अपतित आपातकाल
“मैं खुद भी समझना चाहता हूँ, इस रहस्य को की क्यों सभी प्रबुद्ध माने जाने वाले लोग उन दलों, विचारों, से परहेज करते हैं, तुम अगर पाखंडी नहीं हो तो तुम भी कल तक करते थे, जिन पर आज अचानक मेहरबान हो गए हो़?’’
‘‘देखो, कई सवालों के दो या अनेक जवाब हुआ करते हैं, इसलिए कि वे एक लगते हुए भी एक नहीं होते। तुम्हारे प्रश्न में छिपे कुछ विश्वास हैं, जो इस सवाल में एकमेक हो गए हैं। पहला यह कि प्रबुद्ध लोग जानकारी के अनुपात में सही भी होते हैं।
“दूसरा विश्वास कि अधिक या सभी प्रबुद्ध लोग जिसे मानते हैं या मानते आए हैं या कभी मानते रहे हैं उसका सही होना निश्चित है।
“तीसरा विश्वास की जिससे हम असहमत होते हैं, या जिससे परहेज करते हैं वह इतना गलत होता है कि उसमें किसी अच्छाई की कल्पना ही नहीं की जा सकती, इसलिए उससे बचते रहे हैं, बचते रहेंगे और इसका पक्का इंतजाम करने के लिए परहेज को नफरत तक पहुंचा देंगे।
“और अन्तिम विश्वास कि बदली हुई परिस्थितियों में किसी ऐसे की प्रशंसा करना जिसकी आज आलोचना करते आए थे, उसका मूल्यांकन नहीं अपितु उस पर मेहरबानी करने जैसा है। मैं गलत कह रहा हूं?’’
उसने हामी नहीं भरी, पर पहले की तुलना में अधिक एकाग्र हो कर सुनने लगा।
‘‘अब इन सबका जवाब अलग अलग देना होगा। इतिहास इसमें हमारी बहुत मदद करता है। तुम जानते हो एक समय दुनिया का सारा ज्ञान ब्राह्मणों में से कुछ के पास सिमटा हुआ था। वे ही सबसे प्रबुद्ध थे। वे मानते थे, और सभी के सभी मानते थे कि ब्राह्मण परमेश्वर के मुख से पैदा हुआ है। सभी के मानने के बाद भी यह विश्वास गलत था। गलती इसलिए कि उन्होंने अपने इतिहास को नहीं समझा। उन्होंने इतिहास गढ़ा और उस गढ़े हुए इतिहास से इतिहास की समझ को नष्ट किया। निष्कर्ष यह कि इतिहास की समझ का अभाव भी उतनी जड़ता नहीं पैदा करता जितना इतिहास की सही समझ का अभाव। अब तुमको नमूने देखने हों तो इसे ही दूसरे विश्वासों जिन्हें मजहब कहा जाता है उन पर घटित करके समझ सकते हो और ठीक उन्हीं नतीजों पर पहुंच सकते हो। अब तुम्हारे पांडित्य के आतंक और पंडितों के जमघट के आतंक से हम बाहर आकर सोच और समझ सकते हैं।
“लगे हाथ यह भी समझ लें कि ब्राह्मणवाद जिसमें वर्ण व्यवस्था आदि आते हैं विश्वास या मजहब है और सनातनधर्म धर्म है। धर्म के सिद्धान्त सार्वभैम और सार्वकालिक होते हैं जिनको समस्त मानवता ही नहीं समस्त प्राणिजगत पर लागू किया जा सकता है, मजहब विश्वास, अन्धविश्वास, फरेब, उस फरेब को कायम रखने वाले तन्त्र पर टिका होता है।
