Post – 2017-07-10

कुछ नीतिकथाएं होती हैं जिन्हें हमें बचपन में ही सिखाया जाता है कि जिन्दगी में मार्गदर्शन करेंगी परन्तु बड़े हो कर हम जिन्हें भूल जाते हैं या याद भी रहीं तो यह मान लेते हैं कि बचपन में सिखाई बातें बच्चों के काम की ही होती हैं। ऐसी ही एक कथा भेड़िया आया भेड़िया आया की है। नसीहत के बाद भी जब भेड़िया नहीं आया था हमने चिल्लाना शुरू कर दिया, ‘‘भेड़िया आया भेड़िया आया” और भेड़िये को लगा हमें कोई बुला रहा है सो चला आया। पर यह ऐसा भेड़िया था जो लोगों को आदमी जैसा दीख रहा था. जब चला आया तो चीखना शूरू कर दिया, ‘‘भेड़िया भेड़िया दीखता नहीं पर है भेड़िया ही, अब हमें खा जाएगा।’’ लोग प्रतीक्षा करते रहे अब खाएगा कि तब, परन्तु उसने शोर मचाने वालों को भी महज सूंघ कर छोड़ दिया। ”
अब ललकारने लगे, “तूने तो हमारी साख ही खत्म कर दी, आ जल्दी मुझे खा जिससे लोगों को विश्वास दिला सकूँ की तू सचमुच भेड़िया है.”
तीन साल से यही शोर. थमने का नाम ही नहीं ले रहा. भेड़िया बहरा तो नहीं!