Post – 2017-09-12

वह ज़िंदगी तो थी नहीं मगर गले लगा लिया

अपनी सनक में पूरी जिन्दगी विविध प्रकार की मूर्खताएं करता रहा, पर सिवाय एक के, एक तरह की मूर्खता दुबारा नहीं की। एक मात्र मूर्खता जिसे मैं बार-बार करता रहा, वह थी लोगों से धोखा खाना और फिर भी अपरिचितों तक पर विश्वास कर लेना। पिछले अनुभवों के कारण यह जानते हुए भी कि धोखा हो सकता है, मैं यह खतरा उठा कर भी, जिसे बचाना चाहता था, वह था मनुष्यता में विश्वास।

ओछेपन से जब भी पाला पड़ा, उसे व्याधि या विवशता मानता रहा। सबसे गिरे हुए लोग मुझे सिद्धांतवादी तेवर अपनाने वाले वकीलों में मिले। जीतने के लिए अपराधियों को सलाह देते और उसकी तरकीबें बैठाते उनकी नैतिक चेतना का इतना ह्रास हो जाता है कि उनमें से अनेक अपराधियों से आगे बढ़ जाते हैं फिर भी अपनी शिक्षा, आय और बुद्धिकौशल के बल पर बाह्य आचार व्यवहार में संभ्रांत दीखने के कारण वे गॉड फादर के प्रतिरूप बन जाते हैं। उससे कुछ ही कम राजनीतिक आकाक्षाओं से जुड़े लोग। परिस्थितियां और आकांक्षाएं जो भी बनाएं, आदमी प्रकृति से अधम हो सकता है, यह बात आजतक गले उतर नहीं पाई । मुझे लगता रहा, अपने को जोखम से बचाने के लिए अतिरिक्त सतर्कता बरतते हुए जिस दिन मनुष्यमात्र की मनुष्यता में विश्वास खो गया, लोगों को शक की नजर से देखने लगूंगा, उस दिन कुछ न बचेगा, वह आग भी मंद पड़ जायेगी जो शब्दों में ढलती है और जिसके बल पर अपने को लेखक मानता हूँ।

यह मेरी उदारता नहीं विवशता है कि मैं किसी से नफ़रत नहीं कर पाता। उससे भी नहीं किया जिसने धोखा दिया या नुकसान पहुँचाया। उससे भी नहीं जिससे मुझे इतनी यातना मिली कि यातना ही मेरे शैशव का पर्याय बन गयी। जिन्होंने क्षति पहुंचाई उनके प्रति भी मन में करुणा उपजती है, वे शत्रु नहीं रुगण लगते हैं।

यह मेरे ज्ञान, अध्ययन या किसी सत्संग से उपजा भाव नहीं है। यह उस समय ही विद्यमान था जब एक ओर मैं विमाता के उत्पीड़न से बचना चाहता था और दूसरी ओर उसे अन्य विमाताओं की तुलना अथिक दयालु पाता था।

रुकिए, वे कौन सी विमाताएं थीं जिनसे तुलना करने पर मैं उसे अधिक सदय पाता था? उसके अतिरिक्त तो किसी अन्य विमाता को जानता तक न था।

लीजिए, जो मेरे लिए आज तक एक समस्या बनी हुई थी उसका रहस्य इस प्रश्न के साथ ही खुल गया। वे कहानियों की विमाताएं थीं और इसके साथ ही एक मिनट पहले लिखा मेरा ही कथन गलत हो गया। यह उन कहानियों का असर था जिन्हें सुनने बचानी की मां के पास शाम को जाया करता था।

ऐसी कहानियाँ वह स्वयं भी सुनाती थी। मैं सोता उसी के साथ था। अकेले में डर लगता था। सो यह कहना गलत था कि इसका बोध मुझे किसी बाहरी स्रोत से न हुआ था। ये कहानियाँ सीत-बसन्त की, रानी केतकी की, और ऐसी विमाता रानियों की होती थीं जो सौतेले बच्चों को बधिकों के हवाले कर के दूर जंगल में उनका वध करके उनका कलेजा लाने का आदेश देती थीं और वधिक उन पर तरस खाकर, उनको जीवित छोड़ देते थे । उनका पालन वन के जीव जंतु करते थे। वधिक अपने प्राण की रक्षा के लिए किसी जानवर का शिकार करके उसका कलेजा रानी को सौंप देते थे।

