Post – 2017-09-13

अपूर रिक्तता

अभाव के कुछ रूप होते हैं जो किसी दूसरी चीज से भरते नहीं खालीपन का विस्तार करते हैं। मां के प्यार का अभाव । इस खालीपन को भरने के हम जो उपाय करते हैं वह खालीपन को भी बढ़ाता है और खालीपन के अहसास को भी। जैसे दुख और अवसाद में हमें अकेला छोड़ दिया जाय तो हम उसके भोग से उसे कम कर लेंगे। जब दूसरे हमें बाहर लाने के लिए उसमें व्यवधान डालते हैं तो वह दौरे का रूप ले लेता है, व्याधि बन जाता है। अकेला छोड़ दो अवसादग्रस्त को, वह आप्तकाम होकर उससे बाहर आ जाएगा। एक नई गरिमा के साथ जो उससे गुजरे बिना संभव न था। आप्तकामता सुख की नहीं, काम्य की होती है और एेसे अनुभवों से गुजरना पड़ सकता है जिनमें अवसाद ही काम्य हो जाय। जैसे कच्चे फोड़े के साथ करते हो, दुख को पकने दो वह स्वयं अपने विष का निस्सारण कर लेगा। यही स्थिति मां के प्यार से वंचित रह जाने से उत्पन्न रिक्तता का है। उसे बने रहने दो । भरने के कृत्रिम उपायों से रिक्तता और बढ़ जाएगी।

हम अपनी विमाता को माई कहते । किसने यह सुझाया था, यह पता नहीं। रोटी पकाने के लिए एक पंडितानी कुछ समय आती रहीं और उनकी सहायता के लिए नोहर की मां। इन्हीं में से एक का सुझाव रहा होगा। यह एक तरह की हिंसा थी। यदि विश्वास न हो तो उन उम्रदराज महिलाओं की प्रतिक्रिया को याद करें जिन्हे किसी ने आदरवश ही माता जी कह दिया तो वे अपने को रोक नहीं पातीं और उलट कर पूछती हैं, ‘मैं तुमको माता जी लगती हूं?’

आपको ऐसी महिलाएं मुखर लगी हों तो मुझे ये नारीवादी नारों के बिना भी अपने सम्मान की लड़ाई लड़ने वाली नारियां लगती हैं। जिस मूल्यव्यवस्था में स्त्री की सबसे बड़ी शक्ति उसका सौंदर्य और इसलिए उसका यौवन माना जाता हो (यद्यपि यह सही नहीं है। उसकी सबसे बड़ी
शक्ति उसका मातृत्व है) उसमें अपने ऊपर बुजुर्गी लादने वाले, कुरूपता का आभास देने वाले किस तरह का अत्याचार करते हैं, इसका न तो हमें बोध होता है न इन पर ध्यान देते हैं।

यदि उसे मासी, चाची, छोटी मा कहना पड़ता तो रिश्तों की दूरी या अलगाव के कारण वह अपने को अलग और सुरक्षित रख लेती। माई के संबोधन के साथ वे संभावनाएं नष्ट हो गईं।

परन्तु इससे दुखद यह कि पिता जी ने माई को पत्नी नहीं बनाया, विवाह के बाद सालियों सलहजों के बीच किसी प्रसंग में उन्होने कहा था, ‘मैने अपने बच्चों की देखरेख के लिए शादी की वर्ना करता ही नहीं।’

उन्होंने अपनी पत्नी को उसके पत्नीत्व से वचित करते हुए अपनी पूर्वपत्नी की सन्तानों की दाई बना दिया और अपने इस अन्याय का न तो उन्हें तब बोध हुआ होगा न बाद में पुनर्विचार की आवश्यकता हुई। गलत आदर्शों, गलत मूल्यव्यवस्थाओं का निर्वाह करते हुए हम कितने अत्याचार, कितनी हिंसा करते हैं इसका बोध क्या हमें होता है?

पता चला कि बारात कोटिया तक, जो हमारे घर से दो फर्लांग दूर थी, पहुंच गई है, हमें एक कमरे में बन्द कर दिया गया। यह जिसकी भी सूझ से आई परंपरा हो, थी वैज्ञानिक। यदि गृहप्रवेश करते समय बधू से उसकी सपत्नी की सन्तानें लिपट जायं तो जानें उसके मन पर क्या गुजरे ?

दीदी हममें सबसे बड़ी थीं। वह भैया को समझाती रहीं, यह हमारी मा नहीं है। मुझे अपनी मां चाहिए थी। उनकी बातें अच्छी नहीं लग रही थीं।

अन्तत: जब वह कोने के कमरे में स्थापित हो गईं तो एक एक को उसके पास परिचय के लिए भेजा गया। सबसे अन्त में मेरी बारी आई। प्रश्न मैंने ही पूछा, ‘तू हमसे रिसिया के क्यों चली गई थीं? मुझसे क्या भूल हुई थी?’ मुझे याद है, वह इस प्रश्न से विगिलत हो गई थी। कुछ बोली नहीं थी। मुझे स्पर्श किया था। यह याद नहीं कि सिर कर या गाल पर। उसमें व्यथा थी। आक्रोश नहीं। पर यही वह क्षण था जब उसका सबसे बड़ा शत्रु उसके सामने था जिसमें उसकी सौत सबसे अधिक जीवित थी।