कैसे तिनकों का आशियाना था
कितने टूटे अधूरे टुकड़ों को जोड़कर बनाने की कोशिश करता रहा एक कोलाज। इसे तो यादों का मलबा तक नहीं कहा जा सकता। मलबे में तो खंडित अवस्था में इतने टुकड़े वहीं मिल जाते हैं कि उन्हें जोड़ कर मूल का प्रतिरूप तक बनाया जा सकता है। पुरातत्व से जुड़े लोग ऐसा कर भी लेते हैं। परन्तु यहाँ तो आंधी में उधियाए हुए रेशों को पहचानने, पकड़ने और उन्हें मिला और ऐंठ कर, ऐसा तार बनाने की समस्या थी, जिससे यह उम्मीद जगे कभी कहीं पिरोया और जोड़ा बुना जा सकेगा। एक रेशा दृश्य, दूसरा श्रव्य और तीसरा अनुमेय और वे भी अन्तरालों के बाद उपस्थित।
उन दिनों माँ से बच्चों को केवल अपने सम्बन्ध का पता होता था। वे मां का नाम नहीं जानते थे। उन दिनों मर्यादा की एक खास समझ के तहत पत्नी न तो पति का नाम ले सकती थी, न पति पत्नी का। विवाह से पहले जो पूर्ण इकाइयां थीं, वे विवाह के साथ अपनी पूर्णता खोकर अपनी ही तरह अपनी पूर्णता खोकर आधी रह जाने वाली अपूर्णता के साथ मिल कर, एक पूर्णता स्थापित करती थी। विवाह, संवाह या सहजीवन नहीं है, निर्वाह (किसी तरह सम्बन्ध निभाना) नहीं है, परस्पर मिल कर पूर्णता की सिद्धि है, जिसमें पति अर्धांग बना रहता है, और पत्नी अर्धांगिनी। दंपति अर्धनारीश्वर हो जाता है ।
मैं नहीं जानता कि अर्धांगिनी की संकल्पना के पीछे मेरी जल्पनाएं सही हैं या गलत, परन्तु इसमें कोई संदेह नही कि मेरे पिता ने कभी मेरी माँ का नाम न लिया और मां को अपना नाम बताने की जरूरत ही न थी। हम बाद की पीढ़ियों जैसे भाग्यशाली न थे। माता पिता अर्धनारीश्वर हो कर भी एक दूसरे से इतने दूर रहते थे कि भरे परिवार में पति अपनी पत्नी को कई बच्चों की मां बन जाने के बाद भी पहचान नही सकता था। दूसरों के सामने अपनी पत्नी से बात नहीं कर सकता था। दूसरों के बच्चों को भले प्यार कर ले, वह अपने बच्चों को प्यार तक नहीं कर सकता था, कोई चूक होने पर दंड अवश्य दे सकता था।
मैं माँ को जानता था, उसका नाम नहीं जानता था। पिता का नाम जानता था, पर उनसे किसी तरह का लगाव न था और बाद में कभी यह किसी से पूछने का न कोई अवसर आया न साहस हुआ कि पूछूं कि मेरी माँ का नाम क्या था। अवसर आया भी तो तब जब सत्तर साल की उम्र में पहचान के सन्दर्भ में कभी पूछा गया, माँ का नाम? मैं उलझन में पड़ गया। नाम तो मुझे पता नहीं था।
उलझन की उस घड़ी में शैशव से आती एक प्रतिध्वनि सी सुनाई दी रमदुलरिआ। आवाज नाना जी की थी। उस आवाज की खरखराहट भी याद आती है और ममता का स्पर्श थी। किस तर्क से, यह बता नहीं सकता, मुझे स्वयं पता नहीं। इससे पहले कभी यह सवाल क्यों न पैदा हुआ, मैं नही जानता। इतने अरसे वह किस कोने में आवाज़ की खराश और आत्मीयता की मिठास के साथ,बचा रहा, मैं नहीं जानता। मैं इनके विषय में किसी प्रश्न का उत्तर नहीं दे सकता, परन्तु एक प्रश्न अवश्य कर सकता हूं। क्या हमारे गहन रागात्मकता के स्मृतिबिंब किसी विशेष योजना के अनुसार व्यवस्थित होते हें जो ध्यान की किसी विशेष अवस्था में, जैसे सम्मोहन की अवस्था में जाग्रत हो जाते हैं।
ध्वनिबिम्ब का एक दूसरा नमूना। माँ के साथ ननिहाल जाते हुए मैं पहली बार ट्रेन में बैठा था। ट्रेन का, डिब्बे की भीड़ का, इंजिन की बनावट का कोई दृश्य स्मृति में अंकित नहीं। मात्र यह याद है कि गर्मी के मौसम में, आगन में, शाम के धुंधलके में, मै लुढ़का पड़ा था और कोई मुझसे पूछ रहा था, ‘ए बाबू रेलिया कै इंजनवा कैसे बोलेला?’ और मै इंजन के भोंपू की नकल उतारते हुए ‘भौओ’ की आवाज कर रहा था।
मैं मां के साथ ननिहाल गया था और वह मायके। गन्तव्य एक ही, पहचान अलग-अलग। वह अपने तीन जीवित और संभव है एक दो मृत संतानों के बाद, पेट में एक बच्चा और गोद में मुझे लिए पहली बार, जो अन्तिम भी सिद्ध हुआ, अपने स्वजनों से मिलने गई थी। कोई नहीं जान सकता कि इस समय मैं लिख नहीं रहा हूं, बिलख रहा हूं। अंकपटल को दबाती उंगलियों से भी, आंखों से भी, और रोना इस बात पर कि यातना तो है, पर यातना सहने वाली को यह यातना प्रतीत ही नहीं होती या प्रतीत होती भी रही हो तो वह पुत्रवती भव के आशीर्वाद का अपमान नहीं कर सकती थी। मुझे जो यातना लग रही है, उसे उसपर गर्व रहा हो। दोष व्यवस्था का थाः
1. जिसमें दोषपूर्ण व्यवस्था के प्रति सम्मान आत्मसम्मान का हिस्सा बन जाता था और यातना के विविध रूप गर्व के विविध रूप प्रतीत होते थे।
2. इसमें पति पत्नी को नहीं जानता, वह अपनी मनुष्यता खो कर एक वस्तु में बदल जाती है, उससे प्रजावृद्धि हो सकती है, संवाद नहीं।
3. शिशु मां को जानता है, पिता को जानता है, समझ नहीं पाता। मां का संतति-स्नेह संभाल में बदल जाता है और सभी को संभाल नहीं सकती इसलिए किसी एक पर केंद्रित हो जाती है जो उसकी हुर्दशा से उसे उबार सके और यह उसका पहला पुत्र ही हो सकता था जो उसकी पहली पुत्रबधू लाकर उसके श्रम भार को हल्का कर सके।
कमियों की तालिका बनाई जा सकती है। अपने को जानने के लिए हम परंपरा की पूजा न करें. उसकी समीक्षा करें।