उजाले के तो कई रंग हैं देखा होगा
अंधेरै के भी कई रंग हैं देखा कि नहीं।।
मैं पहले आंखो के प्रति इस खिंचाव का कारण नहीं समझ पाता था। बहुत सारे रहस्य लिखने के क्रम में सुलझते हैं। लिखते समय मैं अपना जाना हुआ दूसरों को बताता नहीं हूं, जो चरित्र, वस्तु, क्रिया सामने आती है उसे समझने की कोशिश करता हूं। यह कोशिश शब्दबद्ध होती है और वह लिपिबद्ध होता चलता है। यही मेरा लेखन है। ज्ञान नहीं, जिज्ञासा मेरी शक्ति है। दृश्यमान के सौंदर्य, क्रीड़ा, यातना, विषाद से गुजरना और उनके अनुरूप अभिव्यक्ति की तलाश जो कभी तो इतनी निरायास होती है जैसे लिख न रहे हों, तरंगाघात के साथ उछलते बहते चले जा रहे हों, और कभी इतना उलझा जैसे जमकातर में फंस गए हों, बाहर निकलने का कोई उपाय नहीं। हंसना, रोना और कभी गर्वानुभूति और कृतार्थता का ऐसा क्षण कि इस बोध से ही अपना विन्यास लिए दर्पोक्ति बाहर आती है और लिखना स्थगित। दर्पोक्तियां मैने बहुत लिखी हैं। दर्पोक्ति इस बोध की उपज है कि मैं दूसरों से इतना विशिष्ट, इतना ऊपर या अपने समय से इतना आगे हूं कि लोगों में मुझे समझने की अल्पतम योग्यता का भी अभाव है, इसलिए खेद इस बात का नहीं होता कि मेरी उपेक्षा हो रही है, गर्वमिश्रित असंतोष ‘उत्पस्यते हि नः कोपि समानधर्मा, कालोह्ययं निरवधिर्विपुलाश्च पृथिवी’ जैसी उक्तियों का रूप ले लेता है। इसलिए प्रशंसा की लालसा नहीं पैदा होती, आलोचना की अपेक्षा अवश्य रहती है। ऐसे ही किन्हीे पलों में उभरी थीं ऐसी पंक्तियाः
कौन समझेगा तुझे ऐ भगवान
किसने पाई है ऐसी दानाई
वे सितारों की बात करते हैं
तू सितारों से बात करता है।
या
आसमानों पर कदम रखते हुए चलता है
तुमने भगवान को देखा कभी आते जाते ।
दर्पोक्तियों के विषय में एक राज की बात यह है कि अन्यत्र कहीं भी कोई अतिरंजना करे, दर्पोक्तियों में अतिरंजना नहीं होती। इनमें शुद्ध आत्मविश्वास होता है – खुद को ही गढ़ना और खुद को ही सजदा करना । दुनिया को खोजना और अपने को पाना और अपने में डूबना और दुनिया को एक नए विस्मयकारी रूप में पाना और आह्लादित होकर अपनी खोज पर जानते हुए भी विश्वास न कर पाना कि यह मुझसे ही संभव हुआ है। गर्वोक्तियां ऐसे ही क्षणों में प्रकट होती हैं, जैसे अपना अवचेतन मुग्ध होकर प्रशस्तिपत्र पेश कर रहा हो। कथनभंगी प्रशस्तिपत्र वाली ही होती है।
यह सब कुछ चेतना में पहले से था पर आज से पहले, ठीक इस क्षण से पहले चाहता तो भी नहीं लिख सकता था। कोई मेरी रचना प्रक्रिया पर लिखने को कहता तो भी नहीं। लिखना हमारे वश में नहीं। हमारे आवेग, तर्कशृंखला, औचित्य और अभिव्यक्ति का तोष लेखन की दिशा और विस्तार को इस तरह प्रभावित करते हैं कि उनके दबाव में जो कहने चले थे वह अनकहा रह जाता है या अधकहा रह जाता है। मैं कहने चला था कि लेखन के क्षण में विषय ही नहीं, महान चिंतकों के उससे संबंधित विवेचन और सूत्रबद्ध विचार भी लेखन को प्रभावित करते हैं।
यदि आप ज्ञानार्जन के क्रम में उन तक पहुंचे हों तो आपको वे विचार अकाट्य प्रतीत होंगे, आपकी विचार प्रक्रिया को नियंत्रित करेंगे, आप को बौद्धिक करतब दिखाने छूट देंगे, पर सही सिद्ध होने के लिए उन्हीं निष्कर्षों पर पहुंचना होगा। आप इस भ्रम के शिकार होंगे कि आप सोच रहे हैं और आप वैचारिक गुलामी का निर्वाह कर रहे होंगे। विचार करेंगे. विचारमंथन करेंगे, पर विचार उसी बिंदु पर ठहरा रहेगा, आगे नहीं बढ़ेगा।
जब आप अनुभव प्रक्रिया से गुजरने के बाद उन्ही विचारों तक पहुंचते हैं तो उन विचारों और मान्यताओं की परीक्षा होती और उनका बहुत कुछ वागाडंबर सिद्ध होता है।