कुहासे की चमक से भी नई तस्वीर बनती है
कुहासा घना हो तो सूरज दिखाई नहीं देता, पर कुहासे में एक सुनहली चमक आ जाती है। यह चमक दृश्य को धुंधली रंगीनी से भर देती है, पर यदि हवा का कोई झोंका आए और कुहासे की घनी पर्त उड़ जाय, सामने न होने जैसी पतली झिल्ली रह जाए तो दृश्य एकाएक इतना स्पष्ट हो जाता है कि लगता है आप उसका स्पर्श भी कर सकते हैं और फिर गहराते कुहासे में संशय उत्पन्न हो सकता है कि जो दीखा था उसके मानसबिंब का कितना अंश सच है और कितना काल्पनिक!
मेरे मुंडन का पूरा दृश्य चल चित्र की सी स्पष्टता से आंखों के सामने कई बार उपस्थित हुआ होगा, जांच कभी न की। ननिहाल से लौटने और तीसरा साल पूरा होने से पहले, गर्मियों की कोई सुबह थी। घर से निकलने से मुंडन के समय तक के दृश्य चित्र इतने स्पष्ट कि लगे कुछ भिऩ्न हो ही नहीं सकता और लिखते समय लगे सच तो कुछ और था।
मुंडन समै माई के थान पर होना था, जो घर से दो मिलोमीटर की दूरी पर था। वहां तक जाने के लिए बैलगाड़ी का रास्ता चार किलोमीटर का हो जाता था। यह पहले गांव के फाटक से आगे सड़क से जुड़ता था और फिर मंगल की बाज़ार और इतवार की बाज़ार से होते हुए गजपुर जाने वाले रास्ते पर चल कर समै माई के थान पहुंचता था जहा नीम के एक पेड़ के नीचे एक बड़ी बेदी थी, जिस पर, मिटटी के हाथी घोड़े देवी की सवारी के लिए थे, पर देवी की कोई प्रतिमा न थी। सम्मै माई के नाम ने मुझे बाद में खासी उलझन में रखा, कि ‘समय’ तो पुल्लिंग है, यह माई कैसे हो सकता है, पर ये बहुत बाद की बाते हैं।
माँ यूँ भी पैदल अधिक दूर तक चलने की स्थिति में न थी, परन्तु घर की दीवारों में बंद रहने के कारण हमारे घरों की महिलाओं के पाँव बंध जाते थे। यह पाँव बंधना उस समय की चीनी महिलाओं के पाँव बंधने जैसा तो नही था और घर के भीतर इधर से उधर उन्हें चलना भी काफी होता था, पर बाहर खूली राह पर डग भरते हुए लगता उनके पांव आपस में टकरा जायेंगे. झाड़ू-बर्तन से लेकर चूल्हे चौके, कूटने, पीसने, दलने, तक वे बहुत काम करती थी, जिसमे झपट कर कहीं पहुंचना भी शामिल था, पर सधी चाल से जैसे खेती बारी में हिस्सा लेने वाली ओरतें और पुरुष चलते उस तरह चलना अटपटा लगता था। वैसे बाहर निकलते ही हैसियत का भी ख्याल रहता था, इसलिए उन्हें कहीं जाना होता तो ओहार लगी बैलगाड़ी सजाई जाती जो ठीक निकास के सामने खडी होती और वे उसमे दाखिल हो जातीं।
घर में मोटी साड़ी भले पहनें, पर घर से बहार निकलते समय शादी के समय चढ़ावे में मिली बूटेदार सिल्क की साडी और सलूका, ऊपर से मलमल की झालरदार चादर में लंबा घूँघट निकाले दरवाजे बाहर आतीं और गाड़ी के भीतर घुस जातीं। ये कपड़े उसके बाद फिनायल की गोलियों के साथ संदूक के हवाले कर दिए जाते और मघा नक्षत्र की धूप दिखाने के लिए बाहर निकलते और फिर सहेज कर रख दिए जाते।
