बुद्धि के आढ़ती
इस बार मैने ही उसे घेरा, ‘‘अजीब बात है यार, ललकारते हो, इस बार नहीं छोड़ूगा, अब बचकर जाने न दूंगा, और जब समझाता हूं तो तुम्हारा सिर फटने लगता है। यदि मेरी बात सही लगती है, उसका जवाब नहीं सूझता तो उसे मान लेना चाहिए या जीतने हारने की उठापटक में अपना सिर फोड़ लेना चाहिए?’’
उसने कोई जवाब न दिया तो सहम गया, ‘‘क्या सरदर्द अभी तक जारी है।’’
‘‘सिर दर्द अगर एक हो तो उसके उपाय हैं, वह होता भी अस्थायी है, पर जिस सिरदर्द के साथ बैठा हूं उससे निजात पाने के लिए तो कोई दवा बनी नहीं है।’’
मेरी जान में जान आई, अब उसका लिहाज करने की जरूरत नहीं थी, ‘‘जो लोग तुमसे भिन्न राय रखते रहे हैं उनकों तुम उपेक्षा और लानतों से ही अन्धलोक में पहुंचा देते रहे हो, उस खतरे को जानते हुए भी मैं तुमसे लगातार उलझता रहा हूं पर मेरे पास खोने को कुछ न था, इसलिए पाना ही पाना था और तुम्हें गणित के नियम से खोना ही खोना था। तुम मुझसे सहमत हो कर खोने और शिफर होने की दुर्गति से तो बच सकते थे!’’
वह चुप रहा, ‘‘देखो सामना होने पर जीत का एक ही रास्ता खुला रहता है, सत्य को नतशिर हो कर स्वीकार करना। तुम जिस विचारधारा से जुड़े हो, वह विचारधारा होती तो वह भी यही करती। वह विश्वासधाराा है यह मैं लगातार याद दिलाता आ रहा हूं। विचारधारा हो तो उसमें विचार की छूट रहेगी। विश्वास है तो असहमत लोगों से परहेज और घृणा से काम लिया जाएगा। तुम किसी सिरे से जांचो, नतीजा उत्साहवर्धक नहीं मिलेगा। इसलिए कई बार मुझे आश्चर्य इस बात पर होता है कि इतने सारे प्रखर मेधा और प्रतिभा संपन्न लोग सदाशयताा के दबाव में इतने लंबे समय तक मूर्ख बनाए जाते रहे और भेड़ बकरियों की तरह इस्तेमाल किए जाते रहे। सामी मजहबों ने एक बहुत सुन्दर उपमा दी है, धर्मपराणय लोग, अपने विश्वास के कारण भेड़ बकरियों जैसे बना दिए जाते हैं और उनका देष्टा चरवाहा बन जाता है। यही कम्युनिज्म के साथ भी हुआ।“
‘‘तुम बकते रहो, मैं किसी बात की नोटिस ही नहीं लेता।’’
‘‘तुम्हारे ध्यान न देने से बात दब तो नहीं जाती। यह तो शुतुरमुर्ग जैसा बचाव हुआ। इसका सहारा तुमने हमेशा लिया है और इसके अनुपात में ही लोग यह मान कर कि तुम्हारे पास कोई जवाब नहीं है, उनकी बात सुनने और मानने लगे जिनकी तुम नोटिस नहीं लेते। क्या इतनी समझ भी न रह गई है तुम लोगों में?’’
‘‘क्या कहूं, मुझे जो कहना है वह तो तुम खुद कह दे रहे हो। तुम मान चुके हो कि सारे प्रखर मेधा और प्रतिभा के लोग जिस विचार से जुड़े हैं वह मेरा विचार है। निष्कर्ष यह कि तुम मूर्खो के साथ हो। क्या हम मूर्खों को सिर चढ़ाते फिरेंगे?’’
“ऐसा भूलकर भी न करना। तुम्हारी रीढ़ इतनी कमजोर हो चुकी है कि वह तुम्हारे सिर का बोझ भी नहीं उठा सकती। कोई और बोध या जिम्मेदारी तो उठा ही नहीं सकती। यह तो वे लोग हैं जिन्हें तुम औसत दिमाग का कह कर हंसते हो, जड़ पदार्थों का भी बोझ संभाल कर चलते हैं और उनके इस चलने से ही दुनिया चलती है। तुम तो दुनिया को गर्क करने वालों में हो, तुम्हें यह रास न आएगा।’’
वह झुंझला गया, ‘‘अपने दिल पर हाथ रख कर कहो, क्या वाम से जुड़े सभी लोग दुनिया को बिगाड़ना चाहते हैं? और दक्षिण जो पूरी दुनिया में विचार की संकीर्णता के लिए जाना जाता रहा है, वह दुनिया को बनाना चाहता है?’’
‘‘सदाशयता को उनकी सबसे बड़ी आकांक्षा तो मैं पहले ही कह आया हूं यार! यह कैसे कह सकता हूं कि वे दुनिया का अहित करना चाहते हैं। मैं तो यह कह रहा था कि उनके पास सब कुछ है, प्रतिभा, बौद्धिक प्रखरता, सदाशयता फिर भी वे इनमें से किसी का उपयोग नहीं करते, या जिस रूप में करते हैं उसका नतीजा यह कि दुनिया का जितना अहित इनके हाथों हुआ है, उतना उन कमअक्लों से भी नहीं हुआ है जिनको इनकी सूझ और समझ की जरूरत है, परन्तु सबसे पहले तो यह उनकी जरूरत है कि उनके पास जो कुछ है उसके महत्व को जानें और उसका स्वतन्त्र रूप में उपयोग करें।
“वाम पंथ एक भावधारा है और दक्षिण पंथ एक भिन्न भावधारा है। विचार दोनों में नदारद है। जरूरत संवाद के द्वारा उसे ही जाग्रत करने की है। यही मैं लगातार कहता आया हूं। किसी के कहने पर मत चलो। अपने दिमाग से काम लो। विडंबना ही है जिके पास बहुत अधिक दिमाग है वे उसे तिजौरी में बन्द करके बुद्धि के आढ़ती होने का दावा कर रहे हैं।’’