” आवश्यकता मजहबी दायरों से बाहर आने की है, मार्क्स ने जो कुछ कहा है वह भी केवल उसी पर लागू होता है, धर्म पर नहीं। अपनी सीमाओं के बावजूद वह धर्म की स्थापना करना चाहते थे। यह दूसरी बात है कि उनका धर्म सनातन धर्म की तुलना में कई पंगुताओं से ग्रस्त है। धर्म की साधना के लिए तन्त्र या जाल की आवश्यकता नहीं। उसकी सिद्धि व्यक्ति अकेले भी कर सकता है परन्तु परिस्थतियों के दबाव में यह गिने चुने लोगों के लिए भी संभव नहीं हो पाता। इसमें पाखंड का प्रवेश हो जाता है, साम्यवाद अकेली वह व्यवस्था है जिसमें उन्नत धर्मसाधना संभव है।
“अब हम तुम्हारे प्रश्न में अन्तर्निहित तीसरे विश्वास पर आएं. हमारी पसंद और हमारा चुनाव सापेक्ष्य होता है. एक स्थिति में जिससे बचते हैं दूसरी स्थिति में उसका सहारा लेना पड़ता है. हिंस्र प्राणी तक शांति चाहते हैं पर हिंसा उनकी जैव विवशता है जिसके लिए स्वयं प्रकृति ने उन्हें वैसा बनाया है. कहें हिंसा विश्वव्यवस्था की उतनी ही अनिवार्य अपेक्षा है जितनी प्रेम या सौहार्द. शांति के बिना हम न सुख से जी सकते हैं न जीवित रह सकते हैं, फिर भी युद्ध हमें करना होता है और अन्यायी विश्वव्यवस्था में युद्ध की पूरी तैयारी के बिना शांति की बात करना अपने को गुलामी के लिए तैयार करने जैसा है.
“अब रहा तुम्हारा अंतिम विश्वास जो उस प्रश्न में निहित था उसे लें. कोई भी मूल्यांकन सापेक्ष्य हुआ करता और सारे विश्वास देश-काल और ज्ञान निरपेक्ष हुआ करते है. कितना भी समझाओ समझेंगे नहीं, यदि समझ गए और कायल भी हो गए तो मानेंगे नहीं. जो लोग भाजपा को और नरेंद्र मोदी को कोसते हैं वे भी यह मानते हैं कि मोदी और भाजपा का कोई विकल्प आज की भारतीय राजनीति में नहीं है. यदि हो तो मुझे बताओ.”
इस चुनौती के साथ उसकी ओर मुड़ा तो पाया भाई नींद के मजे ले रहे है. मैंने मुस्कराते हुए कुछ ऊँची आवाज में कहा, “अब जवाब क्यों नहीं देते ?” इसके साथ ही वह हड़बड़ा कर उठा और क्षमायाचना वाले स्वर में बोला, “यार युम्हारी बातें बहुत ध्यान से सुन रहा था पर जानें कैसे आँख लग गई.”
“यदि यह पता नहीं कि नींद कैसे आगई तो कारण मैं बताता हूँ. तुम मेरी बातें सुनते हुए उनका मन ही मन कोई जवाब तलाशने की कोशिश कर रहे थे. जवाब सूझ नहीं रहा था. यह विवशता अपमानबोध का रूप लेकर तुम्हारे मन में मेरी बातों के प्रति विरक्ति पैदा कर रही थी. इसके बावजूद तुम मेरे तर्क को सुनना चाहते थे. उदासीनताजन्य थकान ने नींद का रूप लेकर तुम्हे उसी तरह बचा लिया जैसे असह्य वेदना में लोग बेहोश हो जाते या कॉमा में चले जाते हैं.
“तुम्हारी दशा तो फिर भी ठीक है, मोदी और भाजपा के एकमात्र विकल्प बन जाने के बाद हास्यास्पद बन चुके संगठनों और विचारधाराओं से जुड़े लोग अपना अपमान बोध कम करने के लिए पूरा दिन उनका मजाक बनाने के लिए चुटकुले गढ़ने में लगा देते है. जो लोग विवेचन करने वाले लेख लिखा करते थे वे आजकल चुटकुले लिखने से आगे कुछ सोच ही नहीं पारहे है. मोदी के कारन दलों का सफाया तो समझ में आता है पर बुद्धिजीवियों की बुद्धि का यह सफाया अधिक त्रासद है. सचमुच अपतित आपातकाल.”