Post – 2017-08-26

दास्ताँ अपनी और जबां अपनी

जमीं से हैं जुड़े वे आसमाँ तक फैल जाते है
जो छाते आस्मां पर वे जमीं तक आ नहीं पाते
बहुत मुश्किल है अपने को समझना दोस्तों फिर भी
बुलंदी चाहनेवाले फलक तक जा नहीं पाते

मेरे दुर्भाग्य ने मुझे जो और जितना दिया, सौभाग्य के कारण उससे वंचित रह कर मैं रसगुल्ले का डिब्बा बन कर रह जाता जो इंसानों से अधिक चींटियों को आकर्षक लगता. इस फर्क को मैं जानता हूँ। इसने मुझे अपने दैन्य जन्य नम्रता के साथ ऎसी दृढ़ता प्रदान की जिसमें पाने और जुटाने की चिंता में लगे लोग ‘घर घर दोलत दीन ह्वै जन जन जाचत जाय’ वाले दैन्य से ग्रस्त लगते रहे। उनके पद, प्रताप और प्रभुता के प्रति कभी अवज्ञा का भाव न पैदा हुआ परन्तु स्वयं वैसा बनने की इच्छा न पैदा हुई। जिन विषम या मामूली स्थितियों में रहना पडा उनको लेकर कभी एकांत क्षणों में भी तकलीफ सहते हुए भी मनोबल में कमी न आई।

इसका एक परिणाम या कहें सेल्फ डिफेंस यह कि इसने मुझे नियतिवादी बना दिया। इन दुर्भाग्यों में से एक था बीए के बाद आर्थिक साधन के अभाव में आगे की पढाई की समस्या. इससे पहले मेरिट के वजीफे से काम चलता रहा। बीए से आगे उसकी संभावना न थी. सोचा बनारस में शायद ट्यूशन या कोई और साधन जुड़ जाएगा। वजीफे की बची हुई रकम मिली तो बनारस पहुँचे। वहां जिस अंग्रेजी साहित्य के कारण मेरा बीए का फर्स्ट क्लास मारा गया था, उसमें प्रवेश मिल रहा था. मैं अंग्रेजी में नही हिन्दी से एमे करने को कटिबद्ध था। उसी के लिए बीए में आगरा यूनिवर्सिटी के प्रतिबन्ध के कारण कि तीनो ऐच्छिक विषय साहित्य के नहीं हो सकते संस्कृत और अंग्रेजी साहित्य के साथ दर्शन शास्त्र लिया था कि हिन्दी का आधार मजबूत रहे! दूसरे विषयों के कुल अंक ३०० में मुझे अच्छे अंक मिले पर अंग्रजी सामान्य और साहित्य के २५० अंकों में ५० प्रतिशत। शायद ये ५० प्रतिशत अंग्रेजी में दाखिले के लिए ठीक थे।

मैं अपने एक मित्र के साथ, जिसके भी अंग्रेजी में ५० प्रतिशत थे रजिस्ट्रार ऑफिस पहुँचा तो पता चला दाखिला बंद हो चुका है, फार्म तक नहीं मिल सकते. फिर भी यदि मेनन जी चाहें तो मिल सकता है. पता चला कि वह घर जा चुके हैं। पता लगाकर उनके घर पहुंचे तो पता चला वह अभी आये ही नहीं। लौटने लगे तो तहमद, चप्पल और आधी कमीज में एक पचास के आसपास के ठिगने से सज्जन तेजी से उस घर की और आते दीखे। उन्होंने ही जब पूछा कि हम कौन हैं तो पता चला यह वही मेनन हैं जिनकी तलाश में हम पहुंचे थे। यह जानकर कि हम गोरखपुर से आये हैं, पूछा, कहाँ ठहरे हो? खाना खा लिया ? हमें कहना पडा हम खाना खा चुके हैं। उन्होंने एक चिट पर लिख कर अनुमति दी की इन्हे दाखिला फार्म दे दिया जाय। देते हुए कहा, अगर कोई समस्या हो तो आ जाना मैं साथ चलूँगा। अंग्रेजी में मुझे दाखिला मिल रहा था पर मैं तो हिन्दी में एमे करना चाहता था। फार्म मिल गया था। द्विवेदी जी के पास पहुंचा। उस समय वह घर से अपनी क्लास के लिए जा रहे होंगे। आसपास छात्र गण मदमत्त गयंद के मद पर मदराते भृंग जैसे चल रहे थे और इसका बोध भी उन्हें था। इससे तुष्ट भी लग रहे थे। उनके बीच केदार जी भी थे। तब तक वह मुझसे और मैं उनसे परिचित थे। जब मैंने अपनी समस्या उनसे बताई तो उन्होंने द्विवेदी जी से बात की। उन्होंने कहा बीए में हिन्दी नही थी तो एमे हिंदी में दाखिला नही हो सकता। विश्व विद्यालय का नियम था। वह कुछ कर नहीं सकते थे।

केदार जी ने आकर बताया। मैं लौट आया । द्विवेदी जी के निर्णय में कुछ भी आपत्तिजनक न था परन्तु हमारे किशोर मन पर मेनन जी के छोटे से कद और व्यवहार की इस ऋजुता के कारण वह अपने कद के विपरीत आस्मां तक उठे लगे और उसकी तुलना में द्विवेदी जी का महिमामंडित गमन और कथन उनके उन्नत और बोझिल व्यक्तित्व के कारण कुछ ऐसा प्रभाव छौड गया कि जब भी उनके शिष्यों या प्रशंसकों से उनकी प्रशस्ति सुनता मेनन याद् आ जाते। यह फिक्सेशन सा बन गया और द्विवेदी जी से उनके किसी भी शिष्य की तुलना में अधिक प्रभावित होने के बाद भी, उनको मेनन जी जैसे ठिगने के सामने खडा कर देता हूं जिससे वह उनसे छोटे लगने लगते हैं। द्विवेदी जी अपनी आत्म छवि को लेकर बहुत सतर्क थे। इसने उन्हें अपनी महिमा से कम रहने दिया।