Post – 2017-07-24

हम अपने खयाल को सनम समझे थे (1)

मेरे मित्र सिन्हा जी की प्रतिक्रिया में कुछ बातें इसलिए भी विचारणीय हैं कि मेरे विषय में अनेक दूसरे लोगों के विचार भी वैसे ही हो सकते हैं। इसका कुछ आभास मुझे कौसानी संवाद में मिला था पर ऐसे अवसरों पर जिन पर गंभीर बहस नहीं हो सकती थी। मेरे एक मित्र (मित्र कहूँ तो कॉटन धावे , क्योंकि फेसबुक फ्रेंड नहीं हैं), फिर भी मित्रोपम, आलोक श्रीवास्तव ने, चाय की चुस्की के साथ कहा, “आप की उम्र कुछ कम होती तो वे आपको किसी बड़े पद पर बैठा देते। आलोक जी उम्र में मुझसे कम हैं पर अनुभव और ज्ञान में मुझसे आगे हैं। इसलिए वह मुश्किल कथ्य का प्रीतिकर पाठ कर सकते हंजिसका अर्थ ध्वनि से ही जाना जा सकता है। वह है ही लिहाज या आतंक के दबाव में जबान बंद लोगों की आवाज। ध्वनि में यह सुविधा होती है कि आप कोई अर्थ निकालें तो दूसरा बचना चाहे तो कहे मैंने तो इस आशय से यह कहा था। यह चोरदरवाजों वाली वह भाषा है जो अप्रिय सत्य के कथन और श्रवण को संभव बनाती है । अतः उनके कथन का एक चोरदरवाजा-पाठ यह बनता है कि आप का लेखन कुछ पाने की अभिलाषा से जुड़ा है।

मैं ध्वनि और व्यंग्य समझ नहीं पाता, समझने में समय लगता है, पर जो जवाब उस कथन को स्वाभाविक वाक्य मान कर देता हूँ वह अभिधा, व्यंजना और ध्वनि सभी का जवाब बन जाता है क्योंकि मैं व्यंग्य और ध्वनि को भी अभिधा मान कर स्पष्टीकरण देता हूँ। मुझे यह खुशफहमी है कि वह मेरे उत्तर से संतुष्ट हो गए होंगे। यदि न होते, या इसका आभास देते तो भी मेरे लिए उनके विचारों का सम्मान इस सीमा तक रहता कि कुछ लोग मेरे बारे में ऎसी राय रखते है। वे अप्रिय राय रखते हैं इसलिए वे मुझे बुरे नहीं लगते, गलत नही लगते, इसलिए कटुता पैदा नहीं होती, पर मुझ पर उनकी राय का प्रभाव नहीं पड़ता। मेरा मानना है कि तक तक अपने ज्ञान, अनुभव और विवेक से कोई किसी बात को सही मानता है, तब तक उसे अपने मंतव्य पर दृढ रहना चाहिए और इसलिए जो लोग यह सोचकर कि ‘सभी लोग तो यह मानते हैं, यदि मैंने वैसा न माना तो मैं कहीं का न रहूँगा’ दूसरों के विचार से अनुकूलित हो जाते हैं , उनके पास दिमाग तो होता है पर उससे काम न लेकर दूसरों के दिमाग से काम लेते हैं और उनके काम के होते हैं जिनके मुहाविरे दुहराते है.। उनका अपना अस्तित्व तक नही होता। वे विचारक नहीं होते. मात्र ढिंढोरची होते है. उनको कान में उंगली लगाकर सुनना कान खोल कर सोचने और समझने की पहली शर्त है.

लेखक को अलग से सफाई देने की आवश्यकता नहीं होनी चाहिए, क्योंकि उसका समग्र लेखन ही अपने विषय के साथ लेखक के भी अन्तर्मन का अघोषित दस्तावेज होता है। उसका कोई कथन या लेखन उसकी समग्रता में ही देखा या समझा जा सकता है जैसे हमारे किसी आचरण को हमारे समग्र व्यक्तित्व के सन्दर्भ में देखा जाता है। परन्तु किसी से यह अपेक्षा नहीं की जा सकती कि वह आपके समग्र लेखन से या समग्र पूर्ववृत्त से परिचित हो तभी आप से संवाद करे इसलिए यदा कदा संक्षिप्त स्पष्ट कथन जरूरी हो सकता है।

मेरी यह पक्की राय है कि हमें केवल अपने कार्य और विशेषज्ञता के क्षेत्र में ही अधिकार से कुछ कहने का अधिकार है, उसे हम पूरी निष्ठा से कर सकें तो वह काम अपने से अलग एक सामाजिक और राजनीतिक, यहां तक कि रणनीतिक भूमिका भी निभाता है।

मैंने यह कई बार कई तरह से रेखांकित किया है कि मोदी पहले राजनेता हैं जो मन्दिर और मजहब और किताब और जाति की राजनीति को देश के लिए अहितकर मानते हुए विकास की राजनीति की बात करते हैं। सामरिक तैयारी के स्थान पर आर्थिक विकास को वरीयता देते हैं, और इस कारण संघ के हिन्दू राष्ट्रवाद से आगे बढ़ कर समग्र देश के उत्थान से जुड़ी राष्ट्रवादिता के प्रवक्ता बन कर केन्द्रीय राजनीति में आए हैं और जो वादे उन्होंने चुनाव से पहले किए थे उन्हें पूरा करने के लिए प्रयत्नशील हैं।

जिन दलों की जमीन खिसक गई वे लगतार उनके कम में बाधा डालते और समस्याएं पैदा करते रहे हैं और उनके सही दिशा में प्रयोगों की भी उलटी व्याख्या करते रहे हैं और इसलिए उन्हें दो तरह की समस्याओं से जूझना पड रहा है. एक वास्तविक, दूसरी इनके द्वारा पैदा की गई. इससे पहले कभी किसी सर्कार को इस तरह के आतंरिक अवरोधों और खुराफातों का सामना नही करना पड़ा. इसके बाद भी उन्हें असाधारण सफलता और स्वीकार्यता मिली है. मैं अर्थशास्त्री नही पर इतनी बात सब को पता है कि पूंजीवादी विकास समस्याएं पैदा करता है. बड़ी मशीन हजारों का रोजगार छीनती है पर दूसरे रस्ते भी तैयार करती है. वहाँ कौशल और निजी पहल की जरुरत होती है. पूंजीवादी विकास में पूंजीपति अधिक धनी और ताकतवर होता है, पीठ पीछे से सरकार भी वही चलाता है. पर सामंती व्यवस्था से आगे बढ़ने का भी वही रास्ता है. समाजवाद उससे बाद की और उसकी विफलता से पैदा अवस्था है. सामंती व्यवस्था में समाजवादी प्रयोग अल्पजीवी होते हैं इसलिए मैं अम्बानी अदानी के नाम पर छाती नही पीटता. समाजवाद की मेरी यही समझ है और इसलिए मैं अपने को अधिक सही समाजवादी मानता हूँ.

मोदी का विरोध करने वाले अराजकतावादी हथकंडे अपना रहे हैं, अपने को जिलाने के लिए देश का अहित करने पर उतारू हैं, इसलिए मैं उनका समर्थन नहीं कर सकता. मार्क्सवादी अराजकतावादी नहीं हो सकता. मोदी लोकतंत्रवादी हैं और अभी तक कोई तानाशाही रुझान नही दिखाया है. बकौल मार्क्स समाजवाद का रास्ता लोकतंत्र से हो कर गुजरता है.