Post – 2017-09-16

हम यह नही कहते कि कायनात है हमसे
क्या हमने बचाया है ज़माना इसे समझे .

[मै आत्मकथा को सामाजिक विमर्श में बदलने का प्रयोग कर रहा हूँ। शायद यह बात मेरे मित्रों में कुछ की समझ में आये। मेरे अपने जीवन में तो कुछ है ही नहींृ जिसके लिए अपने पाठकों का कीमती समय बर्वाद करूं.]

जब माता या पिता के साथ संतानों के गहन लगाव की बात आती है तो हम प्रायः ईडिपस कंप्लेक्स या फिक्सेशन की बात करने लगते हैं, और विकृति के कुछ मामलों में इसे सही भी पाया जा सकता है, परन्तु दो भिन्न संस्कृतियों की मनोरचना को उनमें से किसी एक को प्रमाण मानकर नहीं समझा जा सकता। उदाहरण के लिए पश्चिमी समाजों में प्राकृतिक कारणों से हिंसा की प्रवृत्ति इतनी प्रबल रही है कि वे क्रूरता को वीरता से अभिन्न मानते रहे और अहिंसा को कायरता बताते रहे। इतिहास गवाह है कि भारतीय योद्धाओं को आमने सामने की ल़ड़ाई में शायद ही कभी हार का मुंह देखना पड़ा हो। हमें एक पाशविक समाज में, समय से पहले सभ्य होने के कारण उनसे पराजित होना पड़ा जो प्रेम और युद्ध में किसी तरह के आचरण को उचित मानते थे। आज हम युद्ध में भौतिक लाभ को भी जोड़ लें। वैज्ञानिक और तकनीकी दृष्टि से अकल्पनीय प्रगति के बाद भी यदि विश्व मानवता विनाश के कंगार पर खड़ी है तो इसलिए कि युद्ध, लाभ और प्रेम में कुछ किया जा सकता है वाली मूल्य प्रणाली सार्वभौम हो गई है जिसमे जो काम्य है उसकी किसी भी तरह प्राप्ति, श्रेयस्कर हो जाती है।

इसमें शौर्य अर्थात् जो रक्षणीय है उसकी प्राणपण से अर्थात् प्राण की बाजी लगा कर भी रक्षा करने का संकल्प अपनी जान बचाते हुए, धोखे से, चोरी से, विश्वासघात करते हुए, जो दुर्बल हैं, निहत्थे है उन पर प्रहार करके जीतना शौर्य की कसौटी बना दिया गया. कमीनेपन और कायरता का पर्याय है मिलिट्री साइंस।और इसे हमें भी अपनाना पडा। जानवरों से लड़ते हुए आप उन्हें दर्शन बघार कर नियंत्रित नही कर सकते। आपके पास सींग नहीं है तो डंडा हाथ में लेना पड़ता है।

पर किसी भी कीमत पर सफलता सभ्याचार नहीं हैं, पाशविक व्यवहार है इसे समझने के लिए आखेट करने वाले पशुओं के व्यवहार पर ध्यान देना होगा। जिन्हे हम शौर्य का प्रतीक मानते है उन जानवरों में भी क्या इतना दम होता है कि जिस पर वह आक्रमण कर रहा है उसको चुनौती दे सके कि मैं तुमसे सभी दृष्टियों से श्रेष्ठ हूँ।. वह इसका निर्वाह नहीं करता। चोरी से, छिपकर पास पहुंचता है और एकाएक जब आक्रमण करता है तो उसके हाथ उस दल का कोई बीमार, पहले से घायल या नवजात ही पकड़ में आता है. यह प्राकृतिक बाध्यता है और इसलिए विचारातीत। परन्तु यदि विज्ञान प्रकृति पर विजय है तो यह प्रयोग यहाँ हुआ था और उस समय हुआ था जब विज्ञान और तकनीक अल्प विकसित थे। आज जब विज्ञान और तकनीक ने प्राकृतिक बाध्यताओं पर विजय पाकर उन क्षेत्रो को जिनमें लोग किसी तरह जीवन यापन करते थे, आबादी के अल्पतम दबाव के कारण अधिक आकर्षक बना दिया, यह उनका कर्तव्य था कि वे उन मानवीय मूल्यों की रक्षा करते हुए शौर्य के नए कीर्तिमान रखते जिनमें कुछ नायकों ने हमें निराश नहीं किया है। वे उन्नति के बाद भी अधोगति के मूल्यों को सार्वभौम बनाने पर कटिबद्ध है
जिसमें लाभ लोभ में बदल जाता है । इससे उत्पन्न दुष्परिणामों की तालिका पेश करना हमारा उद्देश्य नही।

इसमें प्रेम बलात्कार का पर्याय बन जाता है, बहुपत्नीत्व या हरम का समर्थन करता है!

मैं नही कहता कि हमारी मूल्य व्यवस्था श्रेयस्कर है। कहता हूँ , यह भिन्न है और मानवजाति का भविष्य इसके निर्वाह पर निर्भर है।

मनोरचना से जुड़े दूसरे सवालों पर भी पश्चिम आगे है इसलिए अनुकरणीय है इससे बचते हुए यह समझना होगा कि हमारी मूल्य व्यवस्था भिन्न है, और एक उन्नत अवस्था की उपज है। इसको समझते हुए हमें अपनी कमियों को भी समझना है और रक्षणीय तत्वों बचाना है। आज की दुनिया को वैज्ञानिक मानवमूल्य प्रदान करने में हम एक सीमा तक सहायक हो सकते हैं। अपने जीवन मूल्यों को समर्पित करने के बाद हम कचरे में बदल जायेंगे और हमारे साथ वही व्यवहार किया जाएगा जो कचरे के साथ किया जाता है.