाती थी। रोना धोना मचा होगा जिसकी याद नहीं। घर में एक ऐसी भीड़ की याद बहुत सारी परछाइयों और आवाजो-फुसफुसाहटों के आपस में घुलकर अदृश्य और अश्र्य हो जाने की अविश्वसनीय सी याद है। उसे नहलाने, सजाने, के बाद बाहर लाया गया होगा और उस बीच मैं भी उसी में कहीं टकराता बचता डोलता रहा होऊंगा। यह भी मात्र संभावना के रूप में ही याद आता है। पहला ठोस चित्र तब का है जब वह बाहर आकाश की और शिर किये सोई पड़ी थी। मुझे याद आता है की पहली बार मुझे माँ पर गर्व अनुभव हो रहा था कि उसके कारण घर के भीतर और बाहर इतने सारे लोग एकत्र थे और इस गर्व में उसकी तारीफ़ में वे आपस में जो कुछ एक दूसरे से कह रहे थे उसकी भी भूमिका रही हो सकती है। यहाँ जो तस्वीर उभरती है उसमें कई तरह के घालमेल है। बाहर एकत्र भीड़ में बहुत से लोग बंगले के दासे और कुर्सी पर बैठे दिखाई देते है जो बंगला तब तक बना ही नही था। शायद इसमें छोटे बाबा के मरने के समय की भीड़ का दृश्य शामिल हो गया है, पर यह समझ में आने के बाद भी तस्वीर नहीं बदलती। एक दूसरी गड़बड़ी यह कि मां टिकठी नुमा किसी चीज पर सोई दिखाई देती है न कि उल्टी चारपाई पर और दूसरी और बढई दरवाजे से हट कर हरे बांस को काटछांट कर टिकठी बनाने में लगा दिखाई देता है।
मरना क्या होता है मुझे यह मालूम न था, जो कुछ समझ में आया था वह यह की यह एक गहरी नींद है जिससे कोई फिर नहीं जगता। मा को रंगीन साड़ी में सजाया गया था, दुल्हन की तरह। सुहागिन रहते मरने के सौभाग्य के कारण। मांग सिंदूर से इस तरह भरी थी कि काफी सिंदूर चेहरे पर बिखर गया था। आंखें बंद थीं। मुखाकृति फिर भी नही उभरती, पर वह अपरूप (सौंदर्य को भी लज्जित करने वाली सुंदरता से उत्फुल्ल) सुंदर लग रही थी। प्रसूति गृह में जाने से पहले मैं उसके साथ ही सोता रहा हूँगा। इस बीच कहा सोता था, यह याद नहीं। मै एक उससे निकट ओसारे का एक खंभिया अपनी बांहों में लपेटे अपलक उसे ही देख रहा था। यह बोध था कि अब मैं उसके पास कभी न सो पाऊँगा, इसलिए बीच बीच में हुड़क उठती कि जाकर उससे लिपट कर सो जाऊं, पर एक बोध था कि ऐसा करना गलत होगा। इस समझ के साथ इस आवेग को रोकना कितना व्यथित करता था इसकी याद नही, पर मैं अभी तक एक स्थगित वेदना में निर्वेद द्रष्टा बना जो हो रहा था उसे देख रहा था। पर जब माँ की अर्थी उठाई गई और दरवाजे पर एकत्र लोग उसके साथ उठ खड़े हुए तो एकाएक ऐसी व्यग्रता पैदा हुई जिसे विक्षिप्तता का दौरा कहा जाय तो गलत होगा। इस दृश्य में जो कुछ विस्मृत है उसका चित्र नहीं है, पर व्याख्या है। मै चीखता हुआ दौड़ा, ‘माई के संगे हमहूँ जाब’। और एक बुढ़िया ने मुझे पीछे से इतनी कठोरता से पकड़ लिया कि मैं अपनी पूरी ताकत लगा कर भी उसकी पकड़ से छोट न पाया। यह नोहर की मां थी।
पर इस चित्र में जिस खाम्भिया से चिपका था उससे दरवाजे की दूरी आज की समझ से तीन मीटर तो रही होगी। मै ठीक उसके सामने, अर्थात् जहां खड़ा था उससे उतना अलग पकड़ा गया। याद से काम नहीं चलता पर पुनर्विचार से स्थिति समझ में आ जाती है। जिस खंभिया को पकड़े खड़ा था उससे नीचे कुर्सी थी और उससे दो फुट नीचे धरातल। दरवाजे के सामने सीढ़ियां बनी थी। सीधे कूदने का साहस न हुआ, पर दवाजे के सामने की सीढ़ियों से एक बच्चा भी उतर कसकता था। उतरने के लिए मैं उस ओर दौड़ा होऊंगा जिससे पहले भी उतरता रहा होऊंगा।
हुआ जो भी हो, मैं उस क्षण में आवेश में था। कोई भी व्यथा असह्य न थी। मेरे लिए मां निष्प्राण न थी और जो यातना उसे भोगनी पड़ सकती थी, उसे सहने के लिए ही तैयार न था, इसी में जीवन की सार्थकता प्रतीत हो रही थी। यह पता नही था कि मा के साथ क्या किया जाएगा पर यह पता था कि जो कुछ भी किया जाएगा वह अप्रिय होगा। मैंने अपनी कल्पना से जाना कि वे उसे राप्ती नदी की और ले गए है इसलिए उसे पानी में डुबो देंगे। लकड़ी के गट्ठर लेकर जाने वालों को देखा था, परन्तु यह विश्वास न था, न ही किसी ने कहा था, कि उसे जला दिया जायेगा, पर यह पता होता तो मैं उसके साथ जल कर जलने की यंत्रणा भोगने को तैयार था। यह मैं आधी कल्पना और आधी स्मृति के सहारे कह रहा हूँ। भावावेगों के भी अपने स्मृतिबिम्ब हो सकते हैं, पर स्मृति बिम्ब में भी मिलावट हो सकती है, इसे हम देख चुके हैं।
मैं नहीं जानता कब, कितनी देर बाद, जब सबका ध्यान मेरी और से हटा तो, मैं चुपके से निकल पड़ा और उस रास्ते पर चलने लगा जिससे माँ की अर्थी लेकर लोग गए थे। यह मेरे जीवन की सबसे लम्बी यात्रा थी। अपने मकान के सामने की दूरी पार कर जमुना सिंह के दरवाजे को पार करना, शहजादा सिंह का मकान पार करना, चुन्नी धरिकार के सामने से गुजरते हुए रामदास बढई के मकान के पास पहुंचना बस्ती के छोर पर पहुंचना। एक फर्लांग से भी कम की इस दूरी को कितने श्रम से पार किया था यह इतिहास में दर्ज होना चाहिए, पर होगा नही। मुसीबत यह कि इसके आगे जमीन चार पांच फुट नीची थी। किसी जलधारा के कगार जैसी स्थिति। मैं कुछ नहीं कर सकता था सिवाय दूर दिगंत तक निहारने के। उस समय की बेकली की कोई याद नहीं, पर इस निश्चय की याद है कि वहीं बैठा, गए हुए लोगों के लौटने की प्रतीक्षा करूंगा। मै रो नही रहा था. सूनी आँखों से क्षितिज तक आँखें गडाए किसी लौटने वाले की तलाश कर रहा था।
पता नहीं कितने समय बाद किसी का ध्यान इस और गया कि मैं गायब हूँ। पता नहीं कितनी देर बाद मुझे तलाशती दीदी वहा पहुँचीं। तब तक जानेवालों में से कोई लौटा न था ।