Post – 2017-07-08

अपराधी कौन ?(2)

“हाँ अब बताओ! भागने न दूँगा अबकी बार।”
“मैं स्वयं चाहता हूँ तुम इसे समझो। इससे जुड़े तीन पहलू हैं। पहला भावना और विवेक से जुड़ा. दूसरा इसके क्रिया-कलाप से जुड़ा, और तीसरा इसके इतिहास से जुड़ा।

एक कागज़ है, हमने फाड् कर फ़ेंक दिया। उसे कुचल दिया। उसपर थूक दिया. रोज करते हैं। कोई ध्यान तक नहीं देता है। एक दूसरा कागज है जिसके फटने की अफवाह पर दंगे हो जाते हैं क्योंकि प्रचारित किया जाता है कि वह कुरान का पन्ना था। उत्तेजना में कोई यह पता लगाने की कोशिश नहीं करता कि सचमुच ऐसा हुआ भी या नहीं। कोई तर्क नहीं करता कि कुरान शरीफ की आयते मुस्लमान के लिए मान्य है., किताब की वह पूजा नहीं करता, वरना मूर्तिपूजा हो जाएगी। कोई यह समझा नही सकता कि जिसने फाड़ा है उससे एक की जगह सौ पोथियों की मांग करें। प्रश्न किताब का रह ही नहीं गया। यह किसी मुस्लमान द्वारा हुआ हो तो ध्यान भी न दिया जाय। परन्तु यदि किसी गैरमुस्लिम ने ऐसा किया है तो उसका इरादा मुसलमानों की भावनाओं को आहत करने का है, यह जातीय अपमान है और इसको सहन नहीं किया जा सकता।

कोई मुझसे पूछे तो मैं कहूंगा यह व्याख्या सही है। इस पर क्या किया जाना चाहिए इस पर मेरी राय दंगा करने वालों से थोड़ी अलग होगी। पहली यह कि पता लगाओ ऐसा सचमुच हुआ है या नहीं। यदि हाँ तो उस व्यक्ति को पकड़ो और उसे इसकी सजा दो/ दिलवाओ। यदि पकड़ नहीं सकते तो सरकार से मांग करो कि वह उसे पकड़े और दण्डित करे और यदि पता चले कि सरकार कुछ नहीं कर रही तो उस सरकार के विरुद्ध आंदोलन करो। परन्तु इस आदर्श आचार का पालन किसी समाज में होते देखा नहीं गया।

“गाय और गोजाति से जुड़े सवाल को उसके भौतिक पक्ष में वहाँ नहीं समेटा जा सकता जहाँ इसे सचेत रूप में या हेकड़ी में हिन्दुओं की भावनाओं को आहत करने के लिए, योजनाबद्ध रूप में किया गया हो। यह, तुमने ठीक कहा, “आ बैल नहीं, आ सांड मुझे मार” की दावत देना है और ऐसी हालत में सांड अगर मारने लगे तो दोष सांड को नहीं उसे दावत देने वाले को देना होगा।”

“यह सब कुछ भाजपा के सत्ता में आने के बाद ही होना था।”

“यह सवाल तुम मुझसे मत करो। . अपने आप से करो कि यह काम तुम कबसे करते आये हो, इसकी क्या कीमत चुकानी पड़ी , और उससे तुमने क्या सीखा ? यदि नही सीख पाते तो तुम्हारी बुद्धि कहाँ रहती है? किसके काम आती है? जिसके काम आती है उसे देश और समाज की चिंता है या दोनों को बर्वाद करने की कीमत पर केवल अपनी गद्दी और लोकतंत्र को लूटतंत्र में बदलने की आतुरता है? दोषी कौन है और तुम दोष किसे दे रहे हो?”

“तुम्हारा दिमाग क्या है यार। यह सब हम करा रहे है?”

“तुम नही करा रहे थे। तुम्हारा भाजपा द्रोह करा रहा था। तुम्हारी घबराहट करा रही थी। कराने वालों की दुर्गति, और उससे उबरने के लिए लगाया जाने वाला दांव जुगत और पैसा करा रहा था। जो हो रहा था तुम्हारी शह और सलाह और सहयोग से हो रहा था पर तुम उनके साथ थे क्योंकि गोमांस को लेकर हिन्दू समाज को आहात और अतिसंवेदी बनाने का काम तुमने आरम्भ किया था।”

“अरे भाई अब तो ऑंखें खोलो । अब तो छत्तीसगढ़ में भाजपा का बन्दा पकड़ा भी जा चुका है।”

