Post – 2017-09-14

कहीं का कंकड़ कहीं का रोड़ा

मां के मरने के बाद से माई के आने तक मैंने मां को याद तो अनेक बार किया होगा पर उसकी कोई याद नहीं। हमें रोटी-पानी उस बीच कौन देता, मेरी देखभाल कौन करता यह भी याद नहीं। बहुत बाद तक एक नाम याद आता तो झुरझुरी सी अनुभव होती- लालचुनी। उसकी कोई याद नहीं, बस इस नाम से सोचता वह लाल चुनरी पहनती रही होगी। वह पट्टीदारी में किसी के घर आई रिश्ते की एक बालविधवा थी। केवल कल्पना कर सकता हूं कि वह मुझे बहुत प्यार करती रही होगी, इस भाषातीत संवेदनात्मक स्मृति का कोई अन्य आधार नहीं हो सकता।

मां का कोई चित्र तो हो ही नहीं सकता था, जो दृश्यबिंब स्मृतिपटल पर अंकित हैं वे भी अधूरे और किंचित् अविश्वसनीय, फिर भी इतने ठोस और अकाट्य कि मैं बदलना चाहूं तो भी टस से मस न हों। कुछ कुछ स्वप्नजागृति जैसा।

स्वप्नजागृति में आप जो देखते उसे असंभव मानते हुए, तर्क करते हैं, ऐसा तो नहीं हो सकता। निद्रा में, जोर लगाकर पलकों को खोल कर ध्यान से देखते हैं और पाते हैं, है तो वही। हो तो वही रहा है। आप तर्क को स्थगित कर देते हैं। प्रतीति को प्रत्यक्ष मानकर और तर्कगम्य को भ्रम मान कर अपने को उस मरीचिका का सहभोक्ता और कर्ता मान लेते हैं।

आकांक्षाओं से जुड़े लोग, विचारधाराओं से जुड़े लोग, विश्वासधाराओं से जुड़े लोग, धर्मो-संप्रदायों, परंपराओं से जुड़े लोग, अपने अपने सपनों से जुड़े लोग, अपने सपने में व्यवधान डालने वाले किसी तर्क, विचार, प्रमाण को नहीं सहन कर सकते। वे अपने समस्त ज्ञान, अनुभव और कौशल का प्रयोग अपने सपने को सही और उससे अनमेल पड़नेवाले यथार्थ को भ्रम सिद्ध करने का प्रयत्न करेंगे।

मेरा इरादा, अपनी व्यथा में समकालीन विमर्श को लाने का न था। मैं कोई काम सलीके कर नहीं पाता सो यह तो होना ही था।

मां का जो समृतिबिंब सबसे ठोस है उसमें वह अरगनी पर ठोढ़ी टिकाए, एक पांव को दूसरे की फीली पर टिकाए, आंगन में खड़ी किसी महिला से परिहास कर रही थीं। उनकी आंखों में एक शरारत भरी चमक थी, जो युवतियों के आपसी विनोद में ही संभव है। आंगन में कौन था इसका कोई आभास नहीं। यह याद है कि मैं ओसारे में था। मां से पीछे की ओर। ऐसी दशा में, मुझे उसकी आंखें कैसे दीख सकती थीं। परंतु वे बड़े डोले, वे चमकती आंखें मेरा फिक्सेशन रही हैं, वे अनन्य हैं, पर उनसे मिलता जुलता कहीं कुछ दीख जाये, वह पशु में हों या पक्षी में, शिशु में हो या युवा या बृद्ध, रूप कुरूप के पार कहीं भी किसी में भी, मैं रीझ जाता हूं।
असमाप्त