Post – 2017-08-19

“हाँ, अब बताओ उस आसन्न खतरे की बात। हम तो पहले दिन से समझ गए थे कि अब फासिज्म आरहा है और इसे रोकना होगा। तुमने ऐसी उलटी खोपड़ी पाई है कि इसे लोकतंत्र की जीत और नए युग का आरम्भ बता कर लोगों को भ्रमित कर रहे थे। देर से ही सही दिमाग में हमारी बात दाखिल तो हुई।”

“तुम कोई काम सही कर ही नहीं पाते और गलत हो नहीं सकते, इसलिए ला-इलाज हो। पहले ही दिन से फासिज्म का हौआ खडा करके उसका रास्ता तैयार कर रहे थे, फिर भी वह नहीं आया। कोशिश बेकार गई, पर जिद बनी हुई है और खबर यह आ रही है कि अगला चुनाव भी हार चुके हो। जल्दी का काम शैतान का। तुम्हारे साथ तो शैतानों की लश्कर है। बटन दबाते ही एक्शन में आ ज्जाते हैं और उसके बाद सोचते हैं कि कर क्या रहे हैं। पूरी बात जाने-सुने बिना उतावले होकर अपने लिए ही एक डरावने भविष्य की कल्पना कर लेते हो और उसमें जीना भी शुरू कर देते हो। पहले यह तो समझते कि मैं किस खतरे की सम्भावना देखता हूँ और क्यों। लेकिन उससे पहले तुम्हें यह बता दूँ कि आज तक लगातार गलतियाँ करने और उनके परिणाम देखने के बाद भी यदि तुम यह नहीं समझ सके कि तुमसे गलती हो रही है, तो क्या मैं केवल तर्क से तुम्हें कोई बात समझा पाऊंगा?

“मैं आज भी मानता हूँ कि मोदी स्वतन्त्र भारत का सबसे योग्य, दूरदर्शी, परिश्रमी और अपनी कथनी को करनी में बदलने के लिए प्रयत्नशील प्रधानमंत्री है। परन्तु मैं यह भी जानता हूँ कि सत्ता प्राप्त करने के तरीके और सत्ता में बने रहने के हथकंडे नैतिक आदर्शों के अनुरूप वहाँ भी नहीं रह पाते जहां कोई पूरे अन्तःकरण से उनका निर्वाह करना चाहता है। गांधी जी पर भी ऐसी विचलन के आरोप लगते रहे हैं और उन आरोपों को सही मानते हुए भी मेरे मन में गाँधी की महिमा के विषय में कभी संदेह नहीं पैदा हुआ। हम यहाँ इस बहस में न पड़ेंगे कि क्यों।

“मोदी ने आरम्भ से ही अपनी कूटनीतिक दक्षता का परिचय देते हुए अपनी राह अकेले दम पर बनाई है – जातीय समीकरणों को तोड़ते हुए, अपने संगठन के महारथियों को सादर हाशिये पर डालते हुए, न कि किताबी नैतिक आदर्शो का पालन करते हुए। यह एक योग्य प्रशासक का अनिवार्य गुण है। इस दक्षता का प्रमाण उसने अंतर्राष्ट्रीय मंच पर भी दिया है। खीझे हुए लोग, हारे हुए या घबराए हुए लोग, मोदी को अपनी दुर्दशा का कारण मान कर उसकी खिल्ली उड़ाते रहते हैं, पर वे उसका मूल्यांकन नहीं कर सकते। केवल उसके दुर्गुणों की तलाश और और काल्पनिक दोषों का अविष्कार कर सकते है। तिल का ताड़ बना सकते हैं। उसकी सफलताओं से उनकी घबराहट बढ़ जाती है, इसलिए उनका प्रयत्न होता है कि सफलताओं पर नजर ही न डालें, यदि किन्हीं परिस्थितियों में उनकी उपेक्षा संभव ही न हो तो सफलता को विफलता के रूप में चित्रित करें। शब्दों के बाजीगर दुर्गुण को सद्गुण और सद्गुण को दुर्गुण सिद्ध कर सकते है। यदि कोई देदाग सफ़ेद हो तो कह सकते है इसका कोई रंग ही नहीं, या कफन जैसा सफ़ेद है, रंग और धब्बे मिल गए तब तो कुछ पूछो मत।

“इसका यह मतलब नही कि मोदी में कमियाँ नहीं तलाशी जा सकतीं। मसखरेपन की लत के कारण वास्तविक कमियों पर ध्यान ही नहीं जाता। जिन कमियों को हम दूसरों के मामले में नजरअंदाज करते रहे है, जिनका बहुत सीमित या नगण्य महत्त्व है या जिनकी प्रकृति नितांत निजी है और जिनसे देश को कोई क्षति नहीं पहुंचती, उनकी उपेक्षा की जानी चाहिए, अन्यथा एक और तो खरी आलोचना करने के हमारे अधिकार का क्षरण होता है, दूसरी ओर जिसकी तुम निन्दा करते हुए जनता की नजर में उसे नीचा दिखाना चाहते हो वही उस व्यक्ति का स्तुति गान बन जाता है ।“

“समझ में नही आई बात।“

“इसके तो असंख्य नमूने मिलेंगे। मोतीलाल, जवाहर, इंदिरा के निजी जीवन की कहानियों से परिचित समाज को उनसे बड़े कौन से किस्से सुना सकते हो मोदी के बारे में? तुम्हारे याद दिलाने पर मन ही मन उनसे तुलना करने पर उनकी अपेक्षा किस ऊचाई पर पाते है मोदी को? तुम सोचते हो जो तुम कहते हो उसे तुम्हारा श्रोता उसी तरह सुनता है। नही, ऐसा नही होता, लोग संपादित करके उसका अक्षर पाठ नही करते, आशय पाठ करते हैं। हमारे एक प्रिय कवि ने बड़ी जोरदार कविता लिखी :

आपके कपड़ों पर बात हुयी
आपके झूठों पर बात हुयी
आपकी अदाओं पर बात हुयी
विदेश यात्राओं पर बात हुयी
आपमें कुछ होता तो
आप पर भी बात होती!

एक आदमी इसका पाठ कर रहा था : ‘आपके कपड़ों में कमी पाई, उस पर चर्चा होती रही, आप के झूठ में कमी पाई गई उस पर चर्चा होती रही गरज कि आप कायदे का झूठ भी नहीं बोल पाते, आपकी अदाओं में कमी तलाशी गई, उन पर मुग्ध होकर निंदक भी मोदी मोदी क्यों गाने लगते हैं, इस पर चर्चा गर्म रही, विदेश यात्राओं में कमी पाई गई पत्रकारों को ले ही नहीं जाते उस पर चर्चा गर्म रही, यदि आप में भी कोई कमी पाई गई होती तो आप के भी चर्चे गर्म रहते पर कोई मिली ही नहीं. चुप रहना पडा.’ तुम्हारा निंदा कथन स्तुति पाठ बन गया.

“एक दूसरे मित्र ने चित्र बनाया, नीचे गधा, उसपर सवार कुत्ता, उसके ऊपर बिल्ली, और सबसे ऊपर मुर्गा साथ में कैपसन: गधे के मुंह से ‘थक गया, अच्छे दिन नज़र आए थे’, सबसे ऊपर मुर्गे के मुंह से, ‘अच्छे दिन नज़र नही आते.’ वही आदमी उसे भी पढ़ रहा था ‘पालतू जानवरों के अच्छे दिन कभी थे, अब न रहे।“

खाने इतने साफ़ बंटे हुए है कि एक ही इबारत के अर्थ बदल जाते हैं, एक ही परिघटना को देखने के नज़रिए बदल जाते है. इसलिए पहले तुम संचार भेद को तोड़ने वाली दृष्टि पैदा करो उसके बाद ही मैं उन खतरों को समझा पाऊँगा अन्यथा मैं कहूँगा कुछ तुम सुनोगे कुछ। और सुनो, यह काम बहुत मुश्किल नही है। इसकी पहली शर्त है वस्तुपरकता।

“मैं यह नहीं कहता कि तुम वर्तमान व्यवस्था के समर्थक बन जाओ, या भाजपा या मोदी की निन्दा न करो। करो परन्तु जिस इरादे से कोई काम करते हो उसकी पूरी तैयारी कर के इस तरह तो करो कि परिणाम वैसे आएं तो सही। हो उल्टा रहा है। इसे समझना भी कठिन नहीं है। इसकी पहली शर्त है देश, काल, और बलाबल का ज्ञान।

वह हंसने लगा, ‘‘यार मैंने गलत छेड़ दिया। तुम किसी आसन्न खतरे की बात करने वाले थे। गलती से मुंह से निकल गया होगा। बाद में सोचा फस गए और खतरों की जानकारी देने की जगह अपनी आदत के अनुसार फिर कीर्तन आरंभ कर दिया और चाहते हो हम तुम्हारे कीर्तन और आरती में बाधा न डालें ।’’

‘‘’तुम्हारी मति मारी गई है’, यह वाक्य मैने उस हल्के अन्दाज में नहीं कहा था, जिसमें तुमको गधा कहता रहता हूँ, जो तुम हो नहीं पर कभी कभी लगते हो, जैसे अब। तुम्हें यह तक समझ में नहीं आया कि मैं उन खतरों को ही बयान कर रहा हूँ जिनका तुम्हे सामना करना है। यह है संचार भ्रंश का वह खतरा जिसमे तुम्हें मिटाएगा कोई नहीं, पर तुम दिखाई न दोगे। इससे बचने का एक ही तरीका है। जिम्मेदारी से, पूरे देश के हित में सोचो और बोलो। लोग तुम्हें सुनने लगेंगे। हेड हंटिंग करोगे तो लोग तुम्हें सुनने की जगह तुम्हारे सर के पीछे पड जायेंगे।