“भाजपा के कड़े सन्देश के बाद भी ऐसा करने वाला भाजपा में घुस कर तुम्हारा काम करने वाला बन्दा हुआ, यह क्यों नहीं समझते? फिफ्थ कॉलमिस्ट, पांचमार्गी, भितरघाती ये सारे तुम्हारे मुहावरे और तुम्हारी रणनीती में आते हैं। उस व्यक्ति को कुछ करते नही पाया गया, वह वहां देखा गया था और पहचान लिया गया था और उसे भाजपा ने भी पहचान लिया था और जेल में डाल दिया। और अब तुमने जान लिया कि लुटेरों और तस्करों की जिस जमात को भड़का कर तुम यह उपद्रव करा रहे थे वह आगे कारगर न होगा। इसीलिए कह रहा था अब आगे ऐसा नहीं होगा, इसलिए इस मसले को भूल जाओ। अब जो करना होगा गुंडे नहीं करेंगे, कानून करेगा इस लिए वे पार्टिया भी न होंगी जिनसे तुम लोगों ने यह अभियान शुरू किया था।“

“समझ में नहीं आता कि मैं अपना सर फोड़ लूँ या तुम्हारा फोड़ दूँ!”

“ऐसी नौबत आ ही जाय तो मेरा सर ही फोड़ना । इसमें से कुछ निकलेगा तो सही। अपना फोड़ोगे तो खप्पर ही अलग होगा और राजनीति के नाम पर शवसाधना करने वालों के ही काम आएगा । लेकिन अभी धीरज से सुनो। तीसरा पहलू तो अभी चर्चा में आया नहीं।”

उसने अपने सर पर थप्पड़ मारा और मुंह लटका कर बैठ गया। पता नहीं मेरी बात सुनने की स्थिति में था भी या नहीं। वह सुने या न सुने, मुझे तो अपनी बात पूरी करनी ही थी,
“देखो कुछ बातें होती हैं जो मजहबी न होकर सांस्कृतिक होती हैं, परन्तु समुदाय विशेष या सम्प्रदाय विशेष के उससे जुड़ाव के कारण ऐसा भरम पैदा करती हैं!”

लगभग आठ सौ साल तक इस देश में मुसलमानों का प्रभुत्व रहा है. ब्रितानी शासन से कई गुना। राजा का वेश, रूचि, जीवनशैली, भाषा सबकुछ इतर जनों के लिए अनुकरणीय होता है और इस तरह सांस्कृतिक श्रेष्ठता और कनिष्ठता का एक अलिखित क्रम बनता है. १- राजा और राज परिवार, २. अमला वर्ग, ३. राजा के धर्मबंधु ४. इनके अनुसार अनुकूलित होने वाले इतर जान; ५. इतर जनों में किसी भी कारण से अपनी श्रेष्ठता का दावा करने वाले लोग, ६. इन सभी से वंचित जनसमाज। इन वंचितों को ऊपर की श्रेणियों में आने वाले सभी लोग तुच्छ समझते हैं और यदि इनका बाहुल्य सम्प्रदाय विशेष से हो तो पहली तीन कोटियों के लोग उस समाज को ही तुच्छ मानने तो तत्पर होते हैं। हिन्दू समाज के प्रति मुसलामानों का एक प्रकट-गोपन परन्तु स्थाई भाव यही रहा है। और इस मामले में हिंदू होते हुए भी कायस्थों का आकलन मुस्लिम आकलन के अधिक निकट पडेगा, इसलिए हमारा सुझाव है कि इस मजहबी नहीं सांस्कृतिक नजरिये से देखना अधिक सही होगा।

इससे अहंता के दो प्रतिस्पर्धी शिविर बनते हैं जो अपने को दूसरे से श्रेष्ठ मानते और दूसरे से मनवाना चाहते हैं और वैसा न होने पर उसे नीचा दिखाने का प्रयत्न करते हैं।
ब्राह्मणों और उनकी जीवनशैली और मूल्य प्रणाली से मुस्लिम संभ्रांत वर्ग की नफरत मध्य काल से चली आई है और आधुनिक काल में यह ईरानी अरबी संस्कृति और भारतीय संस्कृति और कुछ और बढ़ कर पश्चिमी और पूर्वी सभ्यता के टकराव का रूप ले लेती है जिससे असहमत होने वाला व्यक्ति मुस्लिम समुदाय में अभी तक नही तलाश पाया, इस पर पर्दा डालने वाले अवश्य मिल जाएंगे। इतिहासकार का काम परदों का मूल्याङ्कन करना नहीं होता। अब इसके सामाजिक…”

मैं अपना वाक्य पूरा करता इससे पहले ही उठ खड़ा हुआ।

“क्यों क्या हुआ?”

“माईग्रेन का दौरा ।” उसने अपना सर एक ओर को झुंका रखा था और हाथ की मुट्ठी से उसे दबाने की कोशिश कर रहा था। सर फटने के मुहावरे को सचमुच चरितार्थ कर देगा यह तो पहले सोचा ही न था.