जब तक उसे अपना पुत्र नहीं हुआ था तब तक हमारे लिए जिउतिया (जीवित पुत्रिका ) का निर्जला व्रत रखती। यह व्रत पूर्वी उत्तरप्रदेश और पश्चिमी बिहार में स्त्रियां अपने पुत्र के आरोग्य और शत्रु पर विजय के लिए रखती हैं। इसमें एक थाल में फूल आदि सजाकर बरियार के एक नितांत अनाकर्षक पौदे की तलाश करते हुए जाती हैं और उसका पूजन करते हुए गाती हैं :
ए अरियार
का बरियार
रामजी से जा के कहिह अमुक के माई जिउतिया भुक्खल बाटी
हमार पूत मारि आवें, मरा न आवें ।

इस यात्रा में जुते हुए खेत से होकर जाना मना है। जुती भूमि तो घायल है इसलिए अशुभ।
इससे जुडी एक विमाता की क्रूरता की कहानी थी, जो भी उसी ने सुनाई थी:

एक विमाता ने जिउतिया व्रत रखा था। वह बरियार पूजने चली तो उसका सौतेला बेटा भी साथ था। रास्ते में एक खेत पड़ा जिसमें एक हलाई का निशान था। उसे पार किया नही जा सकता था। इसलिए उसने सौतेले बेटे को उस पर लिटा दिया और उसकी छाती पर पाँव रख कर उसे पार कर लिया।

वह मुझे अक्सर धमकाती कि किसी दिन जहर देकर मार डालेगी। मुझे लगता वह ऐसा कर सकती है। सौतेली माताएं तो ऐसा करती ही हैं, पर जहर दिया नहीं, जिसके कारण मैं ये इबारतें लिख पा रहा हूं और जो दिया वह भी किसी कारण अमृत में बदलता गया। मै जिउतिया व्रत में बरियार की तलाश में उसके पीछे पीछे चला जाता। रास्ते में हलाई पड़ती तो पता नहीं क्या होता? कभी पड़ी नहीं, छाती पर कोई घाव नहीं।

असाधारण क्रूरता की ये कहानियां उसके क्रूर व्यवहार को सह्य और दूसरी विमाताओं की तुलना में उसे अधिक दयालु सिद्ध करतीं। ऐसी कहानियां सुनाते हुए उसके मन में क्या भाव होता, यह कभी न जान पाया। यह कह सकता हूं कि मुझे आतंकित करने का भाव नहीं होता, क्योंकि उसके स्वर में व्यथा होती। मैं कहानी को भी समझता था, उस स्वर को भी समझता था। यह मेरी कोईअलग विशेषता नहीं थी। बच्चे भाषा जानने से पहले ही भाषातीत का आशय ग्रहण करने में दक्ष हो जाते हैं।

तब तो नहीं कह सकता था पर आज कह सकता हूं, सौतेले बच्चों की यातनाओं के विवरणों की लोक साहित्य से से लेकर शिष्ट साहित्य तक कोई कमी नहीं, परन्तु अपने समवयस्क किसी युवक के सपने देखने वाली बालिका के किन्ही कारणों से विवाह के साथ ही अनेक सन्तानों की मां बन जाने,, और एक क्रूर निर्णय के कारण ऐसे पुरुष से बंध जाने की त्रासदी को, जो उसे अधूरा मिला हो, जिसका स्नेह पूर्वपत्नी, जो मर कर भी अपनी संतानों में जिन्दा हो, और उसके बीच बंटा हो, उसे पूरा पाने के कितना संघर्ष करना पड़ता है, उसे समाज की नजरों में कैसे पिशाचिनी बना दिया जाता है, उसे एक शिशुजो उसी पर पूरी तरह निहो, अपना शत्र्भरु समझ कर उससे क्ररूरता करते हुए किन यातनाओं से गुजरना पड़ता इस पर, मेरे परिचित विश्व साहित्य में कहीं कुछ नहीं मिलता । क्यों?

