लोकप्रियता और लोकहित
हम तुम्हे चाहते हैं पर देखो
जान हो, जान के दुश्मन भी हो.
तुम हो मेरे गले का हार मगर
तुम मेरी लाश के कफन भी हो.
इस अप्रिय विषय पर लिखने चला तो यह मिसरा कहाँ से उपस्थित हो गया. यह मुझे पता न था. लोकप्रियता उत्कृष्टता का मानक नहीं बन सकती, परन्तु लोक तक पहुँचे बिना हम क्या जनमानस को कोई दिशा दे सकते हैं? यह किसी पर कोई आरोप नही. एक प्रश्न है कि विचार, कला और कौशल में हम किसे छोड़ कर कला को एक सशक्त संचार माध्यम बना सकते हैं और अपने को, कला को कलाकार के दायित्व को बचा भी सकते हैं और नए प्रयोग भी कर सकते है? उस सुबह को आना है लेकिन वह सुबह शाम तक आएगी. आपका क्या ख्याल है ?