Post – 2017-07-15

समाज और साहित्य

अभिव्यक्ति की प्रक्रिया, जहां वह कलात्मक रूप नहीं लेती है वहां भी कुछ जटिल होती है जिसमें हम ऐसे अनेक पूर्वापेक्षाओं से अनुकूलित रहते हैं जिसका प्रभाव हमारे शब्दचयन, वाक्यविन्यास, आवाज के चढ़ाव उतार और मुद्रा पर पड़ता है जिनको हम लगभग पूरा कर पाते हैं परन्तु पूरी तरह संन्तुष्ट नहीं हो पाते। अक्सर बाद में सोचते हैं कि यदि इस तरह अपनी बात रखता या इतने संयत होकर या आवेश से अमुक बातों को कहता तो अधिक अच्छा रहा होता। किसी परिचित से, आत्मीय मित्र से, अपने से छोटे बच्चों से, पत्नी से, प्रेमिका से, दुश्मन से आपने सामने, या बहुतों से एक साथ मंच से, गोष्ठी में, क्लास में समझाने या प्रभाव जमाने के लिए अपने को व्यक्त करते हैं तो इनके अनुसार सभी का अनुकूलन हो जाता है।

कहें सामान्य संचार में भी कलात्मकता का पुट होता है। जहां सचेत रूप में कलात्मक अभिव्यक्ति का प्रश्न आता है, आवेग का पक्ष अधिक प्रबल और विचारपक्ष कुछ दब सा जाता है वहां पूर्वानुमेयता उसी अनुपात में घट जाती है और रहस्यमयता अधिक प्रधान हो जाती है। परन्तु सभी अवस्थाओं में अभिव्यक्ति का सामाजिक चरित्र होता है और हमारे भाव, विचार, भाषा सभी को दूसरा, वह उपस्थित हो या अनुपस्थित, बड़े सूक्ष्म रूप में प्रभावित करता है।

सर्वोत्तम स्थिति वह होती है जिसमें मन मिलता है, भिन्नता विचारों या संवेदनाओं तक सीमित रहती है। भाषा का संकट उपस्थित नहीं होता, जिसके होने पर संचार अन्य के भाषाज्ञान के स्तर से प्रभावित होता है। यह संकट भाषा से आरंभ होता है, पर भाषा तक सीमित नहीं रहता, रुचि और संवेदन के चरित्र को भी प्रभावित करता है, और ऐसी स्थिति में रचनात्मक चुनौतियां बढ़ जाती हैं।

समस्या यह पैदा होती है कि हम कैसे भिन्न संस्कृति के उत्तम को आत्मसात करें और अपने समाज के लिए ग्राह्य बनाएं। यह अकेले रचनाकार की समस्या नहीं है । यह उस बोध से जुड़ी समस्या भी है जो हमें यह समझने में मदद करता है कि हमारे समाज की अपनी सौन्दर्याभिरुचि क्या है और उसके मर्म की रक्षा करते हुए, जो नया है, उसको पुनराविष्कृत किया जाय कि उसका अजनबीपन कम हो सके। यदि किन्हीं कारणों से समाज में कलाविमुखता पैदा हो चुकी है तो उस तक कैसे पहुंचा जा सके । यह इस समझ पर निर्भर करता है कि वह साहित्य से क्या अपेक्षा रखता है। यह उनकी भी समस्या है, जो कलामान तय करते हैं और रचनाकार और भावक के बीच सेतु का काम करते हैं। इस समस्या को एक उदाहरण से मूर्त किया जा सकता है।

भारत से पश्चिम का सांस्कृतिक टकराव हुआ तो दोनों एक दूसरे की विशेषताओं से अभिभूत हुए और उसे ग्रहण करने की आतुरता दिखाई। हम कह आए है कि हमारे विचार और साहित्यिक कृतियों ने पश्चिम को इतनी गहराई से झकझोरा जो जर्मन दार्शनिकों और कवियों से आरंभ हो कर क्रमशः पूरे येरोप में फैल गया और उससे नई साहित्यिक चेतना और कई आन्दोलनों का जन्म हुआ। परन्तु पश्चिम ने इसे इस तरह आत्मसात किया कि वह यूरोपीय समाज में सहज रूप में, वायु की नई तरंगों की तरह पुलक और उत्फुल्लता पैदा करता हुआ अपनी परंपरा का ही विकास बन कर उपस्थित हुआ और पाठकों को पराएपन का भान तक नहीं हुआ। ।