उस दिन मां की नारंगी रंग की चमकदार झालर लगी चादर का ध्यान है, चेहरे का नहीं। मैं अपने लंबे बालों को पसंद करता था और यह जानकर कि वे कट जायेंगे घबराया हुआ था। बाबा ने फुसलाने के लिए मंगल की बाज़ार में हलवाई की दूकान से एक बड़ा गट्टा लेकर मुझे थमा दिया होगा पर जो चित्र बनता है वह इतवार की बाज़ार से सटी सड़क पर ओंकार की दूकान का है। चित्र इस जानकारी के बाद भी बदल नहीं पाता कि गजपुर का रास्ता तो उससे पहले ही डुमरी से कुछ आगे सड़क से अलग हो जाता था इसलिए उधर बढ़ने का सवाल ही नही।
ननकिसोर (नन्द किशोर) नाई बूढ़ हो चले थे। उनका छुरा भी बच्चों के सिर को लहूलुहान करने के लिए ही तैयार किया गया था। मेरी लटों को तो तेल और कंघे से साफ कर लिया जाता रहा होगा, परंतु चुपड़े जानेवाले तेल और धूल मिट्टी मे खेलते समय उड़ कर सिर में जमने वाली धूल से बनी पर्त छुरे की धार से ही उतरनी थी। उस्तरे की धार के खुरदरेपन के कारण सर में खरोंचें पड़ने के साथ तिलमिला कर मैं सिर झटकने की कोशिश करता जिससे गर्दन तो न कटती पर खून खराबा तो हो ही सकता था। इसका पूर्वानुमान करके एक ओर तो भुलावे में रखने के लिए मुझे एक बड़ा सा गट्टा पकड़ा दिया गया था और दूसरी ओर मेरे पीछे की ओर से किसी ने मेरा सिर पकड़ रखा था। पकड़ खास ऐसे समय सख्त हो जाती जब मैं सिर झटकने के लिए गर्दन तानने चलता। ननकिशोर का हाथ छुरा लिए अलग हो जाता। ननकिसोर बालों को मुलायम करने के लिए बार-बार पानी से भिगोते। बाल कटने के साथ उसके भीगे हुए लच्छे नीचे गिरते। एक दो गट्टे से चिपक भी जाते। मैं रोता हुआ गट्टे को चाटता जाता। अब याद आया। मैं जमीन पर नहीं बैठा था। मुझे किसी ने गोद में संभाल रखा था। कौन था वह, याद नहीं आता। एक भी बाल जमीन पर न गिरे, इसलिए मां ने अपना आंचल फैला रखा था। आंचल, आंचल में गिरते बालों के लच्छों की पक्की याद है, पर मां के चेहरे का नहीं।
और अंत में आया होगा सबसे तकलीफ देनेवाला क्षण, ऐंटीसेप्टिक लेप, खली, सरसो के तेल और पानी का घोल, जिसकी छरछराहट के बाद के अनुभवों के आधार पर जानकारी तो है, पर इस चित्ररेखा में वह गायब है, हां लपसी बनने की याद है, पूड़ी छनने की नहीं, खाने की बिल्कुल नहीं।
इसमें हुई घाल (वस्तु या सचाई को घटाना) और मेल (जो था ही नहीं उसे मिलाकर पूरा करने या नए रूप में ढालने का प्रयत्न) के विषय में पहले सचेत न था। लिखते समय हम अपने को अधिक अच्छी तरह जान पाते हैं, कयोंकि लिखते समय हम अपने आप से बाहर आकर अपने को एक वस्तु के रूप में देखते हैं। यही हमें लेखक बनाता है। जो ऐसा नहीं कर सकते वे कलमकार हैं, लेखक हो ही नहीं सकते।
विश्वासों से जुड़े लोग, विचारधाराओं से जुड़े लोग, संगठनों से जुड़े लोग, आंदोलनों से जुड़े लोग कलमकार बन कर रह जाते हैं, लेखक बन ही नहीं पाते। लेखन के साथ वही जिम्मेदारी होती है जो न्यायविचार के साथ। कलमकार स्क्रिप्ट राइटर होता है, गलत को भी सही बना कर इतने प्रभावशाली ढंग से पेश कर सकता है और समझा सकता है कि रूसी से बालों को बचाना, फांसी से गर्दन बचाने से अधिक जरूरी है।
इस चित्ररेखा में गट्टे की एक याद का कुछ समय तक बना रहना, तब तक सही लगना और फिर बदल जाना कुछ वैसा ही है जैसे स्वप्न बिंबों में आए बदलाव– जब तकदूसरा स्थान नहीं लेता तब तक सही।