Post – 2017-07-10

संस्कृत वर्णमाला का विकास

किसी भी चीज को समझने के दो तरीके हैं। एक दैवी उत्पत्ति जो सभी क्षेत्रों में डार्विन से पहले दुनिया के सभी समाजों में अपने अपने ढंग से चलता था। इसे महत से तुच्छतर के क्रम में तुच्छतम तक के ह्रास और पतन का सिद्धान्त कह सकते हैं। दूसरा डार्विन के बाद से तुच्छतम से महत का क्रमिक उद्विकास ।

चार्ल्स डार्विन ने अपनी विकासवाद की पुस्तक १९५९ में प्रकाशित की। कुछ समय घबराहट में बीते और फिर धीरे धीरे इसे स्वीकृति मिली। डार्विन की मृत्यु १८८२ में हुई । हाल यह कि मैक्समूलर जैसा व्यक्ति डार्विन के पुत्र से विकासवाद के सिदधान्त के विरोध में बहस कर रहा था।

इसका फलितार्थ यह कि संस्कृत के आतंक, बाइबिल की सृष्टिकथा से तालमेल बैठाते हुए उन्नीसवीं शताब्दी के सास्युर -पूर्व का भाषाविज्ञान प्राकवैज्ञानिक युग का भाषाविज्ञान है जिसकी विश्वसनीयता सन्दिग्ध है। इसमें ही ध्वनि नियम और आद्य रूपों की पुनर्रचना और आद्य भारोपीय का पूरा ढांचा तैयार हो गया, इसलिए वह पूरा तामझाम ही उल्टा है । इसका सही पाठ इसका उल्टा पाठ है।

मार्क्स ने हीगेल को उल्टा भले खड़ा कर दिया हो उनका अधिकांश लेखन डार्विन पूर्व है, इसलिए विज्ञान की दुहाई देने के बाद भी अवैज्ञानिक या प्राग्वैज्ञानिक है।

मार्क्स की याद तो हीगेल को सिर के बल खड़ा करने के मुहावरे से आ गई। कहना यह था कि भाषाविज्ञान को सही करने के लिए पहले की अवधारणाओं को अमान्य करने की, परन्तु उनके द्वारा जुटाई गई सामग्री का आदर करते हुए, उसे नई व्यवस्था के अनुरूप उपयोग में लाने की एक नई चुनौती है। यह है महत या परिनिष्ठित भाषा के क्षरण और ह्रास से बोलियों और उपबोलियों का आविर्भाव की अवधारणा। इसे उलट कर इसका पाठ, अर्थात् तथाकथित उपबोलियों से, जो स्वत: बोलियां या उपबोलियां न थीं, अपितु भाषाएं थीं, क्रमिक उत्थान से मानक भाषाओं का जन्म नहीं, समायोजन और पुनर्गठन हुआ है ।

इस विषय में सास्युर की दृष्टि साफ न थी, ऐसा मुझे लगता है। पर उन्हे इसी दौर मे हुए रोमांस भाषाओं के अध्ययन से, जो संभव है डार्विन से प्रेरित रहा हो, अपनी दृष्टि मिली थी जिसमें यह तथ्य भी सामने आया था कि मानक भाषाएं बोलियों में से किसी के, किन्हीं कारणों से क्रमिक उत्थान से गठित हुई हैं ।
क्रमश:

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