हमने भी उनसे ग्रहण किया और इससे लाभान्वित हुए। सबसे बड़ा लाभ तो गद्यविधा की शक्ति और गद्यसाहित्य का महत्व समझ में आया । हमने गाने की जगह खुल कर बोलना सीखा और इसका सबसे अघिक लाभ विचार और संचार के साधनों को मिला। फिर भी कहीं कोई चूक हुई कि हमारा पहले का साहित्य जिस स्तर तक पहुंच पाता था उस स्तर तक हमारी पैठ न हो पाई। मैं यहां किसी को दोष देने के लिए यह विचार नहीं रख रहा हूं। केवल इस समस्या को याद दिलाना चाहते हैं कि कि जिस समाज को सुरुचि और संस्कार के सबसे प्रभावशाली साधन सााहित्य से विमुख कर दिया जाता है वह संस्कारहीन, उद्दंडों, अहंकारियों और अपराधियों का समाज बनता चला जाता है और उसका साहित्य यदि अपने समाज के निम्नतम स्तर तक अपनी विश्वसनीयता नहीं पैदा कर पाता है तो साहित्यकार राजनीतिज्ञों का अजागलस्तन बन कर रह जाता है।

पाठक या भावक की अपेक्षा के सन्दर्भ में तुलसी और कबीर का ध्यान इसलिए जरूरी लगा कि दोनों की पहुंच एक ही समाज के भिन्न भिन्न तबकों तक रही है। तुलसी भक्ति के कारण नहीं, उस ज्ञान कोश के रूप में उस सवर्ण समाज के भीतर स्वीकृत रहे जिसको इसकी जरूरत थी। दलित समाज को ज्ञान की नहीं उस आत्मोत्थान से वंचित किए जाने की सबसे गहरी पीड़ा थी इसलिए उसमें कबीर के वे व्यंग्य भरे प्रहार जिन पर वर्णसमाज मुग्ध होता है, वे दोहे और साखिया उतनी लोकप्रिय नहीं हुई जितनी अन्तःसाधना के पद और रहस्य कथन जिसमें वे पंडितों के किताबी ज्ञान के समक्ष अपने सूक्ष्मवेद के ज्ञान का विश्वास पालते हुए पंडितों को भी अनाड़ी समझा करते थे। ये मात्र दो उदाहरण पूरी सचाई बयान नहीं करते।

जनता को अपनी थकान और खीझ भरी जिन्दगी से अलग आह्लाद और तन्मयता के एक संसार में ले जाने वाला साहित्य चाहिए इसलिए प्रगतिशीलता के नाम पर लिखी जोशीली कविताएं और कहानियां मजदूरों के काम की नहीं होती, वे अपने आल्हा, बिरहा, फाग और भजन से अधिक आनन्द मग्न होते हैं।

हम पश्चिमी प्रभाव में रची रचनाओं को पढ़ कर वाह वाह करते रहें, पर जीवन में दरबारी कहे जाने वाले साहित्य और सूक्तियों से ही काम लेते हैं और इस मामले में भाषा की दीवारे काफी हद तक टूट जाती हैं क्योंकि मिजाज के स्तर पर इनमें अंतर नहीं है, शब्दावली की रुकावाट अवश्य कुछ समस्या पैदा करती है। हम अपनी कलाकारिता को जनता से तभी जोड़ सकते हैं जब वह जन समाज की अपेक्षाओं की पूर्ति करे और अजनबीपन से मुक्ति देते हुए करे। यह एक मोटी सी समझ है जिस पर अधिक जानकार लोग अपनी प्रतिक्रिया से हमें भी समृद्ध कर सकते हैं।

मैं जो बीच बीच में कुछ तुकबन्दियां जो स्वतः उभर आती हैं पेश करता रहता हूं वह इस प्रयत्न में कि संभव है यह उस अवरोध को तोड़ कर अधिक जनों तक ग्राह्य हो सके। होता यह शब्दों का खेल ही है जैसे कल मृत्यु सुन्दरी पर ये पंक्तियांः
दिल भी अपना था और जां भी थी
तुम्हारे पास थी यहां भी थी
बच सका कौन तुझसे दुनिया में
लोग मरते रहेजहां भी थी ।