शैशव में मैं अपने दुख पर रोता रहा कि मुझे मातृस्नेह नहीं मिला, आजीवन विमाता के उस संघर्ष और उस पीड़ा को समझने में लगाया जो मेरी विमाता को अपना पूरा पति पाने के लिए करना पड़ा और वह फिर भी न मिला। पूरा पति मिलने का अर्थ था सपत्नी का निश्शेष होना, उसका नाम निशान मिट जाना, उसकी संतानों की समग्र उपेक्षा. उनका स्वामित्व के सभी रूपों से बेदखल हो जाना, उनकी जिन्दगी को नरक बना देना। कितने गहन अंतर्द्वंद्व से गुजरना पड़ता है एक संवेदनशील युवती को जिसे विमाता की भूमिका में डाल दिया
जाता है कि वह अपनी लड़ाई भी पूरे आवेग से नहीं लड़ सकती. स्त्री के अधिकारों का हंगामा मचाने वाली महिलाओं में से कोई विमाता के इस अन्तर्द्वन्द्व पर लिखेगा?

मेरी समझ में यह न आता कि भाई साहब उसकी कोई बात नहीं मानते। पकड़ने को दौडाती तो भाग खड़े होते। दीदी उसका कहा मानती नहीं। उलटे दोनों बाबा से शिकायत कर देते। बाबा लाठी पर ठेंगते हुए घर में प्रवेश करते और उसे फटकार लगाते।

मैं ही उसके छोटे मोटे हुक्म बजाता। कभी बाबा से शिकायत न की। शिकायत न करने का एक कारण यह था कि भाई तो भाग कर बच जाते मैं उतना तेज भाग नहीं सकता था। पकड़ में आ जाता और वह इतनी निर्ममता से कान उमेठती और पिटाई करने के साथ धमकाती कि रोया और किसी से कहा तो और पीटूंगी। मैं बिना रोये पिटता, बाहर निकलते हुए आंसू पोछ लेता। फिर कोई एकांत कोना तलाश कर अहक अहक कर रोता, कलेजा फटने वाली रुलाई और बाहर आने से पहले आंसुओं को पोंछ और सुखा लेता कि किसी दूसरे को पता न चले। चेहरे का भाव तक मानो मन में कोई क्लेश न हो।

कोई दूसरा पूछता तुम्हारी मैभा सताती तो नही, तो एक तो यह सोच कर कि यदि कोई शिकायत की और इसकी खबर उसे लग गई तो मेरी खैर नहीं। दूसरे मन में कुछ गुरूर भी था। यातना सहूंगा पर दैन्य नहीं प्रकट करूंगा।

कहता वह बहुत प्यार करती है। मेरा ऐसा कहना धीरे धीरे उसकी ख्याति में बदल गया। लोग उदाहरण पेश करते, ‘मैभा हो तो उस जैसी।’

मैं सोचता इससे उसकी क्रूरता में कमी आयेगी पर इससे उसके व्यवहार के सामाजिक या दिखावटी और निजी दो रूप हो गए थे। एक में वह मेरा नाम बड़े प्यार से जी लगाकर पुकारती और सुनने वाले प्रशंसा से गदगद होकर लौटते । दूसरे में मुझे गबडघूईस कहती और व्यवहार बदल जाता। इस शब्द का प्रयोग मैंने किसी दूसरे से सुना नहीं। घूस या छिपा कर अनुचित लेन देन और गड़बड़ जिसका प्रयोग वहां विकट के आशय में हुआ लगता है.।इसका अर्थ उसके बाद प्रयोग में आने वाले मुहावरे से स्पष्ट होता, ‘चरहा भरहा के अंत है घुइसे के अंत नाहीं।’