Post – 2017-06-20

बातूनी लोगों पर भरोसा नहीं किया जा सकता। जबान से बातूनी लोग जल्द पकड़ में आ जाते हैं, कलम के बातूनी लोग अधिक धोखेबाज होते हैं। बातूनी जबान का हो या कलम का, उसे भरोसा होता है कि लोग या तो मूर्ख हैं या निरे भोले भाले और इसलिए उन्हें बेवकूफ बनाया जा सकता है। यही वजह है मैं कहता हूं कला और साहित्य के बातूनियों पर भी भरोसा करना सुरक्षित नहीं है। वे कहेंगे सेना की कार्रवाई से शान्ति में खलल पड़ रहा है, वे छिपा जाएंगे कि शान्ति में खलल पैदा करने वालों के कारण ही सेना और पुलिस की जरूरत पड़ती है और वे अपना सही ढंग से काम न करें तो शान्ति के उपासकों को अपमानित, प्रताडित, कंगाल और अन्ततः आततायियों का गुलाम बन कर जीने का एकमात्र रास्ता बचा रहेगा। इसलिए शान्ति की और दूसरे ऊँचे आदर्शों की एकाएक याद दिलाने वालों को भी परखें कि वह कौन है, उसे अचानक आदर्श कैसे याद आ गया, उसकी मंशा क्या है और कब और किस कीमत पर शान्ति की बात कर रहा है। वह ऊपर से आपका मित्र और भीतर से आतताइयों का हमप्याला हमनिवाला भी हो सकता है। बातूनी लोगा तथ्यों से बचते हैं, प्रमाण देने से कतराते हैं, गोल मोल अनेकार्थी जुमले बोलते हैं कि घिर जाने पर बयान बदल सकें या कह सकें कि उन्हें समझने में भूल की गई या उनको बदनाम करने के लिए खींचतान की जा रही है। अपने भोलेपन में वे खासे शातिर होते है.

कहेंगे सेनाध्यक्ष को बयान से बचना चाहिए परन्तु स्वय सेना पर, सेनाध्यक्ष पर बयान देने को अपना अधिकार मानेंगे और तंग आकर अपना और अपने सैनिकों का मनाबल बनाए रखने के लिए उसे बचाव का भी अधिकार न देंगे। फाासिज्म सेना के दखल से आता नहीं है लोग फासिज्म लाने और उसे प्रथम आपात में उचित सिद्ध होने का पर्यावरण स्वयं तैयार करते हैं।