Post – 2017-09-11

एक राज की बात

मेरे मित्रों में जो मेरी आलोचना करते हैं वे मुझे अपने से अधिक समझदार प्रतीत होते हैं और इसलिए यदि आप इज्जत पाना चाहते हैं तो मेरी आलोचना करें, यह सहमत होने से अच्छा विकलप है और तारीफ से कई गुना अच्छा।

एक विगत सन्दर्भ में पता चला कि कुछ लोग मुझे विद्वान भी समझते हैं और इसलिए, कम से कम मुझसे, उस तरह की मूर्खताओं की उम्मीद नहीं करतेथे जिसका नमूना मैंने प्रस्तुत किया। ऐसे लोग झूठ बोलते हैं, क्योंकि असली विद्वान् तो वे स्वयम् है। मैं उनके जैसा सोचता तो वह मूर्खता न करता। जैसा होता है और होना ही चाहिए मूर्ख अपनी इज्जत बचाने के लिए समझदारों से डरते हैं और समझदार लोग मूर्खों से बचते हैं। वे समझदार तो होते ही हैं, सही भी इतने होते हैं कि किसी को अपने से असहमत होने का अधिकार नहीं देते और इसके बावजूद शिकायत करते है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता किसी अन्य के कारण खतरे में है, जब कि मुझे लगता है अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता वे किसी को न दे सकते हैं, न उसे सहन कर सकते हैं।

मैं उन विरल मूर्ख़ों में आता हूँ जो जो स्वयं लोगों को आगाह करते हैं कि कभी मेरी बात में न आना। मेरा लिखा विचार, तब तक किसी विषय को देखने समझने के अनेक प्रयत्नों में से एक है, जब तक तुम्हारी जानकारी और सोच विचार से वह सही नहीं लगता। इस विचार प्रक्रिया से गुजरने और आत्मसात् किये जाने के बाद वह मेरा विचार रह ही नही जाता। वह तुम्हारा हो चुका रहता है। इसी प्रक्रिया से हम भाषा सीखते है, ज्ञान अर्जित करते और आत्मसात करते है, अन्न ग्रहण करते और उसे पचा कर अपने रक्त और रस में बदलते है. ग्रहीत आत्मसात होने के बाद हमारा हो जाता है । अंतत: हम अपनी बुद्धि और विवेक से ही काम लेते है और ऐसा करना ही हमारे हित में है।

इस मूर्खता के कारण ही मेरा उन बुद्धिजीवियों से विरोध है जिनके पास इतना सही ज्ञान, विचार या दर्शन है, ऐसा बंधा हुआ नज़रिया है, जिससे अलग जाने की अनुमति किसी को नहीं देते, ऐसा करने वाले पर हल्ला बोल देते है, और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता की भी बात करते हैं। स्वयम्, जो रास न आये उसे ख़त्म करने का अभियान चलाते हैं और असुरक्षित भी अनुभव करते हैं। मैं अपनी मूर्खता में सोचता हूँ जो आज़ादी वे अपने लिए चाहते हैं, वह सबको हासिल हो, इसे सहन नही कर पाते। कुछ चीजें सिर्फ उनके लिए बनी हैं, उनके पास ही होनी चाहिये, क्योंकि सब कुछ अपने पाद होने बाद ही वे सर्वहारा का प्रतिनिधित्व कर सकते हैं। वे कबीर को पढ़ते हैं और उनकी उलटवाँसियों पर मुग्ध हो जाते हैं, मैं कबीर की नजर रखता हूँ तो उन्हें डरावना लगता हूँ।

मैं पाता हूँ उनकी जिनसे लड़ाई है वे भी ठीक उन जैसे ही है। पक्के औरे दुरुस्त विचारों और मान्यताओं वाले। उनके होने से ही पता चलता है कि सही विचार एक दूसरे के उलटे भी हो सकते हैं और सही विचार का कारोबार करनेवालों की नजर में जो गलत है वह बिना उलटे पलटे सही काम कर सकता है। सही विचारों के दो आढ़ती हैं, कारोबार एक जैसा है. दोनों दूसरे को मिटा कर पूर्ण सत्य पर एकाधिकार करना चाहते है। पूर्ण सत्य के इन आढ़तियों को एक ही कारोबार से जुड़े होने के कारण एक दूसरे का विरोधी नहीं, एक ही खेल के मैदान के भिन्न पालों से गोल करने और गोल होने वाला खिलाड़ी मानता हूँ। विरोधी पक्षों के खिलाड़ियों के लिए एक ही संज्ञा का प्रयोग होता है। यहाँ नाम भिन्न पर क्रिया एक है और जैसा मानता आया हूँ, एक का अस्तित्व दूसरे पर टिका है।

संघ, मुस्लिम लीग, एक ही स्थिति और परिस्थिति की उपज है। इनके अनेक छद्मनाम हैं पर कार्यक्रम एक दूसरे को ही मिटाने का ही नही है, अपितु एक जिस चीज और मूल्य प्रणाली से जुड़ा है उसे भी मिटाने का है। यहीं पता चलता है कि विविध अच्छे नामो और एक जैसे बुरे इरादों के होने के कारण हम नाम पर न जाकर इरादों और कारनामों से ही इन्हें पहचान सकते है और यदि हमारे इरादे भी उन जैसे नहीं हैं तो यह प्रयत्न कर सकते हैं कि वे अपना नज़रिया बदलें, अपना पुनराविष्कार करें, अपना उद्धार करें तो सबका उद्धार हो।

अभी एक जगह पढ़ा यदि संघ को मिटा दिया जाय तो ही यह देश बच सकता है। यह शुभ संकल्प मुझे बहुत पसंद आया । देश को बचाने के लिए मैं इसमें सहयोग करने को तुरत तैयार हो गया। पर फिर सोचने लगा तो पाया कि लीग के कार्यक्रम पर चल कर ये लीग को बचायेंगे, देश को नही।

देश को बचाने की चिंता न लीग को थी न संघ को। दोनों अपने-अपने संप्रदाय अर्थात मुसलमानों और हिन्दुओं को बचाने की चिंता करते थे ।

किससे पैदा हुए खतरे से किसका जन्म हुआ इसका आज कोई मतलब नही, पर इस बात से मतलब है कि ये दोनों अपने समुदाय के हित की जो समझ रखते आये हैं उसके अनुसार दूसरे को आहत करना अपने समुदाय को खुश करना और दूसरे को मिटाना अपने समाज को बचाना है।

एक को अपने समुदाय का आदमी आदमी लगता है दूसरे का आदमी आंकड़ा। एक को चोट पहुंचे तो वह तड़प उठता है, दूसरे की जान भी चली जाय तो ध्यान नहीं देता या और दिलाने पर कहता है ऐसा तो हो ही जाता है या इसका कारण दूसरे के किसी कृत्य में तलाश लेता है।

आहत करने का सबसे सरल तरीका है दूसरे के मूल्यों, मानों, विश्वास, व्यवस्था, इतिहास पर चोट करना और अपने उन्हीं मूल्यों मानों, विश्वासों, व्यवस्था और इतिहास पर तनिक भी खरोंच न आने देना। ये काम सुधार के नाम पर भी किये जा सकते हैं, सत्य की खोज के नाम पर भी, आलोचना या भर्त्सना के रूप में भी।

इस कसौटी पर ही हम समझ सकते हैं कौन किसकी भूमिका में है और किसके विरोध में। तटस्थ, वस्तुपरक या निष्पक्ष होने का दावा वह तभी कर सकता है, जब, जो भी काम करे, भेदभाव से मुक्त रह कर करे। नाम नही नीयत और काम से पता चलता है कि आप लीग के कार्यक्रम पर काम कर रहे हैं या संघ के अथवा निरपेक्ष चिन्तक, विचारक, सुधारक या सर्जक के रूप में।

आत्मालोचन करें, अपने नाम को नही सोच को बदलें, अपनी संज्ञा को चरितार्थ करें। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ नाम अच्छा है इसकी समझ और राष्ट्र की परिभाषा गलत है। इसकी प्रेरक और जननी मुस्लिम लीग का नाम भी गलत था और काम भी किसी को मुंह दिखाने लायक नहीं था और भारत विभाजन के बाद धर्म प्रेम के नाम पर जिन्होंने देश को बांटा था घर-परिवार, जमीन-जायदाद, अनिशिचत वर्तमान और उससे भी अधिक विपन्न भविष्य के बीच धर्म की सापेक्षता में देश का महत्त्व समझ आया और वे यहीं रह गए पर चेहरा उजागर न कर सकते थे
इसलिए समर्थन के भूखे संगठनौं में परकाय प्रवेश के जादू से प्रवेश कर गए ।

प्रसंग वश, अपनी भाषा और अभिव्यक्ति के रूप को ऐसा रखे जिससे आग न भड़के, रोशनी पैदा हो। समझ में बदलाव आये। जिसे बदलना चाहते हैं वह ध्यान से सुने, समझे, अपमानित न अनुभव करे। उसमें सोच पैदा हो, आवेश नही।

पर लीगी अंतरात्मा के प्रभावमें यदि आप का इरादा उसे आहत करने का हो और वह आहत न हो तो आपका प्रयत्न व्यर्थ गया। यदि आप अपने इरादे में सफल हो गए, वह आहत हुआ तो सौ आहत और अपमानित होने वालों में कोई एक कुछ ऐसा भी कर सकता है कि आपको नुक्सान पहुंचे। पर्याप्त भड़कावे के बाद आपराधिक काम तक की गुरुता कम हो जाती है और अदालतें इसका भी संज्ञान लेती हैं।