Post – 2017-08-16

टकावादी मार्क्सवाद – ७
(अर्थात् बात गाली की सिर्फ गाली की)।
“कुछ तय कर पाए कि मति किसकी मारी गई है?”
“उसमें तय क्या करना है भाई? क्या तुम्हें पता नही है कि तुम किसका साथ दे रहे हो? क्या अब भी बताने की जरूरत है कि तुम्हारी अक्ल पर पत्थर पड़ गया है?”
“मैं कितनी बार दुहराऊं कि मै उस व्यक्ति का साथ दे रहा हूँ जो इस देश की महाव्याधि साम्प्रदायिकता से मुक्ति दिलाने के लिए कृतसंकल्प है जिससे रतुम्हारी मोटी खोपड़ी में यह बात घुस सके?”
“तुम्हें यह बात समझ में क्यों नहीं आती कि भाजपा संघ की संतान है? मोदी पहले संघ के सेवक हैं फिर उसकी राजनीति के अग्रदूत। भाजपा संघ से अलग नहीं जा सकती है।”
“क्योंकि मैं जानता हूं कि विकास पूर्वरूप या जनक जननी से भिन्न होता है। देखो, मैंने मति मारी जाने की कठोर टिप्पणी इसलिए की थी कि तुम्हारे पास घबराहट है, एक तरह की छटपटाहट है, जिसमें तुम्हारी प्रमुख चिंता अपने को बचाने की है, परन्तु पस्ती है, इस सीमा तक है कि अक्ल काम नहीं कर रही है। याद करो कितने समय से तुम्हारे दिमाग में कोई नया विचार आया ही नहीं। तुम्हारे पास बाँटने को नफरत तो है, पर विचार नहीं।
“तुम कितने समय से अपने से असहमत होने वालों को गालियां देकर उनकी ज़बान बंद करने की कोशिश इसलिए करते आ रहे
रहे हो क्योंकि तुम्हारे सभी अनुमान ग़लत हो रहे हैं और उनके सही। .
“तुम्हें मैंने कितनी बार समझाया कि गलियां हार का प्रमाण और पराजित की तड़प की अभिव्यक्ति होती हैं। जीतने वाला गाली नहीं देता, किसी को कोसता नही, अपने को गलियां देने वालों पर हँसता है। यह हार तुमने मोदी क़े क़ेन्द्रीय रंगमंच पर कदम रखते ही स्वीकार कर ली। पहले दिन ही तुमने मान लिया कि कोई चारा नहीं बचा है। तुमने केवल दहशत जाहिर की. और तुम्हारे कुछ साथी तो अपने लिए जेल की कोठरियों तक के लिए तैयार करने लगे। किसी ने आलोचना तक न की। ऐसे संचार माध्यम थे जो समाचार देने की जिम्मेदारी के कारण जाते उसकी सभाओं की बानगी लेने पर दहशत के चलते मंच क़े सामने का दृश्य दिखाने की जगह पीछे का हिस्सा दिखाते थे। तब से आज तक तुम्हारी भाषा, तुम्हारे तरीके, तुम्हारे पीठ पीछे से देखने क़े तरीके में कोई अंतर नही आया। यहां तक की तुम अपना दोस्त दुश्मन तक पहचानना भूल गए। गाली और कोसने की भाषा उन तक पहुँचने लगी जहां विचार की क्षीण संभावना बची लगती थी। पस्ती का ऐसा अबाध प्रसार कि अपने को बचाने क़े दरवाजे तक बंद दिखाई दें।
“जानते हो एक दिन क्या हुआ? तुमने भक्त कह कर कई बार शास्त्री जी का मुंह बंद करने की कोशिश की थी जब कि वह अपनी बात सुलझे और तर्कसंगत रूप में रखते हैं. एक दिन खीझ कर कहने लगे डास्साब अब अपनी बात तर्क और प्रमाण के साथ रखने के बाद कहूँगा चुगद लोग इसे नहीं मानेंगे.”
मैंने उन्हें आड़े हाथों लिया, “आपका ऐसा पतन हो सकता है यह तो मैंने सोचा ही न था.” वह घबरा गए तो मजा लेते हुए कहा, “पहले तो आपने अपनी पवित्र भाषा का अपमान किया जो म्लेच्छ भाषा का शब्द आपकी जिह्वा पर आया, अब आपको इसे पंचगव्य से पवित्र करना पड़ेगा। दूसरे आपने यह सोचा तक नहीं कि ऐसा करेंगे तो आप अपना ही अपमान करेंगे. कारण, गाली गाली देनेवाले की असभ्यता का अकाट्य प्रमाण होती है.”
शास्त्री जी आसानी से हार नहीं मानते हैं इसलिए उलझ गए, “डाक्साब, आप मेरे प्रति अन्याय कर रहे हैं. मैं उलूक भी कह सकता था परन्तु उल्लू हमारी परम्परा में असाधारण सतर्कता का प्रतीक रहा है, इसलिए उसको तत्वदर्शी मुनि या सामान्य जनों के तन्द्रा और स्वप्न में चले जाने वाली अवस्था में भी जागरूक और तमभेदी दृष्टिवाला माना जाता रहा है। आप को गीता का वह श्लोक याद होगा : ‘या निशा सर्वभूतानाम तस्यां जाग्रति संयमी, यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुने:!
“इसकी एक लम्बी परम्परा है जो ऋग्वेद तक जाती है, आपको समझाने का दुस्साहस तो नही कर सकता, परन्तु इसी प्रबुद्धता के कारण उल्लू को लक्ष्मी का वाहन बनाया गया इसकी और आपने ध्यान न दिया। इसी के कारण उसकी आवाज को आसन्न आपदा का सूचक मन जाता है. इसी बोध के प्रसार का परिणाम है कि जहाँ तक वैदिक संस्कृति का प्रसार हुआ वहां यह ग्यानी पक्षी माना जाता रहा। परन्तु मुझे ऐसा लगता है, ज्ञान. सतर्कता का वही पक्षी रहजनों, लुटेरों और तस्करों के लिए घृणा का पात्र बनकर एक भिन्न दृष्टि से मुर्खता का प्रतिक बन गया।
“इसलिए उल्लू और चुगद दोनों का अर्थ एक है परन्तु भाव भिन्न है. एक के साथ ज्ञान जुडा है दूसरे के साथ मुर्खता. एक के साथ यह भाव है कि जिसे कोई नहीं देख सकता उसे वह देखता है, दूसरे में यह कि जो सब लोग देख रहे हैं उसे वह देख नही पाता।
“रही दूसरी बात कि मैंने गाली दी और इसलिए चुगद का प्रयोग किया तो वह मैंने एक प्रतीक के रूप में किया जैसे हम ड्रैगन, टाइगर, लायन, कांगरू, किवी आदि का करते है।”
सच बात तो यह है कि मैं जितनी भी कोशिश करूं आवेग से पूरी तरह मुक्त न हो पाया हूँ, इसलिए मैं शास्त्री जी के ज्ञान से प्रभावित होने की जगह अपमानित अनुभव कर रहा था और उनसे बदला लेने के लिए भीतर ही भीतर तिलमिला रहा था और तिलमिलाहट की एक वजह यह थी कि उनका कथन अकाट्य लग रहा था। संकट से उबारनेवाले का नाम जो भी रखें, असहाय लोगों कि सहायता वही करता है। वही मेरे भी काम आया.
“मुझे ठीक इसी समय एक उत्तर सूझ गया। मैंने शास्त्री जी से कहा, “शास्त्री जी, अर्थ शब्दों से अलग उन आशयों के संचार में होता है जिनसे आप किसी शब्द या प्रतीक का प्रयोग करते हैं और यदि आपने अपने लिए अवहेलना या तिरस्कार के आशय से प्रयुक्त किसी शब्द से आहत हो कर दूसरे को आहत करने के लिए किसी शब्द या प्रतीक का प्रयोग किया तो आप उसके स्तर पर उतर आये जिसे आप जघन्य मानते हैं। होली के हुडदंग में पहल जिसकी भी हो एक बार शामिल हो जाने के बाद आप उससे अलग नही रह जाते। गाली दे कर आपने बदला नहीं लिया, उनकी जमात में शामिल हो गए, जिनको आप इसी शिथिलता के कारण गर्हित समझते थे, जिनके पास गाली के अलावा कोई प्रभावी तर्क न बचा था, उसी संबन्ध के लिए जिसमें दहेज़ देना पड़ता है , यदि कोई अपमानित करने के लिए प्रयोग करे तो अपमानित अनुभव करते हैं. अपमानित करने वालों की हाट से आदमी एक ही सौदा लेकर लौटता है। अपमान। वहाँ देने को भी वही, पाने को भी वही।”
शास्त्री जी तो चुप हो गए, मेरी लाज भी रह गयी, पर क्या तुम इसे समझ पाओगे ?