Post – 2017-08-22

प्रतिबद्धता की सीमा

मेरे तर्क और प्रमाण पर ध्यान दें, पर निष्कर्ष पर भरोसा न करें. जो ध्यान न देगा वह अपना बचाव न कर पाएगा और मुश्किल में पड़ जाएगा, जो भरोसा करेगा वह बेमौत मरा जाएगा. मैंने जब पक्षधर भूमिका अपना ली और उसका वकील बन गया जिसकी बात रखने वाला कोई नहीं मिल रहा था, उसी समय मैं एक विचारक और निर्णायक की भूमिका से उतर कर वाद प्रतियोगिता के एक प्रतियोगी या प्रतिपक्ष की भूमिका में आ गया जिसमें मैं सही न होते हुए भी अपने को सही और सही को गलत या अवांछनीय सिद्ध करने का प्रयत्न करने को प्रतिश्रुत हूँ. परन्तु यदि मेरे इस बेबाक आत्मस्वीकार से आपको यह समझ में आ जाए कि पक्षधरता, वह किसी नाम से हो, या किसी भी ध्येय को समर्पित हो न न्यायपरक हो सकती है न मानवतावादी, भले ध्येय की पवित्रता से आकृष्ट हो कर महान से महान विभूतियाँ स्वयं अपना जीवन इसके लिए उत्सर्ग कर दें. और यह न जान पायें कि उन्होंने इस पवित्र आवेश में यातना और वेदना के कितने रूपों को देखने और जानने से इनकार कर दिया. यह समझने का प्रयत्न तक नहीं किया कि वे जिस मानवतावादी सरोकार से एक संगठन से जुडे थे वह मानवतावाद है या औपचारिक मानवतावाद या व्यावहारिक मानवतावाद है. खैर राजनीति संभावनाओं का खेल है, इसलिए उसकी विवशताएँ है, परन्तु साहित्यकार और कलाकार को भी क्यां उनकी वेदनाओं से अनजान या जानकर भी निर्वेद रहने का अधिकार था?
वैचारिक प्रतिबद्धता, कलात्मक प्रतिबद्धता में जिस तत्त्व का आभाव या क्षय होता है वह मानवीय संवेदना का अभाव. इसमें कलाबाजी दिखाई जा सकती है जो कलावाद की विरोधी प्रतीत होते हुए भी कलावाद से भी अनुर्वर हो सकती है.
इस सत्य का साक्षात्कार मुझे उस अभागे का वकील बनने के बाद हुआ. क्या आपको इस बहस से कोई फायदा हुआ? यदि मैंने नतीजा निकाला उससे सहमत हो गए तो आप गए. आप हैं और रहेंगे यह सिद्ध करने के लिए मुझे और मेरे पाठकों को बताएं कि किन बातों को मैंने छिपा लिया है और उनके आने पर निष्कर्ष कितना बदल